भारतीय कक्षाओं में असमानता दूर करने के उपाय
पाठ्यक्रम पुनर्संरचना के प्रयास
(EFFORTS FOR RECONSTRUCTION OF CURRICULUM
TO ERADICATE DISSIMALARITY IN NDIAN CLASSES)
भारत में पाठ्यक्रम पुनर्संरचना का प्रथम व्यापक प्रयास 1937 ई. में गाँधीजी के बुनियादी शिक्षा के विचार के माध्यम से प्रारम्भ हुआ, किन्तु ब्रिटिश शासनकाल में इस दिशा में कोई विशेष कार्य नहीं हो सका। स्वतन्त्रता प्राप्ति के पश्चात् प्राथमिक शिक्षा के स्तर पर बुनियादी शिक्षा योजना को राष्ट्रीय शिक्षा के रूप में स्वीकार किया गया। इसके अन्तर्गत हस्तकला को केन्द्र मानकर सम्पूर्ण शिक्षा प्रदान करने का प्रयास किया गया। हस्तकला के साथ-साथ भौतिक एवं सामाजिक पर्यावरण को भी पाठ्यक्रम में स्थान दिया गया। इस प्रकार हस्तकला तथा भौतिक एवं सामाजिक पर्यावरण के अध्ययन के द्वारा विभिन्न विषयों में सहसम्बन्ध स्थापित करने का प्रयास किया गया।
स्वतन्त्रता प्राप्ति के तुरन्त बाद ही 1948 में डॉ. राधाकृष्णन् की अध्यक्षता में विश्वविद्यालय शिक्षा आयोग का गठन किया गया। इस आयोग ने स्कूल पाठ्यक्रम में निम्नलिखित कमियों की ओर ध्यान उत्कृष्ट किया
(1) वर्तमान पाठ्यक्रम बहुत संकुचित है।
(2) यह अधिक सैद्धान्तिक एवं पुस्तकीय है।
(3) महत्त्वपूर्ण एवं सार्थक अन्तर्वस्तुओं के अभाव के बाद भी यह बोझिल है।
(4) इसमें व्यक्तित्व के पूर्ण विकास के व्यावहारिक एवं अन्य क्रियाओं का पर्याप्त समावेश नहीं हो पाता है।
(5) इससे किशोरों की विभिन्न आवश्यकताओं की पूर्ति तथा उनकी क्षमताओं का उपयोग नहीं हो पाता है।
(6) इसमें परीक्षाओं पर अधिक बल दिया जाता है।
(7) इसमें तकनीकी एवं व्यावहारिक विषयों का समावेश नहीं किया गया है जो देश के औद्योगिक एवं आर्थिक विकास हेतु बालकों को प्रशिक्षित करने के लिए नितान्त आवश्यक है।
अत: माध्यमिक शिक्षा आयोग ने स्वतन्त्र लोकतान्त्रिक भारत की आवश्यकताओं के अनुरूप प्रचलित पाठ्यक्रम में व्यापक सुधार लाने हेत कई महत्त्वपूर्ण सझाव दिये जिनमें से कुछ प्रमुख सुझाव इस प्रकार है
(1) तकनीकी शिक्षा की आवश्यकता की पूर्ति हेतु बहुउद्देशीय विद्यालयों की स्थापना।
(2) माध्यमिक स्तर की शिक्षा अवधि में परिवर्तन।
(3) माध्यमिक स्तर पर एक सामान्य (कोर) पाठ्यक्रम।
इस आयोग में पाठ्यक्रम निर्माण हेतु निम्नांकित सिद्धान्तों के अनुपालन पर भी बल दिया है
(1) अनुभवों की पूर्णता का सिद्धान्त।
(2) विविधता एवं लचीलेपन का सिद्धान्त।
(3) सामान्य (कोर) विषयों का सिद्धान्त।
(4) अवकाश के उपयोग का सिद्धान्त।
(5) सामुदायिक जीवन से सम्बन्ध स्थापित करने का सिद्धान्त।
(6) विभिन्न विषयों में सम्बन्ध का सिद्धान्त।
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