शैक्षिक तकनीकी तथा सूचना एवं संप्रेषण तकनीकी VBSPU
Shaikshik Takniki Tatha Suchna Sampreshan T
akniki VBSPU
विषय | शैक्षिक तकनीकी तथा सूचना एवं संप्रेषण तकनीकी |
Subject | Shaikshik Takniki Tatha Suchna Sampreshan takniki |
Educational Technology & ICT | |
Course | B.Ed 1st Year Semester-2 |
Code | 202 |
University | VBSPU JAUNPUR (UP) and Other |
Semester | 2nd semester |
Year | 1st Year |
AB JANKARI इस पेज में वीर बहादुर सिंह पूर्वांचल विश्वविद्यालय बी. एड. प्रथम वर्ष (द्वितीय सेमेस्टर) पेपर -202 " शैक्षिक तकनीकी तथा सूचना एवं संप्रेषण तकनीकी नोट्स " , शैक्षिक तकनीकी तथा सूचना एवं संप्रेषण तकनीकी असाइनमेंट , शैक्षिक तकनीकी तथा सूचना एवं संप्रेषण तकनीकी प्रश्न-उत्तर को शमिल किया गया है |
खण्ड-अः अतिलघु उत्तरीय प्रश्न
(Section - A Very Short Answer Type Questions)
निर्देश : इस खण्ड में प्रश्न संख्या 1 (iसेx ) अतिलघु उत्तरीय प्रश्न है। परीक्षार्थियों को सभी 10 प्रश्नों का उत्तर देना अनिवार्य है। प्रत्येक प्रश्न के लिए 2 अंक निर्धारित हैं। (10 x 2 = 20 अंक)
खण्ड-ब: लघु उत्तरीय प्रश्न
(Section-B : Short Answer Type Questions)
निर्देश: : इस खण्ड में प्रश्न संख्या 2 से 6 लघु उत्तरीय प्रश्न हैं । परीक्षार्थियों को सभी पाँच प्रश्नों का उत्तर देना अनिवार्य है। प्रत्येक प्रश्न के लिए 8 अंक निर्धारित हैं। प्रत्येक प्रश्न का उत्तर लगभग 200 शब्दों में दीजिए । (5 × 8 = 40 अंक)
(01) प्रश्न 2 (i) सूक्ष्म शिक्षण के विभिन्न उपयोग बताइए । ?
(01) प्रश्न 2 (i) सूक्ष्म शिक्षण के विभिन्न उपयोग बताइए । |
उत्तर-
विभिन्न प्रकार की आलोचना के बावजूद भी सूक्ष्म अध्यापन अध्यापन - प्रक्रिया में शिक्षण- प्रशिक्षण का निःसन्देह बहुत ही उपयोगी साधन व तकनीक है । अध्यापन प्रक्रिया के विभिन्न पक्षों का ध्यान रखकर सूक्ष्म अध्यापन में इनका उपयोग कैसे किया जाता है- इस पर चर्चा अपेक्षित है।
(1) सिद्धान्त और व्यवहार का एकीकरण -
सूक्ष्म अध्यापन का आधार मनोविज्ञान के अधिगम नियम और शैक्षिक समाजशास्त्र का व्यावहारिक पक्ष है। छात्राध्यापकों में अध्ययन-अध्यापन प्रक्रिया की सफलता हेतु उचित एवं पर्याप्त अभिप्रेरणा होना आवश्यक है । अध्यापन - अभ्यास के विस्तृत एवं दीर्घकालीन कार्यक्रम की अपेक्षा घटक-कौशल के छोटे-छोटे संक्षिप्त चक्रों में अधिक अभिप्रेरण होगा। अलग-अलग कौशल में पर्याप्त अभ्यासोपरान्त सभी कौशल योग्यताओं का एकीकरण विस्तृत पाठ में किया जाता है। इस प्रकार 'अशों से पूर्ण' सिद्धान्त के आधार पर अध्ययन कला में प्रवीणता प्राप्त की जाती है। इस प्रणाली से कुशल एवं प्रभावशाली अध्यापक आसानी से व कम समय में प्रशिक्षित किये जाते हैं।
(2) व्यावसायिक परिपक्वता -
व्यावसायिक परिपक्वता प्राप्त करने हेतु अनुभवी अध्यापक भी सूक्ष्म अध्यापन-प्रणाली का एक सुरक्षित साधन के रूप में उपयोग कर सकते हैं। विशिष्ट विषय अथवा अध्यापन-प्रणाली का चयन कर इस विधि से कम समय में अभ्यास कर वे उसके प्रभाव एवं सफलता का मूल्यांकन कर सकते हैं। इससे व्यावसायिक लाभ के साथ-साथ परिपक्वता भी विकसित होती है।
( 3 ) सेवारत प्रशिक्षण हेतु उपयोग-
सेवा - पूर्व अध्यापक प्रशिक्षण में तो सूक्ष्म अध्यापन का उपयोग हो ही रहा है, सेवारत ( Inservice) प्रशिक्षण में भी शालाओं में सेवारत अध्यापकों के कौशल परिष्कार हेतु इस तकनीक़ का प्रयोग किया जाता है। सेवारत अध्यापकों में व्यवहार में कई बार कठोरता आ जाती है और कुछ बात में उनकी आदत - सी बन जाती है। इस कठोरता को कम करने और इन आदतों में सुधार लाने हेतु भी सूक्ष्म अध्यापन का उपयोग किया जाता है।
(02) प्रश्न 2 (ii) शिक्षण प्रतिमान की उपयोगिता बताइए ?
(02) प्रश्न 2 (ii) शिक्षण प्रतिमान की उपयोगिता बताइए |
उत्तर -
(1) शिक्षण को प्रभावी बनाने के लिए यह बहुत उपयोगी है।
(2) इनके प्रयोग से शिक्षण में सुधार तथा परिवर्तन लाया जा सकता है।
(3) इसके द्वारा शिक्षण के क्षेत्र से विशिष्टीकरण सम्भव है।
(4) यह मूल्यांकन की एक विशिष्ट कसौटी प्रस्तुत करता है और व्यवहार का मूल्यांकन करता है ।
(5) प्रतिमान में अनेक विधियों, प्रविधियों तथा युक्तियों का प्रयोग किया जाता है ।
(6) यह अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन के लिए उपयुक्त उद्दीपक परिस्थितियों के चयन में सहायक है।
(7) इनका स्वरूप व्यावहारिक होता है और सीखने की उपलब्धि सम्भव कराता है।
(8) प्रत्येक प्रतिमान कुछ विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक है।
प्रश्न 2 (iii) ई-मेल का अर्थ स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर-
ई-मेल का अर्थ-
ई-मेल का तात्पर्य इलेक्ट्रानिक मेल से है। यह एक ऐसी प्रणाली है जिसमें इलेक्ट्रानिक नेटवर्क तथा उससे परे विभिन्न प्रकार के लिखित सन्देशों का आदान-प्रदान किया जाता है।
1. ई-मेल द्वारा कई प्रकार के सन्देश, चित्र, दस्तावेज, स्प्रैड शीट, वीडियो क्लिप आदि भेजे जा सकते हैं। इसमें डाकिये की कोई आवश्यकता नहीं रहती है। घर बैठे सन्देश तथा अन्य सामग्री प्राप्त हो जाती है।
2. ई-मेल में बहुत ही कम समय लगता है। तुरन्त आदान-प्रदान हो जाता है।
प्रश्न 2 (v) शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में कठोर उपागम किस प्रकार उपयोगी है?
उत्तर -
कठोर, शिल्प उपागम में प्रयुक्त उपकरणों की उपलब्धता के आधार पर इनके शैक्षिक प्रयोग की वर्तमान स्थिति एवं भावी सम्भावनाओं पर विचार करेंगे। जगत नयन बहुखण्डी का मत है कि “शैक्षिक प्रौद्योगिकी आकाशवाणी, दूरदर्शन व अन्य जनसंचार माध्यमों द्वारा शिक्षार्थियों के लिए ज्ञानोपयोगी पाठों का प्रसारण व प्रचार कर कक्षागत शिक्षण को परिपूरित करती है। छात्र-छात्राओं हेतु आयोजित पाठ सामान्यतया पाठ्यक्रम पर आधारित होते हैं लेकिन यदा-कदा संवर्द्धन हेतु भी उनका प्रसारण किया जाता है। इन माध्यमों द्वारा शिक्षकों के व्यावसायिक उन्नयन के लिए भी कार्यक्रम का प्रसारण होता है। दूरदर्शन पर प्रदर्शित शैक्षिक विषयवस्तु को नये व सरल ढंग से प्रस्तुत करने की विधा से भी शिक्षकों को अवगत कराते हैं। इस प्रकार शैक्षिक प्रौद्योगिकी शिक्षा की परिपूरक व साधन बन जाती है। इनके संचालन में शिक्षकों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है— सीमित साधनों, असीमित जनसंख्या व उससे उत्पन्न समस्याओं के कारण शैक्षिक प्रौद्योगिकी का वांछित विकास नहीं हुआ है। यह अभी तक शिक्षा की माध्यम मात्र रही है। वीडियो कैसेट प्लेयर्स की विद्यालयों में सहज उपलब्धि न होने के कारण उनकी शैक्षिक क्षमताओं के लाभ से जगत् अभी तक वंचित रहा लेकिन देश में इलेक्ट्रॉनिक उद्योग के विकास के साथ-साथ भविष्य में व्यक्तिगत विद्यालयों या उनके समूहों के लिए इस उपकरण को खरीदना सम्भव हो जायगा । साथ ही विभिन्न विषयों पर हर स्तर के पाठ्यक्रमों के वीडियो कैसेट्स भी उन्हें सहज उपलब्ध होने लगेंगे। ऐसी स्थिति में शैक्षिक प्रौद्योगिकी शिक्षा की एक समानान्तर पद्धति के रूप में विकसित हो जायगी व स्वाध्याय की अनन्त सम्भावनाएँ शिक्षार्थियों को मिल जायँगी।"
प्रश्न 2 (vi) शिक्षण तकनीकी के प्रकार ।
अथवा
प्रश्न 2 (vii) शिक्षण, अनुदेशन तथा अधिगम के बीच अन्तर स्पष्ट कीजिए।
अथवा
शिक्षण, अधिगम तथा अनुदेशन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
शिक्षण, अनुदेशन और अधिगम में अन्तर
शिक्षण के सही अर्थ को समझने के लिये .-
(i) शिक्षण, (ii) अनुदेशन तथा, ( III ) अधिगम अथवा सीखने में अन्तर समझना परम आवश्यक है। अतः निम्नलिखित पंक्तियों में हम इन तीनों के अन्तर को स्पष्ट कर रहे हैं-
(i) शिक्षण शिक्षण के अन्तर्गत शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच पारस्परिक अन्तःप्रक्रिया होती है जिसके परिणाम-स्वरूप विद्यार्थी उद्देश्य की ओर प्रभावित होते हैं। दूसरे शब्दों में शिक्षण का प्रमुख तत्त्व शिक्षण तथा विद्यार्थियों का पारस्परिक सम्बन्ध अथवा अन्तःप्रक्रिया है जो विद्यार्थियों को उद्देश्यों की ओर प्रभावित करती है ।
(ii) अनुदेशन - अनुदेशन के अन्तर्गत शिक्षक और विद्यार्थी के बीच पारस्परिक अन्तःप्रक्रिया नहीं होती है। फिर भी इसके द्वारा विद्यार्थी उद्देश्य की ओर प्रभावित हो सकते हैं। शिक्षण और अनुदेशन का मुख्य अन्तर यह है कि शिक्षण में तो अनुदेशन निहित होता है परन्तु अनुदेशन में शिक्षण नहीं है । इसके अतिरिक्त शिक्षण द्वारा विद्यार्थियों के ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक तीनों पक्षों का विकास किया जा सकता है जबकि अनुदेशन द्वारा केवल ज्ञानात्मक पक्ष को ही विकसित किया जा सकता है अत: कोई भी अनुदेशन शिक्षण का स्थान नहीं ले सकता । संक्षेप में अनुदेशन वह प्रक्रिया है जो विद्यार्थियों को केवल ज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों की ओर प्रभावित करती है।
(iii) अधिगम अथवा सीखना सीखने का तात्पर्य है - (i) क्रियायें तथा (ii) अनुभव। शिक्षण और अनुदेशन दोनों ही सीखने को नाना प्रकार की क्रियाओं तथा अनुभवों के द्वारा प्रभावित करते हैं। अतः अधिगम अथवा सीखने का अर्थ विद्यार्थियों के व्यवहार में क्रियाओं तथा अनुभवों द्वारा परिवर्तित करना है।
प्रश्न 2 (viii) भाषा - प्रयोगशाला की उपयोगिता बताइए ।
उत्तर-
प्रश्न 2(ix) भाषा - प्रयोगशाला के प्रकारों का वर्णन कीजिए।
उत्तर -
प्रश्न 2(x) शैक्षिक तकनीकी की प्रमुख विशेषताओं की व्याख्या कीजिए ।
उत्तर-
शैक्षिक तकनीकी की विशेषताएँ -
प्रश्न 2 (xi) शैक्षिक तकनीकी के प्रमुख कार्य बताइए ।
उत्तर -
शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक तकनीकी महत्त्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन करती है। इन कार्यों का विवेचन निम्न प्रकार किया जा सकता है—
(1) शिक्षण को प्रभावयुक्त बनाना -
शैक्षिक तकनीकी द्वारा शिक्षण के सिद्धान्तों, प्रविधियों तथा युक्तियों को नये ढंग से निर्धारित किया गया है जिससे शिक्षण अधिक प्रभावी हो गया है।
(2) शिक्षण की प्रक्रिया को उद्देश्यपूर्ण बनाना —
शिक्षण तकनीकी आधार पर शिक्षण एवं अधिगम के क्षेत्रों में मनोवैज्ञानिक साधनों का प्रयोग किया जाने लगा है जिसके कारण शिक्षण लक्ष्यों की सफलतापूर्वक प्राप्ति की जा सकती है।
(3) प्रभावशाली अध्यापकों का निर्माण -
शैक्षिक तकनीकी का एक अंग व्यवहार का विश्लेषण तथा मूल्यांकन किया जाता है तथा शिक्षक के व्यवहार के विकास की प्रविधियों माइक्रो शिक्षण, सीमुलेटेड शिक्षण आदि का प्रयोग किया जाता है।
प्रश्न 2 (xii) शैक्षिक तकनीकी के प्रमुख उद्देश्य बताइए ।
उत्तर-
(2) इनके प्रयोग से शिक्षण में सुधार तथा परिवर्तन लाया जा सकता है।
(3) इसके द्वारा शिक्षण के क्षेत्र से विशिष्टीकरण सम्भव है।
(4) यह मूल्यांकन की एक विशिष्ट कसौटी प्रस्तुत करता है और व्यवहार का मूल्यांकन करता है ।
(5) प्रतिमान में अनेक विधियों, प्रविधियों तथा युक्तियों का प्रयोग किया जाता है ।
(6) यह अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन के लिए उपयुक्त उद्दीपक परिस्थितियों के चयन में सहायक है।
(7) इनका स्वरूप व्यावहारिक होता है और सीखने की उपलब्धि सम्भव कराता है।
(8) प्रत्येक प्रतिमान कुछ विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति में सहायक है।
(03) ई-मेल का अर्थ स्पष्ट कीजिए।
(03) ई-मेल का अर्थ स्पष्ट कीजिए। |
उत्तर-
ई-मेल का अर्थ-
ई-मेल का तात्पर्य इलेक्ट्रानिक मेल से है। यह एक ऐसी प्रणाली है जिसमें इलेक्ट्रानिक नेटवर्क तथा उससे परे विभिन्न प्रकार के लिखित सन्देशों का आदान-प्रदान किया जाता है।
1. ई-मेल द्वारा कई प्रकार के सन्देश, चित्र, दस्तावेज, स्प्रैड शीट, वीडियो क्लिप आदि भेजे जा सकते हैं। इसमें डाकिये की कोई आवश्यकता नहीं रहती है। घर बैठे सन्देश तथा अन्य सामग्री प्राप्त हो जाती है।
2. ई-मेल में बहुत ही कम समय लगता है। तुरन्त आदान-प्रदान हो जाता है।
(04) प्रश्न 2 (iv) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान क्या है? इस प्रतिमान के अवयवों का सविस्तार वर्णन कीजिए ?
(04) प्रश्न 2 (iv) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान क्या है? इस प्रतिमान के अवयवों का सविस्तार वर्णन कीजिए |
प्रश्न 2 (iv) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान क्या है? इस प्रतिमान के अवयवों का सविस्तार वर्णन कीजिए ।
अथवा
बुनियादी शिक्षण प्रतिमान का वर्णन कीजिए।
अथवा
बुनियादी शिक्षण प्रतिमान क्या है?
उत्तर-
ग्लेसर का बुनियादी शिक्षण प्रतिमान--
यह प्रतिमान जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है बुनियादी शिक्षण प्रतिमान पूरी शिक्षण-प्रक्रिया के बारे में बुनियादी ढंग से विचार करता है। इस प्रतिमान की रचना सन् 1962 ई० में राबर्ट ग्लेसर ने की। यह प्रतिमान मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों की पृष्ठभूमि पर आधारित है, इसीलिए इसे वैज्ञानिक प्रतिमान के नाम से भी पुकारा जाता है क्योंकि इसके अन्तर्गत शिक्षण-प्रक्रिया में अन्तर्निहित ज्ञानात्मक, तर्कसम्मत एवं विश्लेषणात्मक पक्षों को भली प्रकार समझा जाता है और तदनुकूल शिक्षण कार्य की व्याख्या की जाती है। जोयस और वील ने इस प्रतिमान को 'कक्षा सभा प्रतिमान' की संज्ञा दी है।
ग्लेसर के इस प्रतिमान में शिक्षण की प्रक्रिया को निम्नलिखित चार घटकों में विभाजित किया गया है-
(i) अनुदेशनात्मक उद्देश्य,
(ii) प्रारम्भिक व्यवहार,
(iii) अनुदेशनात्मक प्रक्रिया,
(iv) उपलब्धि अथवा निष्पादन मूल्यांकन ।
यह प्रतिमान शिक्षण-प्रक्रिया को बड़े सरल किन्तु उपयुक्त रीति से प्रयुक्त करता है।
1. अनुदेशनात्मक उद्देश्य -
अनुदेशनात्मक उद्देश्य का तात्पर्य उन व्यवहारों या क्रियाओं से जिन्हें शिक्षण के पश्चात् अर्थात् शिक्षण की प्रक्रिया के सफलतापूर्वक सम्पन्न होने के बाद छात्र अर्जित कर लेगा। सिद्धान्त उद्देश्य पाठ, विषय-वस्तु, छात्रों की योग्यता एवं परिपक्वता के स्तर के अनुसार बदलता रहता है। इसका विस्तार शब्दों के अर्थ याद करने से भारतीय संस्कृति के जीवन मूल्यों को चरितार्थ करने तक हो सकता है। इसके दो प्रमुख क्षेत्र हैं - ज्ञानात्मक और क्रियात्मक ।
2. प्रारम्भिक व्यवहार -
इसका सम्बन्ध छात्रों के पूर्वज्ञान या विकास के स्तर से है, अर्थात् यह छात्र का वह स्तर है जहाँ से नवीन ज्ञान या अधिगम को जोड़ना शुरू किया जायगा। छात्रों के वर्तमान ज्ञान का स्तर, उनके बौद्धिक विकास का विस्तार, उनकी अभिप्रेरणा की स्थिति और उनके अधिगम को प्रभावित करनेवाले सभी सामाजिक तथा सांस्कृतिक चरण प्रारम्भिक व्यवहार के अन्तर्गत आते हैं। शिक्षण की प्रभावकारिता या शिक्षण की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि शिक्षण द्वारा प्रस्तुत किया जानेवाला नवीन पाठ, ज्ञान यो कौशल के प्रारम्भिक व्यवहार या पूर्वज्ञान से किस सीमा तक जुड़ा हुआ है।
3. अनुदेशनात्मक प्रक्रिया -
इस घटक के अन्तर्गत शिक्षण की प्रक्रिया का वर्णन किया जाता है। शिक्षण के उद्देश्यों और छात्र के पूर्वज्ञान को दृष्टि में रखते हुए शिक्षण की विधियों, प्रविधियों या व्यूहों की रचना की जाती है। जो कुछ भी पढ़ना या सीखना होता है, उसे प्रस्तुत करना ही अनुदेशनात्मक प्रक्रिया है।
4. निष्पादन मूल्यांकन -
शिक्षण क्रिया के अन्त में परीक्षणों व निरीक्षणों के सहारे इस बात का मूल्यांकन किया जाता है कि उद्देश्यों के सन्दर्भ में छात्रों के व्यवहार में किस सीमा तक परिवर्तन हुआ। दूसरे शब्दों में छात्र शैक्षिक उद्देश्यों को किस सीमा तक प्राप्त कर सके, इसकी जाँच मूल्यांकन द्वारा की जाती है। यदि मूल्यांकन से यह ज्ञात होता है कि छात्र उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर सका है या उद्देश्यों की प्राप्ति में पीछे रह गया.. है तो उसी के अनुसार शिक्षण में उपर्युक्त तीनों ही घटकों में परिवर्तन करना पड़ेगा। शिक्षण के बुनियादी प्रतिमान को निम्नांकित चित्र में प्रस्तुत किया गया है। उल्लेखनीय है कि चौथा घटक मूल्यांकन अन्य तीनों ही घटकों को प्रतिपुष्टि प्रदान करता है और उनकी प्रभावकारिता बढ़ाने में सहायक होता है।
अथवा
बुनियादी शिक्षण प्रतिमान का वर्णन कीजिए।
अथवा
बुनियादी शिक्षण प्रतिमान क्या है?
उत्तर-
ग्लेसर का बुनियादी शिक्षण प्रतिमान--
यह प्रतिमान जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है बुनियादी शिक्षण प्रतिमान पूरी शिक्षण-प्रक्रिया के बारे में बुनियादी ढंग से विचार करता है। इस प्रतिमान की रचना सन् 1962 ई० में राबर्ट ग्लेसर ने की। यह प्रतिमान मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों की पृष्ठभूमि पर आधारित है, इसीलिए इसे वैज्ञानिक प्रतिमान के नाम से भी पुकारा जाता है क्योंकि इसके अन्तर्गत शिक्षण-प्रक्रिया में अन्तर्निहित ज्ञानात्मक, तर्कसम्मत एवं विश्लेषणात्मक पक्षों को भली प्रकार समझा जाता है और तदनुकूल शिक्षण कार्य की व्याख्या की जाती है। जोयस और वील ने इस प्रतिमान को 'कक्षा सभा प्रतिमान' की संज्ञा दी है।
ग्लेसर के इस प्रतिमान में शिक्षण की प्रक्रिया को निम्नलिखित चार घटकों में विभाजित किया गया है-
(i) अनुदेशनात्मक उद्देश्य,
(ii) प्रारम्भिक व्यवहार,
(iii) अनुदेशनात्मक प्रक्रिया,
(iv) उपलब्धि अथवा निष्पादन मूल्यांकन ।
यह प्रतिमान शिक्षण-प्रक्रिया को बड़े सरल किन्तु उपयुक्त रीति से प्रयुक्त करता है।
1. अनुदेशनात्मक उद्देश्य -
अनुदेशनात्मक उद्देश्य का तात्पर्य उन व्यवहारों या क्रियाओं से जिन्हें शिक्षण के पश्चात् अर्थात् शिक्षण की प्रक्रिया के सफलतापूर्वक सम्पन्न होने के बाद छात्र अर्जित कर लेगा। सिद्धान्त उद्देश्य पाठ, विषय-वस्तु, छात्रों की योग्यता एवं परिपक्वता के स्तर के अनुसार बदलता रहता है। इसका विस्तार शब्दों के अर्थ याद करने से भारतीय संस्कृति के जीवन मूल्यों को चरितार्थ करने तक हो सकता है। इसके दो प्रमुख क्षेत्र हैं - ज्ञानात्मक और क्रियात्मक ।
2. प्रारम्भिक व्यवहार -
इसका सम्बन्ध छात्रों के पूर्वज्ञान या विकास के स्तर से है, अर्थात् यह छात्र का वह स्तर है जहाँ से नवीन ज्ञान या अधिगम को जोड़ना शुरू किया जायगा। छात्रों के वर्तमान ज्ञान का स्तर, उनके बौद्धिक विकास का विस्तार, उनकी अभिप्रेरणा की स्थिति और उनके अधिगम को प्रभावित करनेवाले सभी सामाजिक तथा सांस्कृतिक चरण प्रारम्भिक व्यवहार के अन्तर्गत आते हैं। शिक्षण की प्रभावकारिता या शिक्षण की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि शिक्षण द्वारा प्रस्तुत किया जानेवाला नवीन पाठ, ज्ञान यो कौशल के प्रारम्भिक व्यवहार या पूर्वज्ञान से किस सीमा तक जुड़ा हुआ है।
3. अनुदेशनात्मक प्रक्रिया -
इस घटक के अन्तर्गत शिक्षण की प्रक्रिया का वर्णन किया जाता है। शिक्षण के उद्देश्यों और छात्र के पूर्वज्ञान को दृष्टि में रखते हुए शिक्षण की विधियों, प्रविधियों या व्यूहों की रचना की जाती है। जो कुछ भी पढ़ना या सीखना होता है, उसे प्रस्तुत करना ही अनुदेशनात्मक प्रक्रिया है।
4. निष्पादन मूल्यांकन -
शिक्षण क्रिया के अन्त में परीक्षणों व निरीक्षणों के सहारे इस बात का मूल्यांकन किया जाता है कि उद्देश्यों के सन्दर्भ में छात्रों के व्यवहार में किस सीमा तक परिवर्तन हुआ। दूसरे शब्दों में छात्र शैक्षिक उद्देश्यों को किस सीमा तक प्राप्त कर सके, इसकी जाँच मूल्यांकन द्वारा की जाती है। यदि मूल्यांकन से यह ज्ञात होता है कि छात्र उद्देश्यों को प्राप्त नहीं कर सका है या उद्देश्यों की प्राप्ति में पीछे रह गया.. है तो उसी के अनुसार शिक्षण में उपर्युक्त तीनों ही घटकों में परिवर्तन करना पड़ेगा। शिक्षण के बुनियादी प्रतिमान को निम्नांकित चित्र में प्रस्तुत किया गया है। उल्लेखनीय है कि चौथा घटक मूल्यांकन अन्य तीनों ही घटकों को प्रतिपुष्टि प्रदान करता है और उनकी प्रभावकारिता बढ़ाने में सहायक होता है।
(05) प्रश्न 2 (v) शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में कठोर उपागम किस प्रकार उपयोगी है? ?
(05) प्रश्न 2 (v) शिक्षण अधिगम प्रक्रिया में कठोर उपागम किस प्रकार उपयोगी है? |
उत्तर -
कठोर, शिल्प उपागम में प्रयुक्त उपकरणों की उपलब्धता के आधार पर इनके शैक्षिक प्रयोग की वर्तमान स्थिति एवं भावी सम्भावनाओं पर विचार करेंगे। जगत नयन बहुखण्डी का मत है कि “शैक्षिक प्रौद्योगिकी आकाशवाणी, दूरदर्शन व अन्य जनसंचार माध्यमों द्वारा शिक्षार्थियों के लिए ज्ञानोपयोगी पाठों का प्रसारण व प्रचार कर कक्षागत शिक्षण को परिपूरित करती है। छात्र-छात्राओं हेतु आयोजित पाठ सामान्यतया पाठ्यक्रम पर आधारित होते हैं लेकिन यदा-कदा संवर्द्धन हेतु भी उनका प्रसारण किया जाता है। इन माध्यमों द्वारा शिक्षकों के व्यावसायिक उन्नयन के लिए भी कार्यक्रम का प्रसारण होता है। दूरदर्शन पर प्रदर्शित शैक्षिक विषयवस्तु को नये व सरल ढंग से प्रस्तुत करने की विधा से भी शिक्षकों को अवगत कराते हैं। इस प्रकार शैक्षिक प्रौद्योगिकी शिक्षा की परिपूरक व साधन बन जाती है। इनके संचालन में शिक्षकों की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है— सीमित साधनों, असीमित जनसंख्या व उससे उत्पन्न समस्याओं के कारण शैक्षिक प्रौद्योगिकी का वांछित विकास नहीं हुआ है। यह अभी तक शिक्षा की माध्यम मात्र रही है। वीडियो कैसेट प्लेयर्स की विद्यालयों में सहज उपलब्धि न होने के कारण उनकी शैक्षिक क्षमताओं के लाभ से जगत् अभी तक वंचित रहा लेकिन देश में इलेक्ट्रॉनिक उद्योग के विकास के साथ-साथ भविष्य में व्यक्तिगत विद्यालयों या उनके समूहों के लिए इस उपकरण को खरीदना सम्भव हो जायगा । साथ ही विभिन्न विषयों पर हर स्तर के पाठ्यक्रमों के वीडियो कैसेट्स भी उन्हें सहज उपलब्ध होने लगेंगे। ऐसी स्थिति में शैक्षिक प्रौद्योगिकी शिक्षा की एक समानान्तर पद्धति के रूप में विकसित हो जायगी व स्वाध्याय की अनन्त सम्भावनाएँ शिक्षार्थियों को मिल जायँगी।"
(06) प्रश्न 2 (vi) शिक्षण तकनीकी के प्रकार ?
(06) प्रश्न 2 (vi) शिक्षण तकनीकी के प्रकार |
अथवा
शैक्षिक तकनीकी के प्रकारों की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए ।
उत्तर -
शिक्षण तकनीकी के निम्न प्रकार हैं-
1. अनुदेशनात्मक तकनीकी -
इस तकनीकी में, विशेषकर मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता है। विभिन्न उद्देश्यों की दिशा में इन सिद्धान्तों का प्रयोग अनुदेशनात्मक तकनीकी के उद्देश्य के अन्तर्गत आता है। शिक्षण तकनीकी में छात्र एवं अध्यापक के मध्य अन्तःक्रिया आवश्यक है परन्तु अनुदेशनात्मक तकनीकी में यह आवश्यक नहीं है। अभिक्रमित अनुदेशन इस प्रकार की तकनीकी का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। अनुदेशन के सिद्धान्त अधिगम के नियम, अनुबद्ध अनुक्रिया व पुनर्बलन के आधार पर अभिक्रमित अनुदेशन, कम्प्यूटर के द्वारा अनुदेशन, नियम व उदाहरण प्रणाली के माध्यम से यह तकनीकी शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने में सहायक सिद्ध होती है ।
2. शिक्षण तकनीकी -
यह तकनीकी विशेषकर शिक्षण में ही सहायक है और शिक्षण को प्रभावी बनाने वाले सिद्धान्तों पर ही आधारित है। इन सिद्धान्तों का प्रयोग करके विभिन्न उद्देश्यों की दिशा में प्रभावशाली शिक्षण को सम्भव बनाना ही शिक्षण तकनीकी का प्रमुख उद्देश्य है। इस तकनीकी की पाठ्यवस्तु के अन्तर्गत पाठ्यवस्तु विश्लेषण, उद्देश्य निर्धारण, उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखना, शिक्षण व्यूह-रचनाओं का निर्धारण, अभिप्रेरणा विधियों का चयन, अन्तःक्रिया विश्लेषण एवं मूल्यांकन का अत्यन्त महत्त्व है ।
3. व्यावहारिक तकनीकी -
यह तकनीकी मूलतः शिक्षक के व्यवहार से सम्बन्ध रखती है। वर्तमान समय में यद्यपि मनोविज्ञान के विभिन्न सिद्धान्तों के आधार पर सुरक्षा, वाणिज्य, उद्योग, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में व्यावहारिक तकनीकी का प्रयोग व्यापक स्तर पर किया जाता है, परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में यह मात्र शिक्षक के व्यवहार परिवर्तन तक ही सीमित है। शिक्षक व्यवहार का अध्ययन व परिवर्तन इस तकनीकी का प्रमुख उद्देश्य है।
शिक्षण तकनीकी के निम्न प्रकार हैं-
1. अनुदेशनात्मक तकनीकी -
इस तकनीकी में, विशेषकर मनोविज्ञान के सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता है। विभिन्न उद्देश्यों की दिशा में इन सिद्धान्तों का प्रयोग अनुदेशनात्मक तकनीकी के उद्देश्य के अन्तर्गत आता है। शिक्षण तकनीकी में छात्र एवं अध्यापक के मध्य अन्तःक्रिया आवश्यक है परन्तु अनुदेशनात्मक तकनीकी में यह आवश्यक नहीं है। अभिक्रमित अनुदेशन इस प्रकार की तकनीकी का सर्वोत्कृष्ट उदाहरण है। अनुदेशन के सिद्धान्त अधिगम के नियम, अनुबद्ध अनुक्रिया व पुनर्बलन के आधार पर अभिक्रमित अनुदेशन, कम्प्यूटर के द्वारा अनुदेशन, नियम व उदाहरण प्रणाली के माध्यम से यह तकनीकी शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाने में सहायक सिद्ध होती है ।
2. शिक्षण तकनीकी -
यह तकनीकी विशेषकर शिक्षण में ही सहायक है और शिक्षण को प्रभावी बनाने वाले सिद्धान्तों पर ही आधारित है। इन सिद्धान्तों का प्रयोग करके विभिन्न उद्देश्यों की दिशा में प्रभावशाली शिक्षण को सम्भव बनाना ही शिक्षण तकनीकी का प्रमुख उद्देश्य है। इस तकनीकी की पाठ्यवस्तु के अन्तर्गत पाठ्यवस्तु विश्लेषण, उद्देश्य निर्धारण, उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखना, शिक्षण व्यूह-रचनाओं का निर्धारण, अभिप्रेरणा विधियों का चयन, अन्तःक्रिया विश्लेषण एवं मूल्यांकन का अत्यन्त महत्त्व है ।
3. व्यावहारिक तकनीकी -
यह तकनीकी मूलतः शिक्षक के व्यवहार से सम्बन्ध रखती है। वर्तमान समय में यद्यपि मनोविज्ञान के विभिन्न सिद्धान्तों के आधार पर सुरक्षा, वाणिज्य, उद्योग, स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों में व्यावहारिक तकनीकी का प्रयोग व्यापक स्तर पर किया जाता है, परन्तु शिक्षा के क्षेत्र में यह मात्र शिक्षक के व्यवहार परिवर्तन तक ही सीमित है। शिक्षक व्यवहार का अध्ययन व परिवर्तन इस तकनीकी का प्रमुख उद्देश्य है।
(07) प्रश्न 2 (vii) शिक्षण, अनुदेशन तथा अधिगम के बीच अन्तर स्पष्ट कीजिए ?
(07) प्रश्न 2 (vii) शिक्षण, अनुदेशन तथा अधिगम के बीच अन्तर स्पष्ट कीजिए |
अथवा
शिक्षण, अधिगम तथा अनुदेशन में अन्तर स्पष्ट कीजिए।
उत्तर-
शिक्षण, अनुदेशन और अधिगम में अन्तर
शिक्षण के सही अर्थ को समझने के लिये .-
(i) शिक्षण, (ii) अनुदेशन तथा, ( III ) अधिगम अथवा सीखने में अन्तर समझना परम आवश्यक है। अतः निम्नलिखित पंक्तियों में हम इन तीनों के अन्तर को स्पष्ट कर रहे हैं-
(i) शिक्षण शिक्षण के अन्तर्गत शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच पारस्परिक अन्तःप्रक्रिया होती है जिसके परिणाम-स्वरूप विद्यार्थी उद्देश्य की ओर प्रभावित होते हैं। दूसरे शब्दों में शिक्षण का प्रमुख तत्त्व शिक्षण तथा विद्यार्थियों का पारस्परिक सम्बन्ध अथवा अन्तःप्रक्रिया है जो विद्यार्थियों को उद्देश्यों की ओर प्रभावित करती है ।
(ii) अनुदेशन - अनुदेशन के अन्तर्गत शिक्षक और विद्यार्थी के बीच पारस्परिक अन्तःप्रक्रिया नहीं होती है। फिर भी इसके द्वारा विद्यार्थी उद्देश्य की ओर प्रभावित हो सकते हैं। शिक्षण और अनुदेशन का मुख्य अन्तर यह है कि शिक्षण में तो अनुदेशन निहित होता है परन्तु अनुदेशन में शिक्षण नहीं है । इसके अतिरिक्त शिक्षण द्वारा विद्यार्थियों के ज्ञानात्मक, भावात्मक तथा क्रियात्मक तीनों पक्षों का विकास किया जा सकता है जबकि अनुदेशन द्वारा केवल ज्ञानात्मक पक्ष को ही विकसित किया जा सकता है अत: कोई भी अनुदेशन शिक्षण का स्थान नहीं ले सकता । संक्षेप में अनुदेशन वह प्रक्रिया है जो विद्यार्थियों को केवल ज्ञानात्मक पक्ष के उद्देश्यों की ओर प्रभावित करती है।
(iii) अधिगम अथवा सीखना सीखने का तात्पर्य है - (i) क्रियायें तथा (ii) अनुभव। शिक्षण और अनुदेशन दोनों ही सीखने को नाना प्रकार की क्रियाओं तथा अनुभवों के द्वारा प्रभावित करते हैं। अतः अधिगम अथवा सीखने का अर्थ विद्यार्थियों के व्यवहार में क्रियाओं तथा अनुभवों द्वारा परिवर्तित करना है।
(08) प्रश्न 2 (viii) भाषा - प्रयोगशाला की उपयोगिता बताइए ?
(08) प्रश्न 2 (viii) भाषा - प्रयोगशाला की उपयोगिता बताइए |
उत्तर-
यदि भाषा-प्रयोगशाला तथा सामान्य कक्षा में समुचित समन्वय रहे तो भाषा - प्रयोगशाला की उपयोगिता को नकारा नहीं जा सकता। यहाँ इस बात का ध्यान रखना आवश्यक है कि भाषा- प्रयोगशाला अध्यापक का प्रतिस्थापन नहीं हो सकती, यह उसके अध्यापन - कौशल में मात्र सहायक तथा पूरक का काम ही कर सकती है। एक सामान्य कक्षा की अपेक्षा भाषा - प्रयोगशाला में शिक्षार्थी अधिक सक्रियता तथा रुचि के साथ भाग लेता है, जिससे कि भाषा - प्रयोगशाला के पाठ अधिक प्रभावकारी सिद्ध होते हैं, क्योंकि अधिक स्वाभाविक वातावरण में टेपित भाषा - पाठ शिक्षार्थी के कान में बिना बाहरी शोरगुल के सीधे सुनायी पड़ते हैं। विद्यार्थी अपनी आवाज को ईयरफोन के माध्यम से बिना बाहरी ध्वनि- सुन सकता है।
भाषा - प्रयोगशाला की उपयोगिता निम्नलिखित रूप में देखी जा सकती है-
(1) भाषा - प्रयोगशाला के पाठ अपने में पूर्ण तथा स्व- आश्रित होते हैं ।
( 2 ) शिक्षक की भूमिका परोक्ष हो जाती है। अतः शिक्षार्थी पर शिक्षक के भय, उसकी उदासीनता आदि का कोई मनोवैज्ञानिक कुप्रभाव नहीं पड़ पाता।
(3) शिक्षण की प्रक्रिया मुख्यतः अभ्यासोन्मुख रहती है, जिसमें शिक्षार्थी को भाषा-व्यवहार के अभ्यास के लिए अधिक इच्छानुसार अवसर मिलता है।
(4) भाषार्जन, भाषा - अभ्यास के लिए उपयुक्त वातावरण निर्माण की अधिक सम्भावना है।
(5) भाषा - प्रयोगशाला में लक्ष्य भाषा के जिन विभिन्न पक्षों/भाषा कौशलों का अध्ययन-अध्यापन / अभ्यास अधिक सरलता, सहजता के साथ किया जा बोध सकता है, वे ये हैं- ध्वनि-भेद बोध, उच्चारण अनुकरण अभ्यास, पदबन्ध - उपवाक्य - वाक्य-श्रवण, तथा उच्चारण अनुकरण अभ्यास, मुक्त भाषण - श्रवण, बोध तथा अनुकरण, श्रुतलेख - सामग्री श्रवण, विविध प्रकार की सामग्री (वर्ण, शब्द, पदबन्ध, उपवाक्य, वाक्य अनुच्छेद, वार्तालाप आदि) का वाचन, शब्द, अर्थ तथा अन्य सामग्री का बोध आदि ।
(6) अन्य छात्रों के अध्ययन में बिना बाधा डालते हुए धीमी गतिवाले शिक्षार्थी द्वारा स्व-गति से अभ्यास करना सम्भव ।
( 7 ) शिक्षार्थी की बिना जानकारी में (या व उसे बिना बताये हुए) उसके कुछ कार्य / अभ्यास आदि की जाँच सम्भव है, जिससे कि शिक्षार्थी के मस्तिष्क व पर समीक्षा के भूत का मनोवैज्ञानिक कुप्रभाव नहीं पड़ता ।
(8) सामान्य कक्षा में प्रयुक्त साँचा - अभ्यास की उनके य हुए, यान्त्रिक प्रक्रिया से शिक्षक मुक्ति पा जाता है ।
( 9 ) अन्य शिक्षार्थियों का समय नष्ट न करते अध्ययन में कोई बाधा पहुँचाये बिना प्रत्येक अध्येता पर व्यक्तिगत ध्यान देने की सुविधा होने के कारण न शिक्षक/मॉनीटर, अध्येता/शिक्षार्थी की अशुद्धियों को वहीं का वहीं सुधार सकता है।
(10) कक्षा को कई ज समूहों / स्तरों (दो, तीन, चार) में बिना अध्यापक - मॉनीटर की संख्या बढ़ाये बाँटना तथा अध्ययन- अध्यापन कार्य चालू रखना सम्भव है।
भाषा - प्रयोगशाला की उपयोगिता निम्नलिखित रूप में देखी जा सकती है-
(1) भाषा - प्रयोगशाला के पाठ अपने में पूर्ण तथा स्व- आश्रित होते हैं ।
( 2 ) शिक्षक की भूमिका परोक्ष हो जाती है। अतः शिक्षार्थी पर शिक्षक के भय, उसकी उदासीनता आदि का कोई मनोवैज्ञानिक कुप्रभाव नहीं पड़ पाता।
(3) शिक्षण की प्रक्रिया मुख्यतः अभ्यासोन्मुख रहती है, जिसमें शिक्षार्थी को भाषा-व्यवहार के अभ्यास के लिए अधिक इच्छानुसार अवसर मिलता है।
(4) भाषार्जन, भाषा - अभ्यास के लिए उपयुक्त वातावरण निर्माण की अधिक सम्भावना है।
(5) भाषा - प्रयोगशाला में लक्ष्य भाषा के जिन विभिन्न पक्षों/भाषा कौशलों का अध्ययन-अध्यापन / अभ्यास अधिक सरलता, सहजता के साथ किया जा बोध सकता है, वे ये हैं- ध्वनि-भेद बोध, उच्चारण अनुकरण अभ्यास, पदबन्ध - उपवाक्य - वाक्य-श्रवण, तथा उच्चारण अनुकरण अभ्यास, मुक्त भाषण - श्रवण, बोध तथा अनुकरण, श्रुतलेख - सामग्री श्रवण, विविध प्रकार की सामग्री (वर्ण, शब्द, पदबन्ध, उपवाक्य, वाक्य अनुच्छेद, वार्तालाप आदि) का वाचन, शब्द, अर्थ तथा अन्य सामग्री का बोध आदि ।
(6) अन्य छात्रों के अध्ययन में बिना बाधा डालते हुए धीमी गतिवाले शिक्षार्थी द्वारा स्व-गति से अभ्यास करना सम्भव ।
( 7 ) शिक्षार्थी की बिना जानकारी में (या व उसे बिना बताये हुए) उसके कुछ कार्य / अभ्यास आदि की जाँच सम्भव है, जिससे कि शिक्षार्थी के मस्तिष्क व पर समीक्षा के भूत का मनोवैज्ञानिक कुप्रभाव नहीं पड़ता ।
(8) सामान्य कक्षा में प्रयुक्त साँचा - अभ्यास की उनके य हुए, यान्त्रिक प्रक्रिया से शिक्षक मुक्ति पा जाता है ।
( 9 ) अन्य शिक्षार्थियों का समय नष्ट न करते अध्ययन में कोई बाधा पहुँचाये बिना प्रत्येक अध्येता पर व्यक्तिगत ध्यान देने की सुविधा होने के कारण न शिक्षक/मॉनीटर, अध्येता/शिक्षार्थी की अशुद्धियों को वहीं का वहीं सुधार सकता है।
(10) कक्षा को कई ज समूहों / स्तरों (दो, तीन, चार) में बिना अध्यापक - मॉनीटर की संख्या बढ़ाये बाँटना तथा अध्ययन- अध्यापन कार्य चालू रखना सम्भव है।
(09) प्रश्न 2(ix) भाषा - प्रयोगशाला के प्रकारों का वर्णन कीजिए। *** ?
(09) प्रश्न 2(ix) भाषा - प्रयोगशाला के प्रकारों का वर्णन कीजिए। |
उत्तर -
भाषा - प्रयोगशाला के प्रकार विविध आधारों के अनुसार विविध रूपों में देखे जा सकते हैं। टेपित सामग्री को शिक्षार्थी के कानों तक पहुँचाने की तकनीक के आधार पर भाषा प्रयोगशालाओं के दो प्रकार हैं -
( 1 ) तारयुक्त भाषा - प्रयोगशाला,
( 2 ) ताररहित भाषा - प्रयोगशाला ।
भाषा प्रयोगशाला में उपलब्ध विभिन्न उपकरणों के आधार पर भाषा प्रयोगशाला को दो वर्गों बाँटा जा सकता है-
(1) श्रव्य भाषा - प्रयोगशाला,
(2) दृश्य भाषा प्रयोगशाला ।
श्रवण तथा उच्चारण की निष्क्रियता तथा सक्रियता के आधार पर भाषा - प्रयोगशालाओं को दो वर्गों में बाँटा जाता है -
( 1 ) केन्द्र - संचालित भाषा - प्रयोगशाला,
(2) व्यक्ति - संचालित भाषा - प्रयोगशाला,
(3) उभय- संचालित भाषा - प्रयोगशाला ।
( 1 ) तारयुक्त भाषा - प्रयोगशाला,
( 2 ) ताररहित भाषा - प्रयोगशाला ।
भाषा प्रयोगशाला में उपलब्ध विभिन्न उपकरणों के आधार पर भाषा प्रयोगशाला को दो वर्गों बाँटा जा सकता है-
(1) श्रव्य भाषा - प्रयोगशाला,
(2) दृश्य भाषा प्रयोगशाला ।
श्रवण तथा उच्चारण की निष्क्रियता तथा सक्रियता के आधार पर भाषा - प्रयोगशालाओं को दो वर्गों में बाँटा जाता है -
( 1 ) केन्द्र - संचालित भाषा - प्रयोगशाला,
(2) व्यक्ति - संचालित भाषा - प्रयोगशाला,
(3) उभय- संचालित भाषा - प्रयोगशाला ।
(10) प्रश्न 2 (x) शैक्षिक तकनीकी की प्रमुख विशेषताओं की व्याख्या कीजिए ?
(10) प्रश्न 2(x) शैक्षिक तकनीकी की प्रमुख विशेषताओं की व्याख्या कीजिए |
उत्तर-
शैक्षिक तकनीकी की विशेषताएँ -
(1) शैक्षिक तकनीकी का उद्देश्य शिक्षण अधिगम प्रक्रिया का विकास करना है ।
(2) यह शिक्षा विज्ञान तथा शिक्षण कला की देन है ।
(3) इसे शैक्षिक साधनों (रेडियो, दूरदर्शन, टेपरिकॉर्डर) के साथ नहीं मिलाया जा सकता, यह तो एक अभिगमन है
(4) यह शिक्षा पर विज्ञान तथा तकनीकी के प्रभाव का अध्ययन करती है।
(5) इसका आधार क्रमबद्ध एवं सुसंगठित ज्ञान अर्थात् विज्ञान है।
(6) यह शिक्षाशास्त्र का ही एक अंग है।
(7) यह मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, इंजीनियरिंग तथा भौतिक विज्ञानों से मदद लेता है।
(2) यह शिक्षा विज्ञान तथा शिक्षण कला की देन है ।
(3) इसे शैक्षिक साधनों (रेडियो, दूरदर्शन, टेपरिकॉर्डर) के साथ नहीं मिलाया जा सकता, यह तो एक अभिगमन है
(4) यह शिक्षा पर विज्ञान तथा तकनीकी के प्रभाव का अध्ययन करती है।
(5) इसका आधार क्रमबद्ध एवं सुसंगठित ज्ञान अर्थात् विज्ञान है।
(6) यह शिक्षाशास्त्र का ही एक अंग है।
(7) यह मनोविज्ञान, समाजशास्त्र, इंजीनियरिंग तथा भौतिक विज्ञानों से मदद लेता है।
(8) इसमें विज्ञान के व्यावहारिक पक्ष पर बल दिया जाता है। v
(11) प्रश्न 2(xi) शैक्षिक तकनीकी के प्रमुख कार्य बताइए ?
(11) प्रश्न 2(xi) शैक्षिक तकनीकी के प्रमुख कार्य बताइए |
उत्तर -
शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक तकनीकी महत्त्वपूर्ण कार्यों का सम्पादन करती है। इन कार्यों का विवेचन निम्न प्रकार किया जा सकता है—
(1) शिक्षण को प्रभावयुक्त बनाना -
शैक्षिक तकनीकी द्वारा शिक्षण के सिद्धान्तों, प्रविधियों तथा युक्तियों को नये ढंग से निर्धारित किया गया है जिससे शिक्षण अधिक प्रभावी हो गया है।
(2) शिक्षण की प्रक्रिया को उद्देश्यपूर्ण बनाना —
शिक्षण तकनीकी आधार पर शिक्षण एवं अधिगम के क्षेत्रों में मनोवैज्ञानिक साधनों का प्रयोग किया जाने लगा है जिसके कारण शिक्षण लक्ष्यों की सफलतापूर्वक प्राप्ति की जा सकती है।
(3) प्रभावशाली अध्यापकों का निर्माण -
शैक्षिक तकनीकी का एक अंग व्यवहार का विश्लेषण तथा मूल्यांकन किया जाता है तथा शिक्षक के व्यवहार के विकास की प्रविधियों माइक्रो शिक्षण, सीमुलेटेड शिक्षण आदि का प्रयोग किया जाता है।
(12) प्रश्न 2 (xii) शैक्षिक तकनीकी के प्रमुख उद्देश्य बताइए ?
(12) प्रश्न 2 (xii) शैक्षिक तकनीकी के प्रमुख उद्देश्य बताइए |
उत्तर-
(1) शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण -
शैक्षिक तकनीकी का प्रथम उद्देश्य शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण करना है। ये उद्देश्य राष्ट्र की आवश्यकता और भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं। शिक्षण तथा परीक्षण की सुविधा के लिए उन उद्देश्यों को लिपिबद्ध कर लिया जाता है ।
(2) छात्र - गुण विश्लेषण- शैक्षिक तकनीकी का दूसरा उद्देश्य छात्रों के गुणों, उनकी योग्यताओं, क्षमताओं तथा उपलब्धियों का विश्लेषण करना है। जब तक छात्रों की स्थिति का अध्ययन नहीं किया जायगा तब तक शिक्षण व्यवस्था का निर्धारण नहीं किया जा सकता है और यह भी नहीं जाना ई जा सकता है कि उद्देश्यों की प्रगति किस हद तक हो सकी है।
(3) विषय-वस्तु व्यवस्था —
उद्देश्यों के निर्धारण तथा छात्रों की स्थिति की जानकारी के बाद शैक्षिक तकनीकी का उद्देश्य विषय-वस्तु की व्यवस्था करना होता है । प्रस्तुतीकरण की सुगमता के लिए परीक्षा की रचना के लिए पाठ्य वस्तु या विषय-वस्तु की व्यवस्था आवश्यक होती है।
(4) विषय-वस्तु का प्रस्तुतीकरण -
विषय-वस्तु की व्यवस्था की जाने के बाद शिक्षण तकनीकी का उद्देश्य उस विषय-वस्तु को उचित ढंग से प्रस्तुत करना होता है। इस प्रस्तुतीकरण के लिए त्र्य अनेक विधियों-प्रविधियों का आश्रय लिया जाता है जिससे निश्चित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके।
प्रश्न 2(xiii) कठोर उपागम की विशेषताये बताईए ?
उत्तर - कठोर उपागम की विशेषताये- शैक्षिक तकनीकी का पहला प्रकार कठोर उपागम या दृश्य-श्रव्य सामग्री है। इसका आविर्भाव भौतिक विज्ञान तथा अभियन्त्रण तकनीकी से हुआ है। शिक्षण में इंजीनियरिंग की मशीनों के प्रयोग को ही कठोर उपागम कहा जाता है। इसमें मशीनों का प्रयोग शिक्षण व सीखने को ही कठोर उपागम कहा जाता है जिसमें शिक्षण के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। शिक्षण मशीन इसका सबसे प्रमुख अंग है। इसके अतिरिक्त टेपरिकॉर्डर, ग्रामोफोन, चलचित्र, टेलीविजन, कम्प्यूटर तथा विद्युत् संचालित अन्य उपकरण एवं भाषा प्रयोगशाला का आविष्कार तथा निर्माण शिक्षण के लिए किया जाता है। इस प्रकार शिक्षण की प्रक्रिया में मशीनों के प्रयोग से शिक्षा की प्रक्रिया का यन्त्रीकरण हुआ है। इसे ही कठोर उपागम या हार्डवेयर अप्रोच कहा जाता है। शिक्षा को रोचक तथा सरलता के साथ बोधगम्य बनाने के लिए इस उपागम के महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की है ।
प्रश्न 2 (xiv) कोमल उपागम की विशेषताएँ बताइए ।
उत्तर - कोमल उपागम की विशेषताएँ –
इस उपागम में शिक्षण प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का उपयोग किया जाता है। इन मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग बालक में अपेक्षित परिवर्तन लाने के लिए किया जाता है। आर्थर मेल्टन ने कहा है कि शैक्षिक तकनीकी अधिगम के मनोविज्ञान पर आधारित है और यह अनुभव प्रदान करके वांछित व्यवहार परिवर्तन की प्रक्रिया को आरम्भ करती है। इस तकनीकी का सम्बन्ध शिक्षण के सिद्धान्तों, उद्देश्यों के व्यावहारिक रूप, शिक्षण प्रविधियों तथा मूल्यांकन आदि से होता है। इस प्रकार इस तकनीकी में निवेश (Input) प्रक्रिया (Process) तथा निर्गत (Output) तीनों पक्षों के विकास पर बल दिया जाता है ।
प्रश्न 2(xv) अनुदेशनात्मक तकनीकी का स्वरूप बताइए ।
उत्तर - अनुदेशात्मक तकनीकी में मुख्य रूप से दो बातों पर बल दिया जाता है-
(1) कक्षागत अन्तःक्रिया विश्लेषण एवं (2) अभिक्रमित अधिगम ।
कक्षागत अन्तःक्रिया विश्लेषण में कक्षा में छात्र तथा अध्यापक के पारस्परिक व्यवहार का विश्लेषण किया जाता है, इसमें शिक्षक व्यवहार, छात्र व्यवहार, शिक्षक तथा छात्र व्यवहार इन तीनों दृष्टियों से कक्षागत अन्तः क्रिया का विश्लेषण किया जाता है। वी०एफ० स्किनर व उसके साथियों द्वारा प्रतिपादित अभिक्रमित अधिगम द्वारा छात्रों के व्यवहार में संशोधन किया जाता है। यह अधिगम इस बात पर बल देता है कि शिक्षक समुदाय शैक्षिक उद्देश्यों पर पुनः विचार कर शिक्षण में सुधार करे।
अनुदेशात्मक तकनीकी में प्रयुक्त किये जाने वाले उपर्युक्त दो तरीकों के अलावा अन्य तरीकों को भी अपनाया जाता है, जो निम्नलिखित है-
(अ) श्रृंखला अभिक्रमित अनुदेशन,
(ब) शाखायी अभिक्रमित अनुदेशन,
(स) मैथमेटिकल अभिक्रमित अनुदेशन,
(द) कम्प्यूटर द्वारा अनुदेशन आदि ।
प्रश्न 2(xvi) अनुदेशात्मक तकनीकी की विशेषताएँ बताइए ।
उत्तर-
(1) इस तकनीकी द्वारा व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर नियन्त्रण पाया जा सकता है।
(2) इसमें छात्रों को सही अनुक्रिया करने पर पुनर्बलित किया जाता है। इस प्रकार इसमें सीखने के अनुबद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त का अनुसरण किया जाता है।
(3) यह तकनीकी प्रभावी शिक्षकों की कमी को भी पूरा कर सकती है।
(4) इस तकनीकी के द्वारा ज्ञानात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती हैं।
(5) यह मनोवैज्ञानिक तथा सीखने के सिद्धान्तों पर आधारित है।
(6) इस तकनीकी में पाठ्यवस्तु का गहरायी से विश्लेषण किया जाता है, एवं जिससे पाठ्यवस्तु का प्रस्तुतीकरण प्रभावशाली हो जाता है।
प्रश्न 2 (xvii) शैक्षिक तकनीकी से आप क्या समझते हैं? इसकी प्रमुख विशेषताओं एवं शिक्षण में इसकी प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
शिक्षण तकनीकी की अवधारणाएँ
शिक्षण तकनीकी निम्नलिखित अवधारणाओं पर आधारित है—
1. शिक्षण प्रक्रिया की प्रकृति वैज्ञानिक है।
2. शिक्षण क्रियाओं में आवश्यक सुधार किये जा सकते हैं।
3. शिक्षण और अधिगम में पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं।
4. प्रभावशाली अधिगम के लिये शिक्षण द्वारा उचित परिस्थितियाँ उत्पन्न की जा सकती हैं।
5. शिक्षण क्रियाओं द्वारा पूर्व निर्धारित उद्देश्य प्राप्त किये जा सकते हैं।
6. पृष्ठपोषण विधि द्वारा शिक्षण कौशलों का विकास किया जा सकता है।
शिक्षण तकनीकी की विशेषताएँ -
शिक्षण तकनीकी की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. शिक्षण तकनीकी से शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
2. शिक्षण तकनीकों से दोनों पक्षों ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक तीनों पक्षों के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है।
3. शिक्षण तकनीकी की सहायता से शिक्षण प्रक्रिया स्मृति स्तर से लेकर चिन्तन तक संगठित की जा सकती है।
4. इस तकनीकी में समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र तथा मनोविज्ञान की सहायता ली जाती है।
5. शिक्षण तकनीकी में लागत प्रक्रिया तथा उत्पादन संलिप्त होते हैं।
6. शिक्षण तकनीकी के माध्यम से छात्राध्यापक तथा सेवारत शिक्षक दोनों ही अपने शिक्षण को प्रभावशाली बना सकते हैं ।
7. शिक्षण तकनीकी की सहायता से शिक्षण प्रक्रिया के चार सोपानों नियोजन, संगठन, मार्गदर्शन एवं नियंत्रण में तारतम्यता स्थापित की जाती है ।
शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक तकनीकी की भूमिका / महत्व
शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक तकनीकी की भूमिका / महत्व निम्नलिखित हैं--
1. शिक्षण तकनीकी के आधार पर शिक्षण के नवीन सिद्धान्तों, प्रतिमानों, युक्तियों, प्रविधियों आदि के निर्धारण के द्वारा शिक्षण को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
2. शिक्षण तकनीकों के आधार पर शिक्षण एवं अधिगम के क्षेत्रों में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के प्रयोग के द्वारा शिक्षण प्रक्रिया को अधिक सोद्देश्यपूर्ण बनाया जा सकता है।
3. शैक्षिक तकनीकों के माध्यम से वैयक्तिक भिन्नता के आधार पर शिक्षा प्रदान की जा सकती है
4. शैक्षिक तकनीकी न केवल छात्रों के अपितु प्रभावशाली अध्यापकों के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
5. शैक्षिक तकनीकी ज्ञान के सम्प्रेषण अथवा संचय के साथ-साथ ज्ञान के खोज तथा विकास में भी- सहायक होती है।
6. शैक्षिक तकनीकी के माध्यम से सर्वसुलभ एवं कम व्ययपूर्ण शिक्षा प्राप्त की जा सकती है।
7. व्यक्तिगत परीक्षार्थियों के समक्ष आने वाली समस्याओं का समाधान शैक्षिक तकनीकी की अपेक्षाकृत सहज होने से यह व्यक्तिगत परीक्षार्थियों हेतु सहायक होती है।
प्रश्न 3 (i) सूक्ष्म शिक्षण प्रविधि के घटक बताइए।
उत्तर - सूक्ष्म शिक्षण प्रविधि में निम्नलिखित घटकों का भाग लेना अनिवार्य होता है। किसी भी घटक की अनुपस्थिति में इस प्रविधि की सफलता सन्दिग्ध हो जाती है।
1. सूक्ष्म शिक्षण परिस्थिति-
इस घटक में कक्षा का आकार, पाठ्य वस्तु की लम्बाई तथा शिक्षण-अवधि आदि शामिल हैं। कक्षा में 5 से 10 तक विद्यार्थी होते हैं तथा शिक्षण अवधि 5 से 20 मिनट तक की होती है। पाठ्य-वस्तु को एक इकाई में प्रस्तुत किया जाता है।
2. शिक्षण - कौशल -
प्रशिक्षण कार्यक्रम में छात्र - अध्यापक के शिक्षण-कौशलों के विकास की ओर उचित ध्यान दिया जाता है, जैसे- व्याख्या कौशल, श्यामपट्ट कौशल, प्रश्न पूछने का कौशल इत्यादि ।
3. छात्र - अध्यापक-
अध्यापक का प्रशिक्षण प्राप्त करनेवाले विद्यार्थी को छात्र - अध्यापक कहा जाता है। प्रशिक्षण के दौरान इनमें विभिन्न क्षमताओं का विकास किया जाता है। जैसे- कक्षा - प्रबन्ध की क्षमता, अनुशासन स्थापित करने की क्षमता, स्कूल के विभिन्न कार्यक्रमों का संचालन करने की क्षमता इत्यादि ।
4. प्रतिपुष्टि के साधन -
छात्र - अध्यापकों के व्यवहारों में परिवर्तन लाने के लिए उन्हें प्रतिपुष्टि प्रदान करनी अति आवश्यक होती है। यह प्रतिपुष्टि वीडियो-टेप, श्रव्य-टेप तथा प्रतिपुष्टि प्रश्नावली द्वारा की जा सकती है। 5. सूक्ष्म शिक्षण प्रयोगशाला -
सूक्ष्म शिक्षण के लिए प्रयोगशाला का होना भी अति आवश्यक है। इनमें प्रतिपुष्टि की आवश्यक सुविधाएँ संचित की जा सकती हैं।
प्रश्न 3 (ii) टेलीकान्फ्रेन्सिंग से आप क्या समझते हैं?
अथवा
टेलीकान्फ्रेन्सिंग
उत्तर-
टेलीकान्फ्रेन्सिंग का अर्थ- टेलीकान्फ्रेन्सिंग एक ऐसी इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली है जिसमें दो या दो से अधिक दूर बैठे व्यक्ति अपनी इच्छित विषय-वस्तु से सम्बन्धित चर्चा, परिचर्चा में भाग ले सकते हैं। अपनी बात कह सकते हैं, दूसरों की बात सुन सकते हैं, उन पर तुरन्त प्रतिक्रियाएँ, सुझाव या अभिमत प्राप्त कर सकते हैं और आवश्यक सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकते हैं। टेलीकान्फ्रेन्सिंग में कई माध्यम भाग लेते हैं और इसमें द्विमार्गीय प्रसारण द्वारा अन्तःक्रिया सामूहिक संचार की व्यवस्था होती है। यह दूरवर्ती शिक्षा के लिए एक सशक्त माध्यम है। इस माध्यम का शैक्षिक संस्थाओं में अधिक विकास हो रहा है क्योंकि सुगमता एवं कम लागत की पूँजी के द्वारा यह दूरवर्ती शिक्षा संस्थाओं एवं शिक्षार्थियों के द्वारा आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बन गया है।
प्रश्न 3 (iii) प्रणाली उपागम (विश्लेषण) की उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
उत्तर-
प्रणाली विश्लेषण की उपयोगिता -
(1) इससे विद्यालय के कार्मिक एवं प्रबन्धकीय अधिकारियों का अधिक-से-अधिक सहयोग व अपेक्षित उपयोग किया जा सकता है, क्योंकि इसके माध्यम से उनके क्रियाकलापों को नियन्त्रित, संयोजित तथा मूल्यांकित किया जा सकता है।
(2) इसके माध्यम से शैक्षिक प्रशासन, शैक्षिक व्यवस्था तथा शैक्षिक अनुदेशन को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है ।
(3) प्रणाली विश्लेषण का प्रयोग नवीन शैक्षिक प्रशासन, अध्यापक शिक्षा, परीक्षा-प्रणाली, निर्देशन - प्रणाली, अनुदेशन प्रणाली तथा शैक्षिक व्यवस्था - आदि के प्रारूपों के निर्माण में किया जा सकता है ।
(4) यह विद्यालय कार्यक्रमों की प्रभावशाली योजना बनाने में सहायक होती है ।
(5) इसके द्वारा उपलब्धियों का मूल्यांकन प्रभावशाली रूप से किया जा सकता है।
(6) इसके द्वारा शिक्षा की गुणात्मकता में वृद्धि की जा सकती है।
(7) यह प्रशिक्षण एवं विकासात्मक कार्यक्रमों के सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण साधन है ।
( 8 ) विश्लेषण प्रणाली अधिगम व्यवहार को नियन्त्रित करने का वैध उपकरण है।
प्रश्न 3 (iv) शैक्षिक तकनीकी के प्रमुख प्रकारों की विवेचना कीजिए।
उत्तर-
शैक्षिक तकनीकी का प्रथम उद्देश्य शैक्षिक उद्देश्यों का निर्धारण करना है। ये उद्देश्य राष्ट्र की आवश्यकता और भौगोलिक परिस्थितियों को ध्यान में रखकर बनाये जाते हैं। शिक्षण तथा परीक्षण की सुविधा के लिए उन उद्देश्यों को लिपिबद्ध कर लिया जाता है ।
(2) छात्र - गुण विश्लेषण- शैक्षिक तकनीकी का दूसरा उद्देश्य छात्रों के गुणों, उनकी योग्यताओं, क्षमताओं तथा उपलब्धियों का विश्लेषण करना है। जब तक छात्रों की स्थिति का अध्ययन नहीं किया जायगा तब तक शिक्षण व्यवस्था का निर्धारण नहीं किया जा सकता है और यह भी नहीं जाना ई जा सकता है कि उद्देश्यों की प्रगति किस हद तक हो सकी है।
(3) विषय-वस्तु व्यवस्था —
उद्देश्यों के निर्धारण तथा छात्रों की स्थिति की जानकारी के बाद शैक्षिक तकनीकी का उद्देश्य विषय-वस्तु की व्यवस्था करना होता है । प्रस्तुतीकरण की सुगमता के लिए परीक्षा की रचना के लिए पाठ्य वस्तु या विषय-वस्तु की व्यवस्था आवश्यक होती है।
(4) विषय-वस्तु का प्रस्तुतीकरण -
विषय-वस्तु की व्यवस्था की जाने के बाद शिक्षण तकनीकी का उद्देश्य उस विषय-वस्तु को उचित ढंग से प्रस्तुत करना होता है। इस प्रस्तुतीकरण के लिए त्र्य अनेक विधियों-प्रविधियों का आश्रय लिया जाता है जिससे निश्चित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके।
(13) प्रश्न 2 (xiii) कठोर उपागम की विशेषताये बताईए ?
(13) प्रश्न 2 (xii) कठोर उपागम की विशेषताये बताईए ? |
उत्तर - कठोर उपागम की विशेषताये- शैक्षिक तकनीकी का पहला प्रकार कठोर उपागम या दृश्य-श्रव्य सामग्री है। इसका आविर्भाव भौतिक विज्ञान तथा अभियन्त्रण तकनीकी से हुआ है। शिक्षण में इंजीनियरिंग की मशीनों के प्रयोग को ही कठोर उपागम कहा जाता है। इसमें मशीनों का प्रयोग शिक्षण व सीखने को ही कठोर उपागम कहा जाता है जिसमें शिक्षण के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। शिक्षण मशीन इसका सबसे प्रमुख अंग है। इसके अतिरिक्त टेपरिकॉर्डर, ग्रामोफोन, चलचित्र, टेलीविजन, कम्प्यूटर तथा विद्युत् संचालित अन्य उपकरण एवं भाषा प्रयोगशाला का आविष्कार तथा निर्माण शिक्षण के लिए किया जाता है। इस प्रकार शिक्षण की प्रक्रिया में मशीनों के प्रयोग से शिक्षा की प्रक्रिया का यन्त्रीकरण हुआ है। इसे ही कठोर उपागम या हार्डवेयर अप्रोच कहा जाता है। शिक्षा को रोचक तथा सरलता के साथ बोधगम्य बनाने के लिए इस उपागम के महत्त्वपूर्ण भूमिका प्रस्तुत की है ।
(14) प्रश्न 2 (xiv) कोमल उपागम की विशेषताएँ बताइए
(14) प्रश्न 2 (xiv) कोमल उपागम की विशेषताएँ बताइए |
उत्तर - कोमल उपागम की विशेषताएँ –
इस उपागम में शिक्षण प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का उपयोग किया जाता है। इन मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग बालक में अपेक्षित परिवर्तन लाने के लिए किया जाता है। आर्थर मेल्टन ने कहा है कि शैक्षिक तकनीकी अधिगम के मनोविज्ञान पर आधारित है और यह अनुभव प्रदान करके वांछित व्यवहार परिवर्तन की प्रक्रिया को आरम्भ करती है। इस तकनीकी का सम्बन्ध शिक्षण के सिद्धान्तों, उद्देश्यों के व्यावहारिक रूप, शिक्षण प्रविधियों तथा मूल्यांकन आदि से होता है। इस प्रकार इस तकनीकी में निवेश (Input) प्रक्रिया (Process) तथा निर्गत (Output) तीनों पक्षों के विकास पर बल दिया जाता है ।
(15) प्रश्न 2 (xiii) अनुदेशनात्मक तकनीकी का स्वरूप बताइए । <
(15) प्रश्न 2 (xii) अनुदेशनात्मक तकनीकी का स्वरूप बताइए |
उत्तर - अनुदेशात्मक तकनीकी में मुख्य रूप से दो बातों पर बल दिया जाता है-
(1) कक्षागत अन्तःक्रिया विश्लेषण एवं (2) अभिक्रमित अधिगम ।
कक्षागत अन्तःक्रिया विश्लेषण में कक्षा में छात्र तथा अध्यापक के पारस्परिक व्यवहार का विश्लेषण किया जाता है, इसमें शिक्षक व्यवहार, छात्र व्यवहार, शिक्षक तथा छात्र व्यवहार इन तीनों दृष्टियों से कक्षागत अन्तः क्रिया का विश्लेषण किया जाता है। वी०एफ० स्किनर व उसके साथियों द्वारा प्रतिपादित अभिक्रमित अधिगम द्वारा छात्रों के व्यवहार में संशोधन किया जाता है। यह अधिगम इस बात पर बल देता है कि शिक्षक समुदाय शैक्षिक उद्देश्यों पर पुनः विचार कर शिक्षण में सुधार करे।
अनुदेशात्मक तकनीकी में प्रयुक्त किये जाने वाले उपर्युक्त दो तरीकों के अलावा अन्य तरीकों को भी अपनाया जाता है, जो निम्नलिखित है-
(अ) श्रृंखला अभिक्रमित अनुदेशन,
(ब) शाखायी अभिक्रमित अनुदेशन,
(स) मैथमेटिकल अभिक्रमित अनुदेशन,
(द) कम्प्यूटर द्वारा अनुदेशन आदि ।
(16) प्रश्न 2 (xiii) अनुदेशात्मक तकनीकी की विशेषताएँ बताइए
(16) प्रश्न 2 (xii) अनुदेशात्मक तकनीकी की विशेषताएँ बताइए |
उत्तर-
(1) इस तकनीकी द्वारा व्यक्तिगत विभिन्नताओं पर नियन्त्रण पाया जा सकता है।
(2) इसमें छात्रों को सही अनुक्रिया करने पर पुनर्बलित किया जाता है। इस प्रकार इसमें सीखने के अनुबद्ध अनुक्रिया सिद्धान्त का अनुसरण किया जाता है।
(3) यह तकनीकी प्रभावी शिक्षकों की कमी को भी पूरा कर सकती है।
(4) इस तकनीकी के द्वारा ज्ञानात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति की जा सकती हैं।
(5) यह मनोवैज्ञानिक तथा सीखने के सिद्धान्तों पर आधारित है।
(6) इस तकनीकी में पाठ्यवस्तु का गहरायी से विश्लेषण किया जाता है, एवं जिससे पाठ्यवस्तु का प्रस्तुतीकरण प्रभावशाली हो जाता है।
(17) प्रश्न 2 (xiii) शैक्षिक तकनीकी से आप क्या समझते हैं? इसकी प्रमुख विशेषताओं एवं शिक्षण में इसकी प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए।
(17) प्रश्न 2 (xii) शैक्षिक तकनीकी से आप क्या समझते हैं? इसकी प्रमुख विशेषताओं एवं शिक्षण में इसकी प्रासंगिकता की विवेचना कीजिए। |
उत्तर-
शिक्षण तकनीकी की अवधारणाएँ
शिक्षण तकनीकी निम्नलिखित अवधारणाओं पर आधारित है—
1. शिक्षण प्रक्रिया की प्रकृति वैज्ञानिक है।
2. शिक्षण क्रियाओं में आवश्यक सुधार किये जा सकते हैं।
3. शिक्षण और अधिगम में पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित किये जा सकते हैं।
4. प्रभावशाली अधिगम के लिये शिक्षण द्वारा उचित परिस्थितियाँ उत्पन्न की जा सकती हैं।
5. शिक्षण क्रियाओं द्वारा पूर्व निर्धारित उद्देश्य प्राप्त किये जा सकते हैं।
6. पृष्ठपोषण विधि द्वारा शिक्षण कौशलों का विकास किया जा सकता है।
शिक्षण तकनीकी की विशेषताएँ -
शिक्षण तकनीकी की विशेषताएँ इस प्रकार हैं-
1. शिक्षण तकनीकी से शिक्षण प्रक्रिया को प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
2. शिक्षण तकनीकों से दोनों पक्षों ज्ञानात्मक, भावात्मक और क्रियात्मक तीनों पक्षों के उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सकता है।
3. शिक्षण तकनीकी की सहायता से शिक्षण प्रक्रिया स्मृति स्तर से लेकर चिन्तन तक संगठित की जा सकती है।
4. इस तकनीकी में समाजशास्त्र, दर्शनशास्त्र तथा मनोविज्ञान की सहायता ली जाती है।
5. शिक्षण तकनीकी में लागत प्रक्रिया तथा उत्पादन संलिप्त होते हैं।
6. शिक्षण तकनीकी के माध्यम से छात्राध्यापक तथा सेवारत शिक्षक दोनों ही अपने शिक्षण को प्रभावशाली बना सकते हैं ।
7. शिक्षण तकनीकी की सहायता से शिक्षण प्रक्रिया के चार सोपानों नियोजन, संगठन, मार्गदर्शन एवं नियंत्रण में तारतम्यता स्थापित की जाती है ।
शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक तकनीकी की भूमिका / महत्व
शिक्षा के क्षेत्र में शैक्षिक तकनीकी की भूमिका / महत्व निम्नलिखित हैं--
1. शिक्षण तकनीकी के आधार पर शिक्षण के नवीन सिद्धान्तों, प्रतिमानों, युक्तियों, प्रविधियों आदि के निर्धारण के द्वारा शिक्षण को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
2. शिक्षण तकनीकों के आधार पर शिक्षण एवं अधिगम के क्षेत्रों में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों के प्रयोग के द्वारा शिक्षण प्रक्रिया को अधिक सोद्देश्यपूर्ण बनाया जा सकता है।
3. शैक्षिक तकनीकों के माध्यम से वैयक्तिक भिन्नता के आधार पर शिक्षा प्रदान की जा सकती है
4. शैक्षिक तकनीकी न केवल छात्रों के अपितु प्रभावशाली अध्यापकों के निर्माण में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।
5. शैक्षिक तकनीकी ज्ञान के सम्प्रेषण अथवा संचय के साथ-साथ ज्ञान के खोज तथा विकास में भी- सहायक होती है।
6. शैक्षिक तकनीकी के माध्यम से सर्वसुलभ एवं कम व्ययपूर्ण शिक्षा प्राप्त की जा सकती है।
7. व्यक्तिगत परीक्षार्थियों के समक्ष आने वाली समस्याओं का समाधान शैक्षिक तकनीकी की अपेक्षाकृत सहज होने से यह व्यक्तिगत परीक्षार्थियों हेतु सहायक होती है।
(18) प्रश्न 2 (xiii)सूक्ष्म शिक्षण प्रविधि के घटक बताइए।
(18) प्रश्न 2 (xii) सूक्ष्म शिक्षण प्रविधि के घटक बताइए। |
उत्तर - सूक्ष्म शिक्षण प्रविधि में निम्नलिखित घटकों का भाग लेना अनिवार्य होता है। किसी भी घटक की अनुपस्थिति में इस प्रविधि की सफलता सन्दिग्ध हो जाती है।
1. सूक्ष्म शिक्षण परिस्थिति-
इस घटक में कक्षा का आकार, पाठ्य वस्तु की लम्बाई तथा शिक्षण-अवधि आदि शामिल हैं। कक्षा में 5 से 10 तक विद्यार्थी होते हैं तथा शिक्षण अवधि 5 से 20 मिनट तक की होती है। पाठ्य-वस्तु को एक इकाई में प्रस्तुत किया जाता है।
2. शिक्षण - कौशल -
प्रशिक्षण कार्यक्रम में छात्र - अध्यापक के शिक्षण-कौशलों के विकास की ओर उचित ध्यान दिया जाता है, जैसे- व्याख्या कौशल, श्यामपट्ट कौशल, प्रश्न पूछने का कौशल इत्यादि ।
3. छात्र - अध्यापक-
अध्यापक का प्रशिक्षण प्राप्त करनेवाले विद्यार्थी को छात्र - अध्यापक कहा जाता है। प्रशिक्षण के दौरान इनमें विभिन्न क्षमताओं का विकास किया जाता है। जैसे- कक्षा - प्रबन्ध की क्षमता, अनुशासन स्थापित करने की क्षमता, स्कूल के विभिन्न कार्यक्रमों का संचालन करने की क्षमता इत्यादि ।
4. प्रतिपुष्टि के साधन -
छात्र - अध्यापकों के व्यवहारों में परिवर्तन लाने के लिए उन्हें प्रतिपुष्टि प्रदान करनी अति आवश्यक होती है। यह प्रतिपुष्टि वीडियो-टेप, श्रव्य-टेप तथा प्रतिपुष्टि प्रश्नावली द्वारा की जा सकती है। 5. सूक्ष्म शिक्षण प्रयोगशाला -
सूक्ष्म शिक्षण के लिए प्रयोगशाला का होना भी अति आवश्यक है। इनमें प्रतिपुष्टि की आवश्यक सुविधाएँ संचित की जा सकती हैं।
(19) प्रश्न 2 (xiii) टेलीकान्फ्रेन्सिंग से आप क्या समझते हैं?
(19) प्रश्न 2 (xii) टेलीकान्फ्रेन्सिंग से आप क्या समझते हैं? |
अथवा
टेलीकान्फ्रेन्सिंग
उत्तर-
टेलीकान्फ्रेन्सिंग का अर्थ- टेलीकान्फ्रेन्सिंग एक ऐसी इलेक्ट्रॉनिक प्रणाली है जिसमें दो या दो से अधिक दूर बैठे व्यक्ति अपनी इच्छित विषय-वस्तु से सम्बन्धित चर्चा, परिचर्चा में भाग ले सकते हैं। अपनी बात कह सकते हैं, दूसरों की बात सुन सकते हैं, उन पर तुरन्त प्रतिक्रियाएँ, सुझाव या अभिमत प्राप्त कर सकते हैं और आवश्यक सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकते हैं। टेलीकान्फ्रेन्सिंग में कई माध्यम भाग लेते हैं और इसमें द्विमार्गीय प्रसारण द्वारा अन्तःक्रिया सामूहिक संचार की व्यवस्था होती है। यह दूरवर्ती शिक्षा के लिए एक सशक्त माध्यम है। इस माध्यम का शैक्षिक संस्थाओं में अधिक विकास हो रहा है क्योंकि सुगमता एवं कम लागत की पूँजी के द्वारा यह दूरवर्ती शिक्षा संस्थाओं एवं शिक्षार्थियों के द्वारा आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बन गया है।
(20) प्रश्न 2 (xx)प्रणाली उपागम (विश्लेषण) की उपयोगिता पर प्रकाश डालिए।
(20) प्रश्न 2 (xx)प्रणाली उपागम (विश्लेषण) की उपयोगिता पर प्रकाश डालिए। |
उत्तर-
प्रणाली विश्लेषण की उपयोगिता -
(1) इससे विद्यालय के कार्मिक एवं प्रबन्धकीय अधिकारियों का अधिक-से-अधिक सहयोग व अपेक्षित उपयोग किया जा सकता है, क्योंकि इसके माध्यम से उनके क्रियाकलापों को नियन्त्रित, संयोजित तथा मूल्यांकित किया जा सकता है।
(2) इसके माध्यम से शैक्षिक प्रशासन, शैक्षिक व्यवस्था तथा शैक्षिक अनुदेशन को अधिक प्रभावशाली बनाया जा सकता है ।
(3) प्रणाली विश्लेषण का प्रयोग नवीन शैक्षिक प्रशासन, अध्यापक शिक्षा, परीक्षा-प्रणाली, निर्देशन - प्रणाली, अनुदेशन प्रणाली तथा शैक्षिक व्यवस्था - आदि के प्रारूपों के निर्माण में किया जा सकता है ।
(4) यह विद्यालय कार्यक्रमों की प्रभावशाली योजना बनाने में सहायक होती है ।
(5) इसके द्वारा उपलब्धियों का मूल्यांकन प्रभावशाली रूप से किया जा सकता है।
(6) इसके द्वारा शिक्षा की गुणात्मकता में वृद्धि की जा सकती है।
(7) यह प्रशिक्षण एवं विकासात्मक कार्यक्रमों के सुधार हेतु महत्त्वपूर्ण साधन है ।
( 8 ) विश्लेषण प्रणाली अधिगम व्यवहार को नियन्त्रित करने का वैध उपकरण है।
(21) प्रश्न शैक्षिक तकनीकी के प्रमुख प्रकारों की विवेचना कीजिए।2 (xx1) *****
(21) प्रश्न 2 (xxi) शैक्षिक तकनीकी के प्रमुख प्रकारों की विवेचना कीजिए। |
उत्तर-
शैक्षिक तकनीकी के प्रमुख रूप
(1) हार्डवेयर उपागम के अन्तर्गत रेडियो, टेपरिकॉर्डर, ग्रामोफोन, प्रोजेक्टर, वीडियोटेप, कम्प्यूटर, टेलीविजन आदि सहायक शैक्षणिक सामग्री पर विशेष जोर दिया जाता है। इस उपागम का आधार भौतिक विज्ञान तथा इंजीनियरिंग टेक्नॉलॉजी है तथा इसके द्वारा शिक्षण-प्रक्रिया का यन्त्रीकरण करके कम खर्च और कम समय में अधिक-से-अधिक छात्रों को लाभान्वित करने का प्रयास किया जाता है; इसमें मनोरंजन ढंग से शिक्षण-प्रक्रिया को प्रभावी बनाकर शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।
(2) सॉफ्टवेयर उपागम के अन्तर्गत मशीनों का प्रयोग न करके सीखने के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता है तथा इनके द्वारा छात्रों में अपेक्षित परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता है। इस उपागमवाली तकनीकी को अनुदेशन तकनीकी, शिक्षण तकनीकी तथा व्यवहार तकनीकी का नाम भी दिया जाता है। इसमें शिक्षा के अदा (Input), प्रक्रिया (Process) तथा प्रदा (Output ) —— तीनों पक्षों के विकास पर बल दिया जाता है। स्किनर इस तकनीकी को व्यावहारिक तकनीकी पर आधारित मानता है तथा इसके द्वारा अनुभव प्रदान कर छात्रों में वांछित परिवर्तन पर बल देता है।
(3) प्रणाली विश्लेषण को प्रबन्ध तकनीकी भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत शैक्षिक प्रशासन एवं प्रबन्ध सम्बन्धी समस्याओं का वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण कर निर्णय लिये जाते हैं । प्रणाली उपागम का मुख्य आधार विज्ञान एवं गणित है। यह तकनीकी शैक्षिक प्रशासन के विकास तथा अनुदेशन की रूपरेखा बनाने में सहायक सिद्ध होती है तथा इसके द्वारा शैक्षिक प्रबन्ध व्यवस्था को कम खर्च में अधिक उपयोगी और प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
प्रश्न 3 (v) प्रणाली उपागम क्या है?
उत्तर -
प्रणाली उपागम को प्रबन्ध तकनीकी भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत शैक्षिक प्रशासन एवं प्रबन्ध सम्बन्धी समस्याओं का वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण कर निर्णय लिये जाते हैं । प्रणाली उपागम का मुख्य आधार विज्ञान एवं गणित है । यह तकनीकी शैक्षिक प्रशासन के विकास तथा अनुदेशन की रूपरेखा बनाने में सहायक सिद्ध होती है तथा इसके द्वारा शैक्षिक प्रबन्ध व्यवस्था को कम खर्च में अधिक उपयोगी और प्रभावकारी बनाया जा सकता है।
प्रश्न 3 (vi) कठोर उपागम के माध्यम या साधन क्या हैं?
उत्तर-
शैक्षिक तकनीकी में शिक्षण या निर्देशन प्रक्रिया को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए जिन माध्यमों या साधनों का प्रयोग किया जाता है उन्हें ही कठोर उपागम का नाम दिया जाता है । अतः रेडियो, टेलीविजन, वीडियो कैसेट, कम्प्यूटर, पावरजेड प्रोजेक्टर आदि इसके अन्तर्गत आते हैं।
रेडियो—
कठोर उपागम के साधन के रूप में रेडियो का स्थान महत्त्वपूर्ण है। शैक्षिक तकनीकी शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता प्रदान करती है। शिक्षा के उद्देश्य बहुत व्यापक तथा व्यक्ति एवं समाज के प्रत्येक प्रश्न का विकास करनेवाले होते हैं।
वीडियो कैसेट —
कठोर उपागम में वीडियो कैसेट भी माध्यम या साधन के रूप में प्रस्तुत हो सकता है। यह विज्ञान की नयी उपलब्धि है तथा फिल्म प्रोजेक्टर का नया तथा व्यवस्थित स्वरूप है। इसके माध्यम से कक्षा में शिक्षा को प्रभावी बनाया जा सकता है। शिक्षा जगत् में नये प्रयोगों तथा शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए इसका प्रयोग किया जा रहा है। वीडियो कैसेट द्वारा घर बैठकर शिक्षा ग्रहण की जा सकती है। इसके लिए शैक्षिक सामग्री पर कैसेट तैयार करने होते हैं। शिक्षार्थी इन कैसेटों को वीडियो के माध्यम से देखकर ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।
कम्प्यूटर --
कम्प्यूटर एक तरह का स्वचालित संयन्त्र है जो बिजली की सहायता से चलाया जाता है। यह एक जटिल इलेक्ट्रॉनिक संयन्त्र है जो बहुत तेजी से कार्य करता है। कम्प्यूटर सूचनाओं को प्राप्त करता है और उन्हें अपने स्मृति भण्डार में रखता है तथा सूचनाएँ माँगने पर वह उन्हें तत्काल प्रदान करता है।
प्रश्न 3 (vii) शिक्षा में हार्डवेयर उपागम से आप क्या समझते हैं?
उत्तर - शिक्षा में हार्डवेयर उपागम का अर्थ - शिक्षण में अभियन्त्रण की मशीनों के प्रयोग को कठोर शिल्प उपागम के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इसे शिक्षा तकनीकी प्रथम या हार्डवेयर तकनीकी भी कहते हैं। हार्डवेयर उपागम को अभियन्त्रण अथवा मशीन की प्रौद्योगिकी से भी सम्बोधित किया जाता है क्योंकि इसमें मेकेनिकल इंजीनियरिंग के सिद्धान्तों का शिक्षण के क्षेत्र में उपयोग किया जाता है। अधिकांश लोगों का विश्वास है कि मशीन की तकनीकी से शैक्षिक तकनीकी जुड़ी हुई है। जब तक शिक्षण के क्षेत्र में हार्डवेयर के साधनों, यथा- टेपरिकॉर्डर, रेडियो, टी०वी०, ग्रामोफोन, प्रोजेक्टर, कम्प्यूटर, चलचित्र, इलेक्ट्रॉनिक वीडियो आदि जैसे उपकरण नहीं होंगे, तब तक शिक्षा अधूरी रहेगी। शिक्षण के उद्देश्यों को अधिकतम सीमा तक प्राप्त करने के लिए तथा शिक्षण को और प्रभावशाली बनाने के लिए शिक्षा में इन यान्त्रिक उपकरणों का प्रयोग ही हार्डवेयर उपागम कहलाता है।
कठोर शिल्प उपागम का सम्बन्ध निर्देशन के ज्ञानात्मक पक्ष में है। इसमें मशीन यन्त्रवत् है और अनुदेशन का कार्य करती है । कठोर शिल्प उपागम में मशीन पर आधारित शिक्षण सामग्री आती है।
प्रश्न 3 (viii) शिक्षा में सॉफ्टवेयर उपागम से आप क्या समझते हैं?
उत्तर -
शिक्षा में सॉफ्टवेयर उपागम का अर्थ - सॉफ्टवेयर उपागम में मशीनों का उपयोग नहीं किया जाता है इसलिए इसे कोमल शिल्प उपागम कहते हैं। इस उपागम को अनुदेशन-तकनीकी, शिक्षण- तकनीकी और व्यवहार - तकनीकी की भी संज्ञा दी जाती है। इसमें सामाजिक विज्ञान, मनोविज्ञान और विशेषकर अभिगम के सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता |
कोमल शिल्प उपागम में अभियन्त्रण की मशीनों के स्थान पर शिक्षण तथा सीखने के सिद्धान्तों का प्रयोग बालकों में अपेक्षित व्यवहार-परिवर्तन लाने के लिए किया जाता है। मशीनों का प्रयोग कभी- कभी पाठ्यवस्तु के प्रस्तुतीकरण को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए ही किया जाता है। कोमल शिल्प उपागम का सम्बन्ध शिक्षण के सिद्धान्तों, उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखने, शिक्षण-प्रविधियों, अनुदेशन प्रणाली के पुनर्बलन, प्रतिपुष्टि की उक्तियों तथा मूल्यांकन से होता है। डेविस के अनुसार, सॉफ्टवेयर का दृष्टिकोण आधुनिक अभिक्रमित अधिगम के सिद्धान्तों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है और अपने में कार्य-विश्लेषण, संक्षिप्त उद्देश्य लेखन, उपयुक्त अनुक्रिया का चयन और सतत मूल्यांकन की विशेषताओं को अपने में समाहित किये हुए है ।
प्रश्न 3 (ix) सूक्ष्म शिक्षण के दोष बताइए।
उत्तर -
(1) हार्डवेयर उपागम के अन्तर्गत रेडियो, टेपरिकॉर्डर, ग्रामोफोन, प्रोजेक्टर, वीडियोटेप, कम्प्यूटर, टेलीविजन आदि सहायक शैक्षणिक सामग्री पर विशेष जोर दिया जाता है। इस उपागम का आधार भौतिक विज्ञान तथा इंजीनियरिंग टेक्नॉलॉजी है तथा इसके द्वारा शिक्षण-प्रक्रिया का यन्त्रीकरण करके कम खर्च और कम समय में अधिक-से-अधिक छात्रों को लाभान्वित करने का प्रयास किया जाता है; इसमें मनोरंजन ढंग से शिक्षण-प्रक्रिया को प्रभावी बनाकर शैक्षिक उद्देश्यों की प्राप्ति की जाती है।
(2) सॉफ्टवेयर उपागम के अन्तर्गत मशीनों का प्रयोग न करके सीखने के मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता है तथा इनके द्वारा छात्रों में अपेक्षित परिवर्तन लाने का प्रयास किया जाता है। इस उपागमवाली तकनीकी को अनुदेशन तकनीकी, शिक्षण तकनीकी तथा व्यवहार तकनीकी का नाम भी दिया जाता है। इसमें शिक्षा के अदा (Input), प्रक्रिया (Process) तथा प्रदा (Output ) —— तीनों पक्षों के विकास पर बल दिया जाता है। स्किनर इस तकनीकी को व्यावहारिक तकनीकी पर आधारित मानता है तथा इसके द्वारा अनुभव प्रदान कर छात्रों में वांछित परिवर्तन पर बल देता है।
(3) प्रणाली विश्लेषण को प्रबन्ध तकनीकी भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत शैक्षिक प्रशासन एवं प्रबन्ध सम्बन्धी समस्याओं का वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण कर निर्णय लिये जाते हैं । प्रणाली उपागम का मुख्य आधार विज्ञान एवं गणित है। यह तकनीकी शैक्षिक प्रशासन के विकास तथा अनुदेशन की रूपरेखा बनाने में सहायक सिद्ध होती है तथा इसके द्वारा शैक्षिक प्रबन्ध व्यवस्था को कम खर्च में अधिक उपयोगी और प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
(22) प्रश्न 2 (xx1) प्रणाली उपागम क्या है?
(22) प्रश्न 2 (xxi) प्रणाली उपागम क्या है? |
उत्तर -
प्रणाली उपागम को प्रबन्ध तकनीकी भी कहते हैं। इसके अन्तर्गत शैक्षिक प्रशासन एवं प्रबन्ध सम्बन्धी समस्याओं का वैज्ञानिक आधार पर विश्लेषण कर निर्णय लिये जाते हैं । प्रणाली उपागम का मुख्य आधार विज्ञान एवं गणित है । यह तकनीकी शैक्षिक प्रशासन के विकास तथा अनुदेशन की रूपरेखा बनाने में सहायक सिद्ध होती है तथा इसके द्वारा शैक्षिक प्रबन्ध व्यवस्था को कम खर्च में अधिक उपयोगी और प्रभावकारी बनाया जा सकता है।
(23) प्रश्न 2 (xx1) कठोर उपागम के माध्यम या साधन क्या हैं?
(23) प्रश्न 2 (xxi) कठोर उपागम के माध्यम या साधन क्या हैं? |
उत्तर-
शैक्षिक तकनीकी में शिक्षण या निर्देशन प्रक्रिया को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए जिन माध्यमों या साधनों का प्रयोग किया जाता है उन्हें ही कठोर उपागम का नाम दिया जाता है । अतः रेडियो, टेलीविजन, वीडियो कैसेट, कम्प्यूटर, पावरजेड प्रोजेक्टर आदि इसके अन्तर्गत आते हैं।
रेडियो—
कठोर उपागम के साधन के रूप में रेडियो का स्थान महत्त्वपूर्ण है। शैक्षिक तकनीकी शिक्षा के उद्देश्यों को प्राप्त करने में सहायता प्रदान करती है। शिक्षा के उद्देश्य बहुत व्यापक तथा व्यक्ति एवं समाज के प्रत्येक प्रश्न का विकास करनेवाले होते हैं।
वीडियो कैसेट —
कठोर उपागम में वीडियो कैसेट भी माध्यम या साधन के रूप में प्रस्तुत हो सकता है। यह विज्ञान की नयी उपलब्धि है तथा फिल्म प्रोजेक्टर का नया तथा व्यवस्थित स्वरूप है। इसके माध्यम से कक्षा में शिक्षा को प्रभावी बनाया जा सकता है। शिक्षा जगत् में नये प्रयोगों तथा शिक्षा में गुणात्मक सुधार के लिए इसका प्रयोग किया जा रहा है। वीडियो कैसेट द्वारा घर बैठकर शिक्षा ग्रहण की जा सकती है। इसके लिए शैक्षिक सामग्री पर कैसेट तैयार करने होते हैं। शिक्षार्थी इन कैसेटों को वीडियो के माध्यम से देखकर ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।
कम्प्यूटर --
कम्प्यूटर एक तरह का स्वचालित संयन्त्र है जो बिजली की सहायता से चलाया जाता है। यह एक जटिल इलेक्ट्रॉनिक संयन्त्र है जो बहुत तेजी से कार्य करता है। कम्प्यूटर सूचनाओं को प्राप्त करता है और उन्हें अपने स्मृति भण्डार में रखता है तथा सूचनाएँ माँगने पर वह उन्हें तत्काल प्रदान करता है।
(24) प्रश्न 2 (xx1) शिक्षा में हार्डवेयर उपागम से आप क्या समझते हैं?
(24) प्रश्न 2 (xxi) शिक्षा में हार्डवेयर उपागम से आप क्या समझते हैं? |
उत्तर - शिक्षा में हार्डवेयर उपागम का अर्थ - शिक्षण में अभियन्त्रण की मशीनों के प्रयोग को कठोर शिल्प उपागम के नाम से सम्बोधित किया जाता है। इसे शिक्षा तकनीकी प्रथम या हार्डवेयर तकनीकी भी कहते हैं। हार्डवेयर उपागम को अभियन्त्रण अथवा मशीन की प्रौद्योगिकी से भी सम्बोधित किया जाता है क्योंकि इसमें मेकेनिकल इंजीनियरिंग के सिद्धान्तों का शिक्षण के क्षेत्र में उपयोग किया जाता है। अधिकांश लोगों का विश्वास है कि मशीन की तकनीकी से शैक्षिक तकनीकी जुड़ी हुई है। जब तक शिक्षण के क्षेत्र में हार्डवेयर के साधनों, यथा- टेपरिकॉर्डर, रेडियो, टी०वी०, ग्रामोफोन, प्रोजेक्टर, कम्प्यूटर, चलचित्र, इलेक्ट्रॉनिक वीडियो आदि जैसे उपकरण नहीं होंगे, तब तक शिक्षा अधूरी रहेगी। शिक्षण के उद्देश्यों को अधिकतम सीमा तक प्राप्त करने के लिए तथा शिक्षण को और प्रभावशाली बनाने के लिए शिक्षा में इन यान्त्रिक उपकरणों का प्रयोग ही हार्डवेयर उपागम कहलाता है।
कठोर शिल्प उपागम का सम्बन्ध निर्देशन के ज्ञानात्मक पक्ष में है। इसमें मशीन यन्त्रवत् है और अनुदेशन का कार्य करती है । कठोर शिल्प उपागम में मशीन पर आधारित शिक्षण सामग्री आती है।
(25) प्रश्न 2 (xx1) शिक्षा में सॉफ्टवेयर उपागम से आप क्या समझते हैं?
(25) प्रश्न 2 (xxi) शिक्षा में सॉफ्टवेयर उपागम से आप क्या समझते हैं? |
उत्तर -
शिक्षा में सॉफ्टवेयर उपागम का अर्थ - सॉफ्टवेयर उपागम में मशीनों का उपयोग नहीं किया जाता है इसलिए इसे कोमल शिल्प उपागम कहते हैं। इस उपागम को अनुदेशन-तकनीकी, शिक्षण- तकनीकी और व्यवहार - तकनीकी की भी संज्ञा दी जाती है। इसमें सामाजिक विज्ञान, मनोविज्ञान और विशेषकर अभिगम के सिद्धान्तों का प्रयोग किया जाता |
कोमल शिल्प उपागम में अभियन्त्रण की मशीनों के स्थान पर शिक्षण तथा सीखने के सिद्धान्तों का प्रयोग बालकों में अपेक्षित व्यवहार-परिवर्तन लाने के लिए किया जाता है। मशीनों का प्रयोग कभी- कभी पाठ्यवस्तु के प्रस्तुतीकरण को अधिक प्रभावशाली बनाने के लिए ही किया जाता है। कोमल शिल्प उपागम का सम्बन्ध शिक्षण के सिद्धान्तों, उद्देश्यों को व्यावहारिक रूप में लिखने, शिक्षण-प्रविधियों, अनुदेशन प्रणाली के पुनर्बलन, प्रतिपुष्टि की उक्तियों तथा मूल्यांकन से होता है। डेविस के अनुसार, सॉफ्टवेयर का दृष्टिकोण आधुनिक अभिक्रमित अधिगम के सिद्धान्तों से घनिष्ठ रूप से सम्बन्धित है और अपने में कार्य-विश्लेषण, संक्षिप्त उद्देश्य लेखन, उपयुक्त अनुक्रिया का चयन और सतत मूल्यांकन की विशेषताओं को अपने में समाहित किये हुए है ।
(26) प्रश्न 2 (xx1) सूक्ष्म शिक्षण के दोष बताइए
(26) प्रश्न 2 (xxi) सूक्ष्म शिक्षण के दोष बताइए |
उत्तर -
सूक्ष्म शिक्षण के निम्नलिखित दोष हैं-
(1) इस शिक्षण की मुख्य कमी इसके लिए प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव है।
(2) सहयोगी साथियों की कक्षा, कक्षा- शिक्षण के लिए वास्तविक परिस्थिति प्रदान नहीं कर सकती ।
(3) वास्तविक कक्षा में 30 छात्रों एवं सूक्ष्म शिक्षण की कक्षा के 5-10 छात्रों को पढ़ाने में एक गहरा अन्तर होता है। इसमें प्रशिक्षणार्थी को कक्षा अनुशासनहीनता की वास्तविक समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है।
(4) वीडियो टेप की अनुपस्थिति कभी - कभी अभ्यास के दौरान गहन समस्या उत्पन्न कर देती है, क्योंकि वीडियो टेप छात्राध्यापक को प्रत्यक्ष पृष्ठपोषण प्रदान नहीं करती।
(5) वर्तमान परिभाषा के अन्तर्गत सूक्ष्म शिक्षण सम्पूर्ण शिक्षक-प्रशिक्षण प्रणाली का स्थान लेने की क्षमता नहीं रखती है।
(6) वर्तमान शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालयों में सूक्ष्म शिक्षण का प्रवेश धन की समस्या को जन्म देगा ।
सूक्ष्म शिक्षण की कुछ सीमाएँ या दोष होते हुए भी यह महत्त्वपूर्ण शिक्षण-पद्धति है। सूक्ष्म शिक्षण अनेक शिक्षण सम्बन्धी खोजों में से एक महत्त्वपूर्ण खोज है। यह छात्राध्यापक को स्व-अभ्यास के लिए प्रेरित करके उसका उचित मार्गदर्शन करती है। वर्तमान समय में जबकि प्राचीन पद्धति की चारों ओर आलोचना हो रही है, सूक्ष्म शिक्षण की प्रविधि एक नया समाधान प्रस्तुत करती है ।
प्रश्न 3 (x) टेलीकान्फ्रेन्सिंग से लाभ बतलाइए।
उत्तर-
टेलीकान्फ्रेन्सिंग के निम्नलिखित लाभ हैं-
1. दूरवर्ती अधिगम के लिए प्रभावी सहायक -
टेलीकान्फ्रेन्सिंग का उपयोग उस समय और अधिक बढ़ जाता है, जब इसमें छात्र विभिन्न समुदायों के रूप में दूर-दूर फैले हुए हों। इसमें विभिन्न समुदायों के मध्य विभिन्न केन्द्रों पर फैले हुए व्यक्तियों के मध्य इस प्रकार के विषय या कार्यक्रम दिये गये हों।
2. मूल्य की प्रभावशीलता - दूरवर्ती अधिगमकर्त्ताओं के लिए अन्य विधियों से यह विधि कम खचींली होती है।
3. लचीली प्रणाली - इस प्रकार की प्रणाली को जल्दी से छोटे या बड़े समूहों के रूप में व्यवस्थित किया जा सकता है। यह अधिक लचीली प्रणाली है।
4. सुपरिचित अनुदेशनात्मक प्रणाली - अनुदेशन की यह विधि अन्य विधियों के समान ही है जैसा कि विभिन्न समूहों के मध्य विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों द्वारा आपस में विचार-विमर्श किया जाता है। 5. समय-सारणी को व्यवस्थित करने में सुगमता - इससे पारम्परिक ढंग से न उपलब्ध होनेवाले छात्रों के लिए भी समय-सारणी व्यवस्थित की जा सकती है।
प्रश्न 3 (xi) सूक्ष्म शिक्षण।
अथवा
सूक्ष्म शिक्षण के सम्प्रत्यय एवं महत्त्व की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ -
सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ है, लघु-पाठ अवधि तथा लघु पाठ्य सामग्री से शिक्षण । सूक्ष्म शिक्षण की यह अवधारणा है कि शिक्षण एक जटिल प्रक्रिया है, जिसे सरल-से-सरल प्रक्रिया में विभाजित किया जा सकता है और सरलतम प्रक्रियाओं की सहायता से वांछित कौशल को विकसित किया जा सकता है।
1. सूक्ष्म शिक्षण की परिकल्पना डॉ० राबर्ट बुश और डॉ० डी० डब्ल्यू0 एलिन ने की थी । इनके अनुसार, “सूक्ष्म शिक्षण एक निर्देशित शिक्षण है ! सूक्ष्म शिक्षण किसी दशा में आकार एवं समय में सूक्ष्म शिक्षण परिस्थिति है । "
2. प्रो0 नरेन्द्र वैद्य, " सूक्ष्म शिक्षण व सूक्ष्मपदीय शिक्षण स्थितियाँ हैं जहाँ वास्तविक कक्षा- शिक्षण की जटिल स्थितियाँ पर्याप्त कम हो जाती हैं। इसके साथ ही शिक्षण अभ्यास की तुलना में पृष्ठपोषण की मात्रा बढ़ जाती है । "
3. क्लिफ्ट, " सूक्ष्म शिक्षण शिक्षक प्रशिक्षण की वह विधि है जिसमें शिक्षण की परिस्थितियों को सरल किया जाता है और शिक्षण व्यवहार के किसी एक विशेष कौशल के अभ्यास से जोड़ दिया जाता है। वह अभ्यास छोटे आकार की कक्षा में अल्प समय में किया जाता है । "
सूक्ष्म शिक्षण के लाभ या महत्त्व --
सूक्ष्म शिक्षण के प्रशिक्षण विधि के रूप में अनेक लाभ हैं -
( 1 ) यह कक्षा - शिक्षण की जटिलताओं को कम करता है।
(2) यह शिक्षण विधि छात्राध्यापक को कम समय में अधिक सिखाती है।
(3) इस विधि के माध्यम से छात्राध्यापक को विद्यालय में सीधा पढ़ाये जाने की अपेक्षा छोटी कक्षा, कम छात्र तथा छोटी पाठ-योजना से अध्यापन कार्य सिखाया जाता है, जो छात्राध्यापक के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।
( 4 ) यह शिक्षण विधि छात्राध्यापकों में आत्मविश्वास जागृत करती है।
(5) छात्राध्यापक क्रमशः अपनी योग्यतानुसार शिक्षण - कौशलों पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए उन्हें विकसित करता है और सीखने का प्रयत्न करता है।
(6) प्रतिपुष्टि (feedback) सम्पूर्ण तथा सभी दृष्टिकोणों को अंगीकार करती है।
(7) छात्राध्यापक का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किया जाता है।
(8) मूल्यांकन छात्राध्यापक को अपना पक्ष रखने का पूर्ण अधिकार होता है और मूल्यांकन चरण में उसे संक्रिय रखा जाता है।
(9) निरीक्षक, छात्राध्यापक के परामर्शदाता के रूप में कार्य करता है ।
(10) सूक्ष्म शिक्षण से शिक्षण प्रक्रिया सरल होती है।
(11) सूक्ष्म शिक्षण से व्यावसायिक परिपक्वता विकसित होती है ।
प्रश्न 3 (xii) सूक्ष्म शिक्षण के सिद्धान्त।
उत्तर-
(1) इस शिक्षण की मुख्य कमी इसके लिए प्रशिक्षित शिक्षकों का अभाव है।
(2) सहयोगी साथियों की कक्षा, कक्षा- शिक्षण के लिए वास्तविक परिस्थिति प्रदान नहीं कर सकती ।
(3) वास्तविक कक्षा में 30 छात्रों एवं सूक्ष्म शिक्षण की कक्षा के 5-10 छात्रों को पढ़ाने में एक गहरा अन्तर होता है। इसमें प्रशिक्षणार्थी को कक्षा अनुशासनहीनता की वास्तविक समस्या का सामना नहीं करना पड़ता है।
(4) वीडियो टेप की अनुपस्थिति कभी - कभी अभ्यास के दौरान गहन समस्या उत्पन्न कर देती है, क्योंकि वीडियो टेप छात्राध्यापक को प्रत्यक्ष पृष्ठपोषण प्रदान नहीं करती।
(5) वर्तमान परिभाषा के अन्तर्गत सूक्ष्म शिक्षण सम्पूर्ण शिक्षक-प्रशिक्षण प्रणाली का स्थान लेने की क्षमता नहीं रखती है।
(6) वर्तमान शिक्षण प्रशिक्षण महाविद्यालयों में सूक्ष्म शिक्षण का प्रवेश धन की समस्या को जन्म देगा ।
सूक्ष्म शिक्षण की कुछ सीमाएँ या दोष होते हुए भी यह महत्त्वपूर्ण शिक्षण-पद्धति है। सूक्ष्म शिक्षण अनेक शिक्षण सम्बन्धी खोजों में से एक महत्त्वपूर्ण खोज है। यह छात्राध्यापक को स्व-अभ्यास के लिए प्रेरित करके उसका उचित मार्गदर्शन करती है। वर्तमान समय में जबकि प्राचीन पद्धति की चारों ओर आलोचना हो रही है, सूक्ष्म शिक्षण की प्रविधि एक नया समाधान प्रस्तुत करती है ।
(27) प्रश्न 2 (xx1) टेलीकान्फ्रेन्सिंग से लाभ बतलाइए।
(27) प्रश्न 2 (xxi) टेलीकान्फ्रेन्सिंग से लाभ बतलाइए। |
उत्तर-
टेलीकान्फ्रेन्सिंग के निम्नलिखित लाभ हैं-
1. दूरवर्ती अधिगम के लिए प्रभावी सहायक -
टेलीकान्फ्रेन्सिंग का उपयोग उस समय और अधिक बढ़ जाता है, जब इसमें छात्र विभिन्न समुदायों के रूप में दूर-दूर फैले हुए हों। इसमें विभिन्न समुदायों के मध्य विभिन्न केन्द्रों पर फैले हुए व्यक्तियों के मध्य इस प्रकार के विषय या कार्यक्रम दिये गये हों।
2. मूल्य की प्रभावशीलता - दूरवर्ती अधिगमकर्त्ताओं के लिए अन्य विधियों से यह विधि कम खचींली होती है।
3. लचीली प्रणाली - इस प्रकार की प्रणाली को जल्दी से छोटे या बड़े समूहों के रूप में व्यवस्थित किया जा सकता है। यह अधिक लचीली प्रणाली है।
4. सुपरिचित अनुदेशनात्मक प्रणाली - अनुदेशन की यह विधि अन्य विधियों के समान ही है जैसा कि विभिन्न समूहों के मध्य विभिन्न प्रकार के कार्यक्रमों द्वारा आपस में विचार-विमर्श किया जाता है। 5. समय-सारणी को व्यवस्थित करने में सुगमता - इससे पारम्परिक ढंग से न उपलब्ध होनेवाले छात्रों के लिए भी समय-सारणी व्यवस्थित की जा सकती है।
(28) प्रश्न 2 (xx1)सूक्ष्म शिक्षण के सम्प्रत्यय एवं महत्त्व की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
(28) प्रश्न 2 (xxi) सूक्ष्म शिक्षण। |
अथवा
सूक्ष्म शिक्षण के सम्प्रत्यय एवं महत्त्व की संक्षिप्त व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ एवं परिभाषाएँ -
सूक्ष्म शिक्षण का अर्थ है, लघु-पाठ अवधि तथा लघु पाठ्य सामग्री से शिक्षण । सूक्ष्म शिक्षण की यह अवधारणा है कि शिक्षण एक जटिल प्रक्रिया है, जिसे सरल-से-सरल प्रक्रिया में विभाजित किया जा सकता है और सरलतम प्रक्रियाओं की सहायता से वांछित कौशल को विकसित किया जा सकता है।
1. सूक्ष्म शिक्षण की परिकल्पना डॉ० राबर्ट बुश और डॉ० डी० डब्ल्यू0 एलिन ने की थी । इनके अनुसार, “सूक्ष्म शिक्षण एक निर्देशित शिक्षण है ! सूक्ष्म शिक्षण किसी दशा में आकार एवं समय में सूक्ष्म शिक्षण परिस्थिति है । "
2. प्रो0 नरेन्द्र वैद्य, " सूक्ष्म शिक्षण व सूक्ष्मपदीय शिक्षण स्थितियाँ हैं जहाँ वास्तविक कक्षा- शिक्षण की जटिल स्थितियाँ पर्याप्त कम हो जाती हैं। इसके साथ ही शिक्षण अभ्यास की तुलना में पृष्ठपोषण की मात्रा बढ़ जाती है । "
3. क्लिफ्ट, " सूक्ष्म शिक्षण शिक्षक प्रशिक्षण की वह विधि है जिसमें शिक्षण की परिस्थितियों को सरल किया जाता है और शिक्षण व्यवहार के किसी एक विशेष कौशल के अभ्यास से जोड़ दिया जाता है। वह अभ्यास छोटे आकार की कक्षा में अल्प समय में किया जाता है । "
सूक्ष्म शिक्षण के लाभ या महत्त्व --
सूक्ष्म शिक्षण के प्रशिक्षण विधि के रूप में अनेक लाभ हैं -
( 1 ) यह कक्षा - शिक्षण की जटिलताओं को कम करता है।
(2) यह शिक्षण विधि छात्राध्यापक को कम समय में अधिक सिखाती है।
(3) इस विधि के माध्यम से छात्राध्यापक को विद्यालय में सीधा पढ़ाये जाने की अपेक्षा छोटी कक्षा, कम छात्र तथा छोटी पाठ-योजना से अध्यापन कार्य सिखाया जाता है, जो छात्राध्यापक के लिए अत्यन्त उपयोगी सिद्ध होता है।
( 4 ) यह शिक्षण विधि छात्राध्यापकों में आत्मविश्वास जागृत करती है।
(5) छात्राध्यापक क्रमशः अपनी योग्यतानुसार शिक्षण - कौशलों पर अपना ध्यान केन्द्रित करते हुए उन्हें विकसित करता है और सीखने का प्रयत्न करता है।
(6) प्रतिपुष्टि (feedback) सम्पूर्ण तथा सभी दृष्टिकोणों को अंगीकार करती है।
(7) छात्राध्यापक का वस्तुनिष्ठ मूल्यांकन किया जाता है।
(8) मूल्यांकन छात्राध्यापक को अपना पक्ष रखने का पूर्ण अधिकार होता है और मूल्यांकन चरण में उसे संक्रिय रखा जाता है।
(9) निरीक्षक, छात्राध्यापक के परामर्शदाता के रूप में कार्य करता है ।
(10) सूक्ष्म शिक्षण से शिक्षण प्रक्रिया सरल होती है।
(11) सूक्ष्म शिक्षण से व्यावसायिक परिपक्वता विकसित होती है ।
(29) प्रश्न 2 (xx1) सूक्ष्म शिक्षण के सिद्धान्त।
(29) प्रश्न 2 (xxi) सूक्ष्म शिक्षण के सिद्धान्त। |
उत्तर-
एलिन एवं रायन ने सूक्ष्म शिक्षण के निम्नलिखित आधारों का वर्णन किया है-
1. सूक्ष्म शिक्षण एक वास्तविक शिक्षण है।
2. सूक्ष्म शिक्षण सामान्य कक्षा - शिक्षण की जटिलता को कम करता है।
3. सूक्ष्म शिक्षण का मुख्य केन्द्र विशिष्ट कार्य को पूर्ण करने का प्रशिक्षण देना है।
4. सूक्ष्म शिक्षण शिक्षण की प्रक्रिया में पृष्ठपोषण का अधिकाधिक प्रयोग किया जाता है।
सूक्ष्म शिक्षण की प्रक्रिया में निम्नलिखित मुख्य तीन स्तर होते हैं-
(i) ज्ञान प्राप्ति स्तर (ii) कौशल प्राप्त स्तर (iii) स्थानान्तरण स्तर
सूक्ष्म शिक्षण की विशेषताएँ
(1) सूक्ष्म शिक्षण में शिक्षण के तत्त्वों को सूक्ष्म रूप दिया जाता है।
(2) यह व्यक्ति प्रशिक्षण की विधि है ।
(3) यह ऐसा वास्तविक शिक्षण है, जो केन्द्र - बिन्दु प्रशिक्षणार्थियों में शिक्षण - कौशल विकास करता है।
(4) कक्षा के आकार को छोटा कर दिया जाता है अर्थात् मात्र 5 से 10 छात्र ही रखे जाते हैं।
(5) पढ़ाने की अवधि 5 से 10 मिनट की होती है ।
(6) पढ़ाने का प्रकरण आकार में छोटा होता है ।
(7) एक ही शिक्षण कौशल का अभ्यास कराया जाता है।
प्रश्न 3 (xiii) भाषा - प्रयोगशाला क्या है?
उत्तर-
भाषा प्रयोगशाला
भाषा-प्रयोगशाला शिक्षण के क्षेत्र में अन्य दृश्य-श्रव्य उपकरणों की भाँति सहायक मात्र है, न कि अध्यापक/शिक्षा का प्रतिस्थापन । भाषा - प्रयोगशाला एक विशेष कक्ष होता है, जो विविध दृश्य-श्रव्य उपकरणों से युक्त होता है । सामान्यतः एक भाषा - प्रयोगशाला चार, छह, आठ... बत्तीस टेपरिकॉर्डरों का एक क्रमिक व्यवस्थित संयोजन होता है, जिसके माध्यम से शिक्षार्थी / अध्येता भाषा-अध्ययन हेतु विविध तरह के अभ्यास करते हुए भाषा सीखते हैं । संकुचित अर्थ में एक ऐसा कमरा भी भाषा - प्रयोगशाला कहा जा सकता है, जिसमें सिर्फ एक टेपरिकॉर्डर हो तथा जिसके माध्यम से शिक्षार्थी / अध्येता भाषा अभ्यास कार्य करते हों, पर वास्तव में भाषा - प्रयोगशाला एक सामान्य कक्षा का पूरक रूप है, जहाँ शिक्षार्थी सामान्य कक्षा के अध्ययन के अतिरिक्त समय में टेपित पाठों का श्रवण करते हुए अनुकरण आदि के द्वारा भाषा को व्यवहार के स्तर पर सीखते हैं । यहाँ भाषा - कौशलों का विकास किया जाता है।
किसी भाषा प्रयोगशाला की कार्य-प्रणाली उस भाषा - प्रयोगशाला में उपलब्ध दृश्य-श्रव्य उपकरणों की मात्रा एवं गुण पर निर्भर है। जिस भाषा प्रयोगशाला में जो-जो उपकरण उपलब्ध होंगे, उनकी संचालन व्यवस्था एवं संचालन प्रक्रिया उन्हीं के अनुरूप रखनी होगी । विविध तरह के प्रक्षेपकों से आवश्यकतानुसार कक्षा-स्तर के अनुरूप सामग्री का प्रक्षेपण किया जाता है। कमरे में दृश्य सामग्री प्रक्षेपण के समय पर्याप्त अँधेरा होना जरूरी है। बूथों की संख्या के अनुसार मॉनीटर कन्सोल का आकार-प्रकार रखा जाता है। प्रायः 16 बूथोंवाली भाषा - प्रयोगशाला के मॉनीटर कन्सोल में चार बड़े-बड़े टेपरिकॉर्डरों में चार ग्रूपों हेतु एक साथ चार कार्यक्रम तक प्रसारित होने की व्यवस्था हो तो अच्छा है।
प्रश्न 3 (xiv) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान की विशेषताएँ बताइए ।
उत्तर -
शिक्षण के बुनियादी प्रतिमान के अन्तर्गत अनुदेशनात्मक व्यवस्था के सभी आवश्यक अंगों का समावेश है। इसकी महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को इस प्रकार अंकित किया जा सकता है—
1. यह प्रतिमान शिक्षण तथा अधिगम की 'लक्ष्य निर्देशित धारणा' पर विशेष बल देता है। इस बात की पुष्टि इसके प्रथम घटक आयत 'अ' के द्वारा हो जाती है ।
2. यह प्रतिमान शिक्षण-क्रिया का स्वरूप कुछ विशेष निर्णयों एवं उनके अनुकूल सम्पादित कार्यों तथा अभ्यासों के आधार पर घटित होता है न कि शिक्षक एवं विद्यार्थी के व्यक्तिगत अन्तर्सम्बन्धों द्वारा । इसी कारण प्रस्तुत प्रतिमान के अन्तर्गत शिक्षक के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों को महत्त्व नहीं दिया गया है।
3. इस प्रतिमान के अनुसरण हेतु शिक्षक की निपुणता परमावश्यक है। इसमें शिक्षक की प्रभाविता के लिए ‘व्यक्तिगत करिश्मा' की तुलना में 'निपुणता' को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है।किन्तु 'व्यक्तिगत करिश्मा' तथा 'निपुणता' के सम्यक् सम्मिश्रण के प्रति इस मॉडल में कोई विरोध या दुराग्रह नहीं है।
4. इस प्रतिमान का विशेष आकर्षण शैक्षिक नियोजन तथा पाठों की व्यवस्था पर है। इसलिए अनुदेशनात्मक प्रणालियों को परिष्कृत करने तथा उन्हें सम्बन्धित करने के प्रति विशेष चेष्टा विद्यमान है।
5. इस प्रतिमान में शिक्षण एवं पुनर्शिक्षण में क्रम को तब तक चालू रखने की संस्तुति होती है जब तक अपेक्षित अधिगम सम्बन्धी अनुदेशनात्मक उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। इसलिए 'निष्पादन मूल्यांकन' के अनुसार आयत 'अ', 'ब' तथा 'स' तीनों ही संशोधित एवं परिवर्तित किये जाते हैं।
प्रश्न 3 (xv) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान का शिक्षण अधिगम में उपयोग का वर्णन कीजिए।
उत्तर -
शिक्षण अधिगम में बुनियादी शिक्षण प्रतिमान की उपयोगिता अधिक है। इसका कारण यह है कि यह प्रतिमान शिक्षण तथा अधिगम की 'लक्ष्य निर्देशित ' धारणा पर आधारित है । डिसीको एवं क्राकोर्ड के अनुसार, “प्रतिमान में शिक्षण - क्रिया का स्वरूप कुछ विशेष निर्णयों और उनके अनुकूल सम्पादित कार्यों तथा अभ्यासों के आधार पर घटित होता है न कि शिक्षक एवं विद्यार्थी के व्यक्तिगत अन्तर्सम्बन्धों के द्वारा।” इसी कारण इस प्रतिमान में शिक्षक के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों को महत्त्व नहीं दिया गया है। इस प्रतिमान के अनुसरण हेतु शिक्षक की निपुणता परमावश्यक है। इसमें शिक्षण की प्रभावकारिता के लिए शिक्षण की 'व्यक्तिगत करिश्मा' की तुलना में 'निपुणता' को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस प्रतिमान का विशेष आकर्षण शैक्षिक नियोजन तथा पाठों की व्यवस्था पर है। इसलिए अनुदेशनात्मक प्रणालियों को परिष्कृत करने तथा उन्हें सम्बन्धित करने के प्रति इसमें विशेष चेष्टा विद्यमान है। बुनियादी शिक्षण प्रतिमान में शिक्षण एवं पुनर्शिक्षण के क्रम को तब तक चालू रखने की संस्तुति होती है जब तक अपेक्षित अधिगम सम्बन्धी अनुदेशनात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो जाती । इसीलिए ‘निष्पादन मूल्यांकन' के अनुसार अनुदेशनात्मक उद्देश्यों, प्रारम्भिक व्यवहार और अनुदेशनात्मक प्रक्रिया तीनों ही संशोधित एवं परिमार्जित किये जाते हैं।
प्रश्न 3 (xvi) शिक्षण प्रतिमान का अर्थ बताइए।
अथवा
शिक्षण प्रतिमान से आप क्या समझते हैं ? शिक्षण प्रतिमान का कक्षा शिक्षण में क्या महत्त्व है?
उत्तर -
शिक्षण प्रतिमान ऐसे प्रतिमान अथवा व्यवस्थाएँ हैं, जो हमें सीखने के सिद्धान्तों की ओर ले जा रहे हैं। इन्हें कुछ लोग अपूर्ण शिक्षण सिद्धान्त भी कहते हैं। वास्तव में, ये प्रतिमान शिक्षण सिद्धान्तों के निर्माण के लिए प्राथमिक सामग्री तथा वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करते हैं ।
इस प्रकार प्रतिमान शिक्षण के सम्बन्ध में सोचने-विचारने की एक रीति है । यह किसी वस्तु के आन्तरिक गुणों को परखने में आधार का काम करता है । किसी वस्तु को विभाजित तथा व्यवस्थित करके तर्कसंगत ढंग से प्रस्तुत करने की विधि को ही 'प्रतिमान' कहा जाता है। शिक्षण के क्षेत्र में विकसित विभिन्न प्रतिमान सामान्यतया सम्बन्धों तथा अन्तःसम्पर्कों के विषय में बतलाते हैं। यह निरीक्षण तथा प्राप्त अनुभवों का परिणाम है और इस प्रकार उस ताने-बाने के सम्बन्ध में बताते हैं, जो कि हमें उसके कार्यान्वयन की जानकारी देता है। शिक्षण प्रतिमान, शिक्षण सिद्धान्त विकसित करने की ओर एक कदम है। ये शिक्षण सिद्धान्तों को वैज्ञानिक आधार प्रदान करते हैं। ये स्वयं सिद्ध कल्पनाएँ होती हैं, जिनका प्रयोग शिक्षक अपने शिक्षण और अधिगम को प्रभावशाली बनाने के लिए करता है ।
शिक्षण के प्रतिमान का महत्त्व या उपयोगिता
शिक्षण प्रतिमानों की निम्नलिखित उपयोगिता मानी जाती है-
(1) विद्यालयों की शिक्षण व्यवस्था में विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इनको प्रयुक्त किया जा सकता है। इनके द्वारा शिक्षण को अधिक सार्थक तथा प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
(2) विद्यालयों के विभिन्न विषयों के शिक्षण में विशिष्ट प्रतिमानों को ही प्रयुक्त किया जा सकता है।
(4) शिक्षण प्रतिमान अभी जाँच स्तर पर ही हैं। इनके आधार पर शिक्षण - सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जा सकता है।
(3) शिक्षण प्रतिमानों को सामाजिक, व्यक्तिगत, ज्ञानात्मक तथा व्यावहारिक पक्षों के विकास के लिए विकसित किया जाता है। अतः शिक्षण के सभी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इनको प्रयुक्त किया जा सकता है। (4) शिक्षण प्रतिमान अभी जाँच स्तर पर ही हैं। इनके आधार पर शिक्षण - सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जा सकता है।
(5) इन रचना की जा सकती है ।
(6) शिक्षण प्रतिमान शिक्षण-प्रक्रिया में शोध कार्य के लिए विशाल क्षेत्र प्रस्तुत प्रतिमानों से सादृश्य अनुभव ग्रहण कर भारतीय परिस्थिति के लिए अधिक प्रभावशाली प्रतिमानों की करते हैं, जिससे शिक्षण की प्रक्रिया को समझा जा सकता है और उनके चरों का उल्लेख किया जा सकता है।
(7) शिक्षण विधियों में पाठ्य-वस्तु को प्रधानता दी जाती है जबकि शिक्षण प्रतिमानों में उद्देश्यों को प्रधानता दी जाती है जिससे शिक्षण को अधिक सार्थक तथा उपयोगी बनाया जा सकता है।
( 8 ) शिक्षण तथा अधिगम क्रियाओं के सम्बन्ध में विभिन्न परिस्थितियों का भली प्रकार अध्ययन किया जा सकता है।
(9) भारतीय परिस्थिति में कक्षा-शिक्षण की समस्याओं के समाधान के लिए शिक्षण प्रतिमानों को विकसित किया जा सकता है।
(10) मनोवैज्ञानिक शक्तियों को शिक्षण में प्रभावशाली रूप प्रयुक्त करने के लिए नवीन प्रतिमानों का विकास किया जा सकता है।
(11) शिक्षा की मूल्यांकन प्रणाली का विकास किया जा सकता है।
प्रश्न 3 (xvii) शिक्षण प्रतिमान की विशेषताएँ बताइए ।
उत्तर -
शिक्षण प्रतिमानों में सीखने तथा सिखाने की निम्नांकित विशेषताएँ पायी जाती हैं-
(1) प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान के निश्चित आधार होते हैं
। ( 2 ) ये शिक्षक और छात्र दोनों को वांछित अनुभव प्राप्त कराते हैं।
(3) शिक्षण प्रतिमान सामान्यतया शिक्षक के व्यक्तिगत मतों, दर्शन, चिन्तन तथा मूल्यों पर आधारित होते हैं।
(4) शिक्षण प्रतिमान छात्रों की रुचि का विनियोग करते हैं।
(5) प्रत्येक प्रतिमान किसी-न-किसी प्रकार के दर्शन से प्रभावित होता है।
(6) प्रत्येक प्रतिमान कुछ निश्चित शिक्षण सूत्रों का प्रयोग करता है; जैसे- ज्ञात से अज्ञात, स्थूल से सूक्ष्म या सरल से कठिन आदि।
(7) शिक्षण प्रतिमान सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति पर ध्यान देते हैं और मानव योग्यताओं के विकास में सहायता प्रदान करते हैं।
(8) ये दार्शनिक सिद्धान्तों तथा मनोवैज्ञानिक नियमों पर आधारित होते हैं।
(9) प्रतिमानों का विकास निरन्तर अभ्यास, अनुभव, साधना और प्रयोगों के पश्चात् होता है।
(10) शिक्षण प्रतिमान शिक्षण-प्रक्रिया का व्यावहारिक पक्ष कहलाता है, जो शिक्षक के व्यक्तित्व से विकसित होता है।
(11) शिक्षण प्रतिमान शिक्षण को एक कला के रूप में विकसित करने में पूर्ण सहायता देते हैं ।
(12) ये शिक्षक के व्यक्तित्व की गुणात्मक उन्नति करने की ओर प्रयत्नशील होते हैं।
(13) ये शिक्षण-अधिगम सिद्धान्तों का आधार लेकर बनाये जाते हैं (शिक्षण प्रतिमान तथा शिक्षण अधिगम सिद्धान्त दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं) ।
(14) शिक्षण प्रतिमान कुछ निश्चित आधारभूत प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ होते हैं।
प्रश्न 3 (xviii) शिक्षण प्रतिमानों के तत्त्व क्या हैं?
अथवा
शिक्षण प्रतिमान के आधारभूत तत्त्वों की व्याख्या कीजिए।
अथवा शिक्षण प्रतिमान के चार तत्त्व।
अथवा शिक्षण प्रतिमान के आधारभूत तत्त्व क्या हैं?
उत्तर -
सिखाने हेतु शिक्षण प्रतिमान के अग्रलिखित चार मौलिक तत्त्व होते हैं-
1. उद्देश्य -
प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य होता है, जिसे उसका लक्ष्य बिन्दु कहते हैं। इसी लक्ष्य बिन्दु को ध्यान में रखकर प्रतिमान को विकसित किया जाता है। दूसरे शब्दों में शिक्षण प्रतिमान का उद्देश्य (Focus) उस बिन्दु को कहते हैं जिसके लिए प्रतिमान का विकास किया जाता है। स्मरण रहे कि प्रतिमान के विभिन्न पक्ष (Phases) होते हैं, अतः इनके द्वारा विशेष प्रकार की क्षमताओं को विकसित किया जाता है।
2. संरचना -
संरचना से अभिप्राय शिक्षण प्रतिमानों के उन बिन्दुओं से है, जो शिक्षण की विभिन्न अवस्थाओं में निर्धारित लक्ष्यों या उद्देश्यों के अनुसार केन्द्रित क्रियाएँ उत्पन्न करते हैं। दूसरे शब्दों में शिक्षण प्रतिमान की संरचना से यह पता चलता है कि शिक्षण की क्रियाओं, नीतियों, युक्तियों तथा अन्तः क्रियाओं को किस प्रकार से क्रमबद्ध किया जाना चाहिए, ताकि वांछित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। यह विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण से सम्बन्धित है ।
3. सामाजिक प्रणाली -
प्रत्येक प्रतिमान की अपनी एक सामाजिक प्रणाली होती है, जो हमें यह बताती है कि छात्र और शिक्षकों के मध्य क्रिया तथा अन्तःक्रिया का आयोजन किस प्रकार से किया जाना चाहिए, जिससे छात्रों के व्यवहार पर नियन्त्रण रखा जा सके, साथ ही उनमें वांछित परिवर्तन भी लाया जा सके । सामाजिक प्रणाली हमें अभिप्रेरणा देनेवाली प्रविधियों के बारे में भी बताती है । प्रत्येक प्रतिमान यह मानकर चलता है कि प्रत्येक कक्षा एक समाज है और उस समाज के नियन्त्रण तथा सुधार के लिए कोई-न-कोई निश्चित प्रकार की सामाजिक प्रणाली अवश्य अपनानी चाहिए, जिससे शिक्षण व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रहे ।
प्रश्न 3 (xix) शिक्षण प्रतिमानों के प्रकार बताइए ।
उत्तर -
आजकल जितने भी अधिगम हेतु शिक्षण प्रतिमान विशेष रूप से शिक्षण तथा प्रशिक्षण के क्षेत्र में प्रचलित हैं, उन सभी को जोयस (Joyce 1977) ने चार वर्गों में वर्गीकृत किया है। जोयस इसका निम्नलिखित प्रकार वर्गीकरण करते हैं-
1. ऐतिहासिक शिक्षण प्रतिमान -
(1) सुकरात का शिक्षण प्रतिमान,
(2) परम्परागत मानवीय शिक्षण प्रतिमान,
( 3 ) व्यक्तिगत विकास शिक्षण प्रतिमान |
2. मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान - (1) मौलिक शिक्षण प्रतिमान (2) कम्प्यूटर आधारित शिक्षण प्रतिमान, (3) विद्यालय अधिगम शिक्षण प्रतिमान, (4) अन्तःप्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान |
3. अध्यापक शिक्षा के लिए शिक्षण प्रतिमान - (1) तेबा का शिक्षण प्रतिमान, (2) टर्नर का शिक्षण प्रतिमान, (3) शिक्षक अभिविन्यास शिक्षण प्रतिमान, (4) फाक्स लिपिक शिक्षण प्रतिमान |
4. आधुनिक शिक्षण प्रतिमान- आधुनिक शिक्षण प्रतिमान निम्नलिखित हैं-
(क) अन्तः प्रक्रिया स्त्रोत - (1) सामूहिक अन्वेषण प्रतिमान, (2) जूरिस प्रूडेन्शियल प्रतिमान, (3) सामाजिक अन्वेषण प्रतिमान, (4) प्रयोगशाला विधि प्रतिमान ।
(ख) सूचना प्रक्रिया स्त्रोत - उपलब्धि प्रत्यय प्रतिमान, (2) आगमन प्रतिमान, (3) पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान, (4) जैविक विज्ञान पृच्छा प्रतिमान ( 5 ) अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान, (6) विकासात्मक प्रतिमान या प्रभावी अधिगम प्रतिमान |
(ग) व्यक्तिगत स्त्रोत - ( 1 ) दिशाविहीन शिक्षण प्रतिमान, (2) कक्षा - सभा प्रतिमान, (3) सृजनात्मक शिक्षण प्रतिमान, ( 4 ) जागरूकता प्रतिमान, (5) प्रत्यक्ष व्यवस्था प्रतिमान ।
(घ) व्यवहार परिवर्तन स्रोत - (1) सक्रिय अनुबन्धन प्रतिमान |
(ङ) चार -पदीय शिक्षण प्रतिमान - (1) पाम्प एवं बकर प्रतिमान, (2) सामान्य शिक्षण प्रतिमान, (3) तार्किक शिक्षण प्रतिमान |
प्रश्न 3 (xx ) बुनियादी शिक्षण-प्रतिमान का शिक्षण-अधिगम में क्या उपयोग है? स्पष्ट कीजिए।
उत्तर -
शिक्षण अधिगम में बुनियादी शिक्षण प्रतिमान की उपयोगिता अधिक है। इसका कारण यह है कि यह प्रतिमान शिक्षण तथा अधिगम की 'लक्ष्य निर्देशित ' धारणा पर आधारित है। डीसीको एवं क्राफोर्ड के अनुसार, “प्रतिमान में शिक्षण-क्रिया का स्वरूप कुछ विशेष निर्णयों और उनके अनुकूल सम्पादित कार्यों तथा अभ्यासों के आधार पर घटित होता है न कि शिक्षक एवं विद्यार्थी के व्यक्तिगत अन्तर्सम्बन्धों के द्वारा ।” इसी कारण इस प्रतिमान में शिक्षक के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों को महत्त्व नहीं दिया गया है। इस प्रतिमान के अनुसरण हेतु शिक्षक की निपुणता परमावश्यक है। इसमें शिक्षण की प्रभावकारिता के लिए शिक्षण की 'व्यक्तिगत करिश्मा' की तुलना में 'निपुणता' को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है । इस प्रतिमान का विशेष आकर्षण शैक्षिक नियोजन तथा पाठों की व्यवस्था पर है। इसलिए अनुदेशनात्मक प्रणालियों को परिष्कृत करने तथा उन्हें सम्बन्धित करने के प्रति इसमें विशेष चेष्टा विद्यमान है। बुनियादी शिक्षण प्रतिमान में शिक्षण एवं पुनर्शिक्षण के क्रम को तब तक चालू रखने की संस्तुति होती है जब तक अपेक्षित अधिगम सम्बन्धी अनुदेशनात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो जाती। इसीलिए ‘निष्पादन मूल्यांकन' के अनुसार अनुदेशनात्मक उद्देश्यों, प्रारम्भिक व्यवहार और अनुदेशानात्मक प्रक्रिया तीनों ही संशोधित एवं परिमार्जित किये जाते हैं।
प्रश्न 3 (xxi) अन्तर्क्रिया प्रतिमान की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
अन्तर्क्रिया प्रतिमान की विशेषताएँ- फ़्लैण्डर का दृढ़ मत है क्रि “शिक्षण-व्यवहार का परिप्रेक्ष्य पूर्णतः सामाजिक होता है और उसमें होनेवाली अन्तर्क्रिया को ही शिक्षा मानना चाहिए। यह अन्तर्क्रिया शिक्षक एवं छात्र की पहल एवं अनुक्रिया द्वारा सम्पन्न होती है।” इस प्रकार अन्तर्क्रिया की निम्नलिखित विशेषताएँ मानी जा सकती हैं-
1. इस प्रतिमान के अनुसार शिक्षक तथा छात्रों के मध्य परस्पर सम्पर्क या आदान-प्रदान को कई क्रमिक घटनाओं के रूप में देखा जा सकता है। ये घटनाएँ कक्षा की अन्तर्क्रियात्मक परिस्थिति में एक-दूसरे के व्यवहार को पूर्वापर ढंग से प्रभावित करती रहती हैं। छात्रों में अधिगम उत्पन्न करने के लिए इनका विशेष महत्त्व है।
2. यह प्रतिमान इस बात पर बल देता है कि अधिगम क्रिया के प्रारम्भिक क्षणों में शिक्षक को अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के अतिरिक्त परोक्ष व्यवहार का ही अधिक प्रयोग करना चाहिए ।
3. शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के सम्बन्ध में इस प्रतिमान का मुख्य आग्रह यह है कि किसी भी विशिष्ट अनुदेशनात्मक पद्धति का प्रयोग न तो सम्भव है और न आवश्यक है। इसलिए इस प्रतिमान के अन्तर्गत शिक्षण या अनुदेशन के उद्देश्यों का पूर्व निर्धारण भी किया जाता है।
4. अन्तर्क्रिया प्रतिमान के लिए जिन युक्तियों एवं रचना - कौशलों का प्रयोग किया जा सकता है वे प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दोनों ही रूपों में प्रयुक्त हो सकते हैं। शिक्षक द्वारा अनुप्रयुक्त व्यवहार छात्रों की पराश्रयता और उनकी उपलब्धि को बढ़ाता है जबकि शिक्षक द्वारा अनुप्रयुक्त परोक्ष व्यवहार उनकी पराश्रयता को कम करता तथा उपलब्धि को बढ़ाता है ।
5. इस प्रतिमान के अन्तर्गत शिक्षण का स्वरूप शिक्षण उद्देश्यों तथा शिक्षण के रचना - कौशलों से प्रभावित न होकर शिक्षक - छात्र अन्तर्क्रिया एवं उनकी मात्रा पर निर्भर होता है। इसलिए कक्षा - शिक्षक को एक खुले वातावरण के रूप में रखने की संस्तुति की जाती है।
प्रश्न 4 (i) पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान क्या है?
उत्तर-
इस प्रतिमान का विकास रिचर्ड सकमैन ने किया है। इसमें व्यक्तिगत क्षमताओं का विकास किया जाता है जिससे वह सामाजिक क्षमताओं का विकास और समायोजन कर सके ।
उद्देश्य - व्यक्तिगत क्षमताओं का विकास कराना तथा सिद्धान्तों का बोध कराना इस प्रतिमान के प्रमुख उद्देश्य हैं।
Steps :
I. समस्या, II. समस्या से सम्बन्धित सूचनाओं का संकलन, III. आव्यूह का चुनाव ।
संरचना - इस प्रतिमान में तीन सोपानों का प्रयोग किया जाता है। प्रथम सोपान में समस्या को पहचानना जिसमें छात्र तनाव का अनुभव करें। द्वितीय सोपान में छात्र समस्या के सम्बन्ध में सूचनाओं का संकलन करना। शिक्षक से छात्र स्वयं वातावरण की अन्तःप्रक्रिया से प्रत्ययों को एकत्रित कर लेते हैं। तनाव की परिस्थिति के समाधान के लिए परिकल्पनायें प्रस्तुत करने के लिए दिशा प्रदान करता है।
तृतीय सोपान में छात्र तथा शिक्षक दोनों ही मिलकर समस्या के लिए समुचित आव्यूह के सम्बन्ध में निर्णय लेते हैं। इसके द्वारा छात्रों में कारण प्रभाव और उनमें सम्बन्ध स्थापित करने की क्षमताओं का विकास होता है।
सामाजिक प्रणाली- कक्षा का वातावरण ऐसा होता है कि शिक्षक और छात्र एक-दूसरे को सहयोग देते हैं। शिक्षक का दृष्टिकोण आलोचनात्मक होता है। शिक्षक समस्त क्रियाओं को नियन्त्रित करता है। शिक्षक बौद्धिक वातावरण उत्पन्न करने का प्रयास करता है। शिक्षक छात्रों को सूचनायें एकत्रित करने के लिए प्रोत्साहित करता है। शिक्षक द्वितीय एवं तृतीय सोपान में अधिक क्रियाशील रहता है और सूचनायें एकत्रित करने में छात्रों की सहायता भी करता है।
मूल्यांकन प्रणाली - यह प्रतिमान पाठ्य वस्तु से सम्बन्धित विशेष प्रकार की समस्याओं के शिक्षण के लिए प्रयुक्त किया जाता है। छात्रों को समस्याओं की अनुभूति कराने के लिए शिक्षक अनेक उदाहरण प्रस्तुत करता है। प्रशिक्षण में उनकी आवश्यकताओं का उल्लेख करता है । इसके मूल्यांकन के लिए प्रयोगात्मक परीक्षायें प्रयुक्त की जाती हैं और यह ज्ञात किया जाता है कि छात्र अपनी समस्याओं का समाधान करके अपने कार्य को कितने प्रभावशाली ढंग से कर सकते हैं।
प्रयोग --इस प्रतिमान का प्रयोग वैज्ञानिक विषयों के बोध के लिए किया जाता है जिससे छात्र अपनी सूचनाओं का विश्लेषण करें तथा अन्य आव्यूहों से तुलना करें। इसमें पारस्परिक सम्बन्धों का विकास होता है।
प्रश्न 4 (ii) प्रभुत्व या पूर्णज्ञान अधिगम प्रतिमान क्या है?
उत्तर -
यह मॉडल जॉन बी. कारूल तथा बेंजामिन ब्लूम द्वारा 1971 में प्रस्तुत किया गया था। यह प्रतिमान छात्रों द्वारा विषय में संतोषजनक अधिगम प्राप्त करने के उद्देश्य से बनाया गया है। यह प्रतिमान इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक छात्र अपनी गति से सीखते हैं, कुछ जल्दी तथा कुछ धीमे । किन्तु यदि हम उचित अधिगम सामग्री, निश्चित निर्देशों के साथ अधिक समय के लिए छात्रों को प्रदान करेंगे तो सभी छात्र अपनी क्षमता के अनुसार कम या अधिक समय में विषय पर स्वामित्व अवश्य प्राप्त कर लेंगे ।
यह प्रतिमान छात्रों को अपनी गति से अपनी क्षमता के अनुसार सीखने के व्यक्तिगत अवसर प्रदान करता है।
उद्देश्य-संक्षिप्त सुसम्बन्ध, नियोजित तथा रुचिपूर्ण विधि द्वारा छात्रों का अधिगम स्वामित्व प्रदान करने के व्यक्तिगत अवसर प्रदान करना ।
संरचना - इस प्रतिमान की संरचना / प्रारूप इस प्रकार है-
(1) छात्रों को स्वयं अपनी गति से सीखने अनुरूप प्रदान करना।
(2) छात्रों को विषय विशेष में अधिगम स्वामित्व प्रदान करना ।
(3) छात्रों में स्वयं -अनुक्रिया तथा स्वयं
दिशा-निर्देशन के गुणों का विकास करना । (4) छात्रों को स्व-मूल्यांकन एवं सीखने के लिए प्रेरित करना। तकनीकी की सहायता से सीखने की प्रक्रिया को रोचक एवं व्यक्तिगत आधार प्रदान करना।
उदाहरण - अभिक्रमित अनुदेशन प्रणाली इसी प्रतिमान पर आधारित है।
(1) इस प्रतिमान में विषय-वस्तु को सूक्ष्म किन्तु क्रमित इकाइयों में विभाजित किया जाता है।
(2) प्रत्येक इकाई के उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं ।
(3) इकाइयों के अनुसार अधिगम सामग्री का निर्माण किया जाता है ।
(4) प्रत्येक इकाई के बाद उसका वस्तुनिष्ठ निदानात्मक परीक्षण का निर्माण किया जाता है।
(5) प्रत्येक इकाई को सफलतापूर्वक पूर्ण करने पर पुनर्बलन प्रदान किया जाता है।
सामाजिक प्रणाली -
यह प्रतिमान इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक छात्र अपनी गति से सीखता है। अतः इस प्रतिमान को अपनाने के लिए छात्रों को सीखने के व्यक्तिगत अवसर प्रदान करने होंगे। कक्षा में ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिसमें छात्रों को सीखने का अधिकतम समय दिया जाए।
मूल्यांकन प्रणाली-
इसमें प्रत्येक इकाई का मूल्यांकन किया जाता है। यह साधारण मूल्यांकन न होकर निदानात्मक रूप में होता है। अर्थात् प्रत्येक छात्र का मूल्यांकन व्यक्तिगत रूप से किया जाता है तथा उसे स्वमूल्यांकन के लिए प्रेरित किया जाता है, इस मूल्यांकन का उद्देश्य अधिगम में आने वाली कठिनाइयों को दूर कर उसे अधिगम - स्वामित्व प्रदान करता है।
प्रयोग-अभिक्रमित अनुदेशन प्रणाली, व्यक्तिगत निर्देशन प्रणाली इसी प्रतिमान पर आधारित हैं
प्रश्न 4 (iii) प्रत्यय निष्पत्ति प्रतिमान क्या है?
उत्तर- प्रत्यय निष्पत्ति प्रतिमान का विकास जे. ब्रूनर ने किया था। यह आगमन तर्क के विकास के लिए उपयोगी है।
(1) उद्देश्य - इस प्रतिमान द्वारा भाषा का बोध तथा कौशल का विकास किया जाता है। प्रमुख रूप से इसका उद्देश्य आगमन तर्क का विकास करना है ।
(2) संरचना- इसमें चार सोपानों का अनुसरण किया जाता है।
प्रथम सोपान - प्रदत्तों का प्रस्तुतीकरण किया जाता है, जिसमें उदाहरणों का उल्लेख करने से प्रत्ययों का विकास किया जाता है।
द्वितीय सोपान - छात्र प्रत्यय की व्यूह रचना का विश्लेषण करता है। इसमें छात्र अपने सीखने की गति का विकास करता है ।
तृतीय सोपान-छात्र प्रत्ययों के विश्लेषण का आलेख लिखित रूप में प्रस्तुत करता है। इस सोपान का लक्ष्य ज्ञान वृद्धि करना है।
चतुर्थ सोपान - छात्र प्रत्ययों के लिए अभ्यास करते हैं। छात्रों को प्रत्यय विकास में सहायता दी जाती है।
(3) सामाजिक प्रणाली - इस प्रतिमान के आरम्भ में शिक्षक (Social System) छात्रों की अधिक सहायता करता है। उन्हें प्रोत्साहित करता है । अन्त में शिक्षक छात्रों को ऐसी दिशा प्रदान करता है कि छात्र अपने प्रत्ययों तथा व्यूह रचना का विश्लेषण आरम्भ कर देते हैं। शिक्षक छात्रों को विश्लेषण करने के लिए अभिप्रेरणा भी देता है। छात्र सबसे सरल एवं प्रभावशाली व्यूह रचना का चयन करता है
- (4) मूल्यांकन प्रणाली - इस प्रतिमान में पाठ्य वस्तु की व्यवस्था इस प्रकार से की जाती है कि प्रत्ययों का बोध हो सके। अतः इसमें इस प्रकार की व्यूह रचना की जाती है जिससे नवीन प्रत्ययों का बोध कराया जा सके। मूल्यांकन में वस्तुनिष्ठ तथा निबन्धात्मक परीक्षाओं को प्रयुक्त किया जा सकता है। लिखित परीक्षायें ही अधिक उपयोगी मानी जाती हैं।
(5) प्रयोग - इसका प्रयोग व्यापक रूप में किया जाता है। भाषा के सीखने तथा प्रत्यय भाषा - विज्ञान तथा व्यवहार के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतिमान माना जाता है। जब कभी शिक्षक अपने शिक्षण से छात्रों को किसी तथ्य का बोध सही से नहीं करा पाते तब यही प्रतिमान प्रयुक्त किया जाता है। इसका प्रयोग दूरदर्शन पर भी किया जा सकता है।
प्रश्न 4 (iv) एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर क्या है?
उत्तर- एप्लीकेशन सॉफ्टेवयर - यह किसी विशिष्ट कार्य को पूर्ण करने के लिए लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता है। कुछ सामान्यतया प्रयोग में आने वाले सॉफ्टवेयर निम्न हैं- (a) Word उ Processing Software, (b) Data base Software, (c) Spead sheet Software, (d) Games, (e) Web browsers.
प्रश्न 4 (v) पृच्छा शिक्षण प्रतिमान का वर्णन कीजिए।
उत्तर- पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान -
इस प्रतिमान के प्रतिपादक रिचर्ड सचमैन हैं। इन्होंने इसका प्रतिपादन 1966 में किया था। डॉ. एस. पी. कुलश्रेष्ठ कहते हैं कि, "यह प्रतिमान बालक के वैयक्तिक विकास एवं मानसिक क्षमताओं में अभिवृद्धि लाता है जिससे बालकों की वैज्ञानिक दिशा एवं प्राकृतिक शक्तिशाली खोजों के लिए प्रशिक्षण प्राप्त हो सके। "
यह प्रतिमान वैज्ञानिक विचारधारा पर आधारित है जो विद्वत्तापूर्ण पूछताछ के लिए प्रशिक्षित करता है। इसमें छात्रों को शंका समाधान के पूर्ण अवसर दिये जाने चाहिये तथा अनुशासित रहते हुए अपनी शंकाओं का समाधान करते रहना चाहिये । सचमैन का विश्वास अथवा मानना था कि "बालक का स्वभाव से ईमानदार एवं जिज्ञासु प्रवृत्ति का होना आवश्यक है। पूछताछ की प्रक्रिया से बच्चों में पूछताछ के कौशल का विकास होता है । "
इस प्रतिमान का प्रमुख लक्ष्य विद्यार्थी में पूछताछ की कुशलता का विकास करना है ताकि वह सामाजिक क्षमताओं का विकास और समायोजन कर सके। इसका विकास सीखने इच्छुक व्यक्तियों के लिए किया गया है। सचमैन का विचार था कि ज्ञान परिवर्तनशील है यह स्थायी न होकर परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तित होता रहता है। इसी कारण व्यक्ति में कुछ न कुछ सीखने की इच्छा निरन्तर रहती है। वह अपनी जिज्ञासा को शान्त करने हेतु पूछताछ करता रहता है । जिस प्रकार वैज्ञानिक किसी नये नियम या सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं उसी प्रकार छात्र भी वैज्ञानिक ढंग से पूछताछ द्वारा समस्या की जाँच करते हैं। जाँच करने की यह प्रक्रिया ही पूछताछ प्रशिक्षण है। सचमैन कहते हैं कि छात्रों को स्वतंत्रतापूर्वक पूछताछ के अवसर देने चाहिए लेकिन क्रमबद्धता व अनुशासन का ध्यान रखा जाये ।
प्रश्न 4 (vi) कम्प्यूटर की उपयोगिता बताइए |
अथवा शिक्षा में कम्प्यूटर्स की उपयोगिता की विवेचना कीजिए।
अथवा शिक्षा में कम्प्यूटर की उपयोगिता की संक्षिप्त में व्याख्या कीजिए।
अथवा शिक्षा में कम्प्यूटरों के उपयोग की विवेचना कीजिए ।
उत्तर-
(i) घर-घरों में भी इसका स्थान महत्त्वपूर्ण है। घरेलू मशीनों के संचालन में यह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके अतिरिक्त इंटरनेट के द्वारा कई प्रकार की उपयोगी जानकारियाँ उपलब्ध होती हैं। पैंसों का हिसाब-किताब, शैक्षिक क्षेत्र, मनोरंजन आदि में कम्प्यूटर अच्छा कार्य करता है।
(ii) इंजीनियरिंग ग्राफिक्स- ग्राफिक्स के द्वारा नई-नई डिजाइन को सरलता से बनाया एवं परिवर्धित भी किया जाता है।
(iii) पत्रकारिता-विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं अखबारों के प्रकाश में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है।
(iv) बैंक - बैंक तो कम्प्यूटर के बिना पंगु है ।
(v) विभिन्न अनुसन्धान - विभिन्न प्रकार के अनुसंधान में कम्प्यूटर प्रयोग बहुत ज्यादा होता है
। (vi) स्वास्थ्य - अस्पताल में विभिन्न तरह के रिकार्ड, दवाइयों का निर्माण, स्वास्थ्य सम्बन्धी मशीनों का संचालन आदि का कार्य कम्प्यूटर के द्वारा सुगमता से होता है।
(vii) शिक्षा - शिक्षा में तो इसका प्रयोग अनगिनत है। विद्यालयों में तो आजकल उपस्थिति, परीक्षा परिणाम, शिक्षण कार्य सम्बन्धी तथ्यों का लेखा-जोखा इसके द्वारा सरलता से होता है । प्रतियोगी परीक्षाओं में तो कम्प्यूटर के बिना परिणाम निकालना अत्यधिक कठिन है। नवीन अनुसन्धानों में कम्प्यूटर अत्यधिक योगदान देता है। इसके द्वारा नवीन खोजों को प्रिन्ट करके सरलता से जन सामान्य तक पहुँचाया जा सकता है । विद्यार्थी इसके प्रयोग में नई-नई बातें सरलता से सीख लेते हैं।
(viii) अंतरिक्ष विज्ञान - अंतरिक्ष में यात्रा कम्प्यूटर के उपयोग के बगैर असम्भव है। गणनाओं से लेकर नवीनतम भविष्यवाणियाँ एवं सम्भावनाओं से हमें कम्प्यूटर ही परिचित कराता है।
(ix) ऑफिस - निजी एवं सरकारी ऑफिस में कम्प्यूटर अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पुराने समय में फाइलों का गट्ठर बना रहता था। आजकल तो सब एक चिप में आ जाता है। यही नहीं उसकी नई कॉपी भी उपलब्ध हो सकती हैं । लेखा विभाग कार्य के लिए कम्प्यूटर एक वरदान की तरह है।
(x) हवाई यात्रा - हवाई जहाज को उड़ान भरने से लेकर टिकट की बुकिंग तक सभी क्रियाओं का संचालन कम्प्यूटर के बिना सम्भव नहीं ।
(xi) रेलवे - रिजर्वेशन - विश्व में चलने वाली लाखों रेलगाड़ियों में सफर करने वाले करोड़ों यात्री कम्प्यूटर के बगैर सुविधाजनक तरीके से यात्रा नहीं कर सकते। टिकट लेना, कैन्सिल कराना आदि इसके बगैर श्रमसाध्य है ।
प्रश्न 4 (viii) सम्प्रेषण से आप क्या समझते हैं? सम्प्रेषण के प्रमुख प्रतिमानों का वर्णन कीजिए।
उत्तर- सम्प्रेषण का अर्थ एवं परिभाषा
सम्प्रेषण के लिए अंग्रेजी भाषा में 'Communication' शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के 'Communis' शब्द से हुई है । 'Communis' शब्द का अर्थ है 'जानना या समझना'। 'Communis' शब्द को 'Common ' शब्द से लिया गया है। सम्प्रेषण का अर्थ हैं किसी विचार या तथ्य को कछ व्यक्तियों में सामन्यतया 'Common' बना देना। इस प्रकार सम्प्रेषण या संचार शब्द से आशय है, तथ्यों, सूचनाओं, विचारों आदि को भेजना या समझना ।
इस प्रकार सम्प्रेषण एक द्विमार्गी प्रक्रिया है जिसके लिये आवश्यक है कि यह सम्बन्धित व्यक्तियों तक उसी अर्थ में पहुँचे जिस अर्थ में सम्प्रेषणकर्ता ने अपने विचारों को भेजा है।
यदि सन्देश प्राप्तकर्ता, सन्देश वाहक द्वारा भेजे गये सन्देश को उस रूप में ग्रहण नहीं करता है, तो सम्प्रेषण पूरा नहीं माना जायेगा । अतः सम्प्रेषण का अर्थ विचारों तथा सूचनाओं को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक इस प्रकार पहुँचाना है कि वह उसे जान सके तथा समझ सके ।
एडविन बी. फिलप्पों के शब्दों में, “संदेश सम्प्रेषण या संचार अन्य व्यक्तियों को इस तरह प्रोत्साहित करने का कार्य है, जिससे वह किसी विचार का उसी रूप में अनुवाद करे जैसा कि लिखने या बोलने वाले ने चाहा है।” अतः सम्प्रेषण एक ऐसी कला है जिसके अन्तर्गत विचारों, सूचनाओं, सन्देश एवं सुझावों का आदान प्रदान चलता है।
सम्प्रेषण के प्रतिमान
1. शैमन - वीवर प्रतिमान- सम्प्रेषण के सन्देशबद्ध सिद्धान्त का प्रतिपादन शैमन-वीवर द्वारा किया गया। शैमन - वीवर के अनुसार सम्प्रेषण प्रक्रिया में पाँच तत्व निहित हैं जो सूचना स्रोत से प्रारम्भ होकर प्रेषक द्वारा कोलाहल स्रोत को पार करते हुए सन्देश के रूप में उनके लक्ष्य तक प्राप्तकर्ता के पास सम्प्रेषित होते हैं।
2. सूचना स्त्रोत - यह सम्प्रेषण प्रक्रिया का प्रारम्भ है जो आज के वैज्ञानिक युग में सूचना एक साधन बन चुकी है। प्रबन्धन को उचित निर्णय लेने में सूचना अनिवार्य भूमिका निभाती है। अतः सूचना ही एक ऐसा स्रोत है जिसके द्वारा व्यक्तियों की सोच-समझ को परिवर्तित किया जा सकता है । सम्प्रेषण प्रक्रिया में सूचना स्रोत से ही मनुष्य के मस्तिष्क में विचारों की उत्पत्ति होती है जो सन्देश के रूप में परिवर्तित होकर अपने गन्तव्य स्थान तक पहुँचता है |
3. प्रेषक - जिस व्यक्ति द्वारा संदेश को प्रेषित किया जाता है, वह सम्प्रेषण में प्रेषक कहलाता है। शैमन तथा वीवर मॉडल के अनुसार सम्प्रेषण में प्रेषक की अहम भूमिका होती है जो सूचना स्रोत से विचारों को एकत्रित करके सम्प्रेषण के माध्यम से संदेश को उनके प्राप्तकर्ता तक पहुँचाता है। प्रेषक संदेश को संदेशबद्ध करके भेजता है।
4. कोलाहल स्रोत - इस मॉडल में कोलाहल या शोर स्रोत को भी महत्व दिया गया है । सम्प्रेषण प्रक्रिया में जिस माध्यम से सन्देश प्रेषित होते हैं, उसमें शोरगुल का पाया जाना स्वाभाविक है जिसकी वजह से सन्देश में अशुद्धि भी हो सकती है।
5. प्रापक - सम्प्रेषण का उद्देश्य सन्देश को किसी अन्य तक पहुँचाना होता है। जिसके पास सन्देश प्रेषित किया जाता है, वह सन्देश का प्रापक या प्राप्तकर्ता होता है।
6. लक्ष्य - यह संचार प्रक्रिया की अंतिम कड़ी है जिसको आधार बनाकर सन्देश देने वाला अपना सन्देश देकर अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति करता है ।
7. सन्देश - एक ऐसी सूचना जिसे प्रेषक प्राप्तकर्ता के पास भेजना चाहता है वह सन्देश कहलाती है।
प्रश्न 4 (ix) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान के उद्देश्य एवं संरचना बताइए।
उत्तर-
बुनियादी शिक्षण-प्रतिमान को William Robert Glaser ने 1962 में प्रस्तुत किया था। इस प्रतिमान का केन्द्र-बिन्दु कक्षा-कक्ष में होने वाले क्रियाकलाप तथा कक्षा-कक्ष के बुनियादी पहलुओं पर विचार करना है। उन्होंने कक्षा में शिक्षक तथा छात्र के मध्य होने वाले सामाजिक सम्बन्धों में सुधार द्वारा शिक्षण प्रक्रिया को बेहतर बनाने पर जोर दिया है। इसे प्राथमिक शिक्षण प्रतिमान, कक्षा-कक्ष सभा शिक्षण प्रतिमान तथा मौलिक शिक्षण प्रतिमान के नाम से जाना जाता है ।
उद्देश्य -
छात्र सहभागिता तथा शिक्षक छात्र के माध्य सामाजिक सम्बन्धों को बढ़ाना। छात्र एवं शिक्षक के मध्य अनुशासनबद्धता तथा पारस्परिक स्नेह द्वारा अधिगक को बढ़ावा देना । ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक पक्ष का सम्यक विकास ।
संरचना- इसमें निम्न चरण होते हैं-
(i) शिक्षक एवं छात्र के मध्य एकाग्रपूर्ण, सहभागितापूर्ण उत्कृष्ट परिवेश का निर्माण करना ।
(ii) समस्या का परिभाषीकरण, प्रस्तुतिकरण तथा वाद-विवाद द्वारा समस्या निवारण की पृष्ठभूमि बनाना ।
(iii) स्वस्थ वातावरण में वाद-विवाद के उपरान्त मूल्यों का निर्धारण करना ।
समस्या-समाधान के विकल्पों का चुनाव करना शिक्षक शिक्षार्थी दोनों की भागीदारी सुनिश्चित करना।
समस्या-समाधान हेतु आपसी सहमति से वचनबद्ध होना ।
समस्या-समाधान से सम्बन्धित निर्णयों का अनुसरण करना ।
सामाजिक प्रणाली -
शिक्षक और शिक्षार्थी परस्पर सहयोग द्वारा समस्या का समाधान ढूँढ़ते हैं। शिक्षक शिक्षण अधिगम के लिए उपयुक्त परिवेश का सृजन करता है। छात्रों की निष्पत्ति को बढ़ाने के लिए पुरस्कार एवं दण्ड की व्यवस्था करता है। शिक्षक की भूमिका स्नेह एवं अनुशासन द्वारा छात्रों के अधिगम को प्रभावी बनाना है ।
मूल्यांकन -
छात्रों की बौद्धिक क्षमता तथा निर्णय लेने की क्षमता का आकलन किया जाता है. इसके लिए निबन्धात्मक तथा वस्तुनिष्ठ दोनों प्रकार के परीक्षण का प्रयोग किया जाता है।
उपयोग- इसका उपयोग छात्रों के व्यक्तिगत गुणों के विकास हेतु किया जाता है, विशेषकर दायित्व-निर्वहन। इससे छात्र स्वयं तथा सहयोगियों के व्यवहार का आंकलन कर सकते हैं।
प्रश्न 4 (x) शैक्षिक उपग्रह किसे कहते हैं?
उत्तर-
विश्व का सर्वप्रथम स्पूतनिक था जिसे रूस द्वारा 1957 में अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया था। तत्पश्चात् अनेक उपग्रह भिन्न उद्देश्यों, जैसे, रिमोट सेंसिंग, दूर सम्प्रेषण या मौसम की जानकारी हेतु पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किये गये । वास्तव में उपग्रह प्रणाली में उपग्रह के अलावा पूरी एक व्यवस्था होती है जो सन्देश भेजने ग्रहण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसमें दो प्रमुख उपकरण होते हैं-पतला ट्रांसमिशन स्टेशन जो जमीन पर स्थिर होता है, जिसे uplink कहते हैं, दूसरा रिसीविंग डिस्क (Receiving disk) जिसे (down link) कहते हैं। uplink द्वारा सिगनल उपग्रह को भेजा जाता है जो उसे कई गुना बढ़ाकर पुनः downlink को भेजता है जिसके द्वारा सन्देश स्थानीय स्टेशनों को भेजा जाता है।
प्रश्न 4 (xi) सम्प्रेषण तकनीकी से आप क्या समझते हैं? विवेचना कीजिए।
उत्तर-
सम्प्रेषण तकनीकी
शिक्षा तकनीकी ने शिक्षण का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए शिक्षण प्रक्रिया को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा है। ये हैं-विषय-वस्तु और सम्प्रेषण | शिक्षण के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए विषय-वस्तु का निर्धारण किया जाता है तथा उद्देश्यों के सन्दर्भ में ही उक्त विषय-वस्तु का क्रमबद्ध विश्लेषण एवं व्यवस्था की जाती है। शिक्षण की प्रक्रिया का दूसरा पक्ष सम्प्रेषण है । विषय-वस्तु को छात्रों तक सरलतापूर्वक तथा प्रभावी ढंग से पहुँचाने के लिए जिस प्रविधि का प्रयोग किया जाता है, उसे सम्प्रेषण कहते हैं। वस्तुतः सम्प्रेषण माध्यम का चयन विषय-वस्तु के स्वरूप और उसकी प्रकृति पर निर्भर करती है। विषय-वस्तु को प्रभावपूर्ण ढंग से छात्रों तक पहुँचाने के लिए जिन अनेक प्रकार के शिक्षण माध्यमों का प्रयोग किया जाता है, उन सबको सम्प्रेषण तकनीकी के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है।
सम्प्रेषण तकनीकी का अभिप्राय - वस्तुतः मनुष्य सम्प्रेषण विधि की जैविकीय प्रणाली होता है, किन्तु जब वह अपने विस्तार के लिए इस जैविकीय प्रणाली से भिन्न अन्य किसी बाहरी तत्त्व या वस्तु का प्रयोग करता है; जैसे–फिल्म, टेपरिकॉर्डर, दूरदर्शन, कम्प्यूटर, रेडियो इत्यादि तो इन्हें सम्प्रेषण माध्यम के रूप में जाना जाता है ।
प्रश्न 4 (xii) सम्प्रेषण तकनीकी को परिभाषित कीजिए।
उत्तर-
कीथ डेविस ने संचार के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “संचार एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक सूचना एवं समझ को पहुँचाने की प्रक्रिया है । "
न्यूमेन एवं समर ने संचार के अर्थ के विषय में लिखा है, “संचार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य तथ्यों, विचारों, सम्मतियों अथवा भावनाओं का विनिमय है । "
डी.ई. मेक फारलैण्ड ने संचार के विषय में लिखा है, "संचार को विस्तृत रूप से मानव- प्राणियों के मध्य अर्थपूर्ण अन्तर्क्रिया की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।"
शिक्षा - शब्दकोष में संचार का अर्थ इस प्रकार स्पष्ट किया गया है, " संचार भाषा के प्रयोग अथवा अन्य चिह्नों एवं प्रतीकों के माध्यम से सूचना देने वाले और भाष्यकार के मध्य उनकी उदभूत प्रतिक्रियाओं से सामान्य अर्थों की जागृति है ।"
प्रश्न 4 (xiii) संचार प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए ।
उत्तर-
संचार - प्रक्रिया
संचार एक सामाजिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मानवीय सम्बन्ध स्थापित तथा विकसित होते हैं। संचार की प्रक्रिया में सर्वप्रथम जो व्यक्ति संदेश भेजता है, वह संदेश बनाता है, उसे लिखता है, फिर किसी-न-किसी माध्यम के द्वारा (जैसे- रेडियो, टेलीफोन, तार, भाषण आदि) संदेश प्रेषित करता है । प्रेषित संदेश जहाँ पहुँचता है, वहाँ उसे पढ़कर डीकोड किया जाता है और संदेश जिसके लिए है, उस तक उसे पहुँचाते हैं। यह व्यक्ति संदेश प्राप्ति की सूचना देता है । इस प्रकार संचार की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है।
प्रेषक- -संदेश --संदेश अर्थ को निहित करना --प्रापक --निहित अर्थ को समझना -- प्रतिपुष्टि
प्रश्न 4 (xiv) सम्प्रेषण तकनीकी की विशेषताएँ बताइए।
उत्तर-
संचार तकनीकी की विशेषताएँ -
उपर्युक्त परिभाषाओं के संचार तकनीकी की निम्नलिखित विशेषताएँ हो सकती हैं-
(1) संचार तकनीकी पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने की एक प्रक्रिया है।
(2) इसमें विचार- विमर्श तथा विचार-विनिमय पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
(3) इसमें एक संदेश देने वाले तथा दूसरे संदेश ग्रहण करने वाले दो पक्ष होते हैं।
(4) सम्प्रेषण प्रक्रिया एक उद्देश्ययुक्त प्रक्रिया होती है ।
(5) संचार तकनीकी में मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक पक्ष समावेशित होते हैं।
(6) प्रभावशाली संचार तकनीकी उत्तम शिक्षण के लिए विशेष उपयोगी है ।
( 7 ) संचार प्रक्रिया में प्रत्यक्षीकरण सम्मिलित रहता है ।
प्रश्न 4 (xv) संचार प्रक्रिया के प्रमुख तत्त्वों का वर्णन कीजिए ।
उत्तर-
संचार प्रक्रिया के तत्त्व संचार प्रक्रिया में निम्नांकित तत्त्वों का होना आवश्यक है-
1. संदेश का स्त्रोत-
किसी व्यक्ति द्वारा प्रदत्त शाब्दिक या अशाब्दिक संकेत संदेश स्रोत कहे जाते हैं। संदेश स्रोत व्यक्ति को संदेश भेजने वाला कहते हैं। संचार प्रक्रिया संदेश स्रोत से ही प्रारम्भ होती है, जो संदेश की विषय-वस्तु निर्धारित करता है, उसका कोडिंग तथा प्रसारण भी करता है।
2. संदेश -
लिखित संकेतों के रूप में अथवा व्यक्ति की मुखमुद्रा या हाव-भाव के रूप में संदेश दिया जा सकता है। संदेश किसी संकेत द्वारा जैसे पोस्टर/चार्ट / पम्पलेट द्वारा अथवा सूचना पैकेज के रूप में भी प्रेषित किया जा सकता है।
3. संचार का माध्यम-
वे साधन जिसके द्वारा कोई संदेश, संदेश- स्रोत से संदेश ग्रहणकर्त्ता तक पहुँचता है, उन्हें संचार का माध्यम कहते हैं। माध्यम प्रत्यक्षीकरण की संवेदनाएं होती हैं, जो दिखने, सुनने, स्पर्श करने, स्वाद बताने वाली अथवा गंध वाली हो सकती है। संचार के माध्यम द्वारा संदेश भौतिक रूप में प्रेषित किये जाते हैं।
5. संकेत या प्रतीक ये प्रतीक या संकेत वे हैं, जो किसी अन्य वस्तु का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये संकेत शाब्दिक अथवा अशाब्दिक भी हो सकते हैं। शब्द स्वयं में संकेत या प्रतीक हैं।
प्रश्न 4 (xvi) संचार के प्रकार बताइए।
उत्तर-
संचार के प्रकार
शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को गत्यात्मक, सक्रिय तथा जीवन्त बनाने के लिये संचार की निरन्तरता आवश्यक होती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में संचार को कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है- माध्यम पर आधारित
1. शाब्दिक संचार-जिस संचार में भाषा का प्रयोग होता है, उसे शाब्दिक संचार कहते हैं। यह संचार मौखिक रूप में वाणी द्वारा तथा लिखित रूप में शब्दों अथवा संकेतों के द्वारा, विचार अथवा भावनाओं को दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करने में प्रयुक्त होता है
2. अशाब्दिक संचार- इसमें भाषा का प्रयोग नहीं किया जाता है। इसमें वाणी संकेत, चक्षु- -सम्पर्क तथा मुख मुद्राओं के प्रयोग एवं स्पर्श- सम्पर्क आदि तरीकों से तथ्य / सूचना / संदेश पहुँचाए जाते हैं
प्रश्न 4 (xvii) सम्प्रेषण के आधुनिक साधन बताइए।
उत्तर - सम्प्रेषण के कुछ प्रमुख आधुनिक साधन निम्नलिखित हैं-
(1) इलेक्ट्रॉनिक बुलेटिन बोर्ड,
(2) सेल्युलर फोन्स,
(3) सुबोध तन्त्र,
(4) इण्टरनेट,
(6) वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग,
(7) सिटीजन बैण्ड रेडियो,
(8) फैक्स,
(9) उपग्रह सम्प्रेषण,
( 10 ) ई - मेल ।
प्रश्न 4 (xviii) सेल्युलर फोन्स क्या है? इसके लाभ व हानि बताइए |
उत्तर -
सेल्युलर शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के 'सेल' (Cell) शब्द से हुई है जिसका अर्थ है कोशिका । यह मौखिक सम्प्रेषण की अत्यन्त प्रचलित तकनीक है। यह देखने में काफी छोटा होता है तथा इसे आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है। इसमें केबल लगाने की जरूरत नहीं होती । इसे मोबाइल फोन भी कहा जाता है। सेल फोन को आसानी से जेब में रख सकते हैं।
सेल्युलर टेलीफोन पद्धति में एक बड़े क्षेत्र को छोटे-छोटे क्षेत्रों में बाँट देते हैं। इसमें प्रत्येक क्षेत्र का अपना अलग-अलग ट्रांसमीटर होता है। रिसीवर में एक विशेष प्रकार का एण्टीना लगा होता है जैसे ही बटन दबाया जाता है उसका सम्पर्क अपने क्षेत्र के ट्रांसमीटर से स्थापित हो जाता है। इसमें सम्पूर्ण प्रक्रिया स्वचालित होती है तथा एक ही समय में एक ही आवृत्ति पर कई व्यक्ति बातचीत कर सकते हैं
सेल्युलर का प्रयोग किसी भी वाहन में तथा देश में कहीं भी किया जा सकता है। लेकिन वहाँ सम्प्रेषण पद्धति की सुविधा अवश्य होनी चाहिए। प्राकृतिक आपदा (बाढ़, भूकम्प) के समय सेल्युलर फोन अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होते हैं।
लाभ—(1) इससे व्यक्तियों का समय बचता है,
(2) इनके द्वारा परम्परागत टेलीफोन से भी सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है,
(3) इन पर प्राकृतिक आपदाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता,
(4) इसे आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है,
(5) इसे जेब में रखा जा सकता है,
(6) इससे सन्देश भेजा जा सकता है,
(7) इनका प्रयोग वाहन में अथवा यात्रा करते समय भी किया जा सकता है।
हानियाँ -
(1) मोबाइल खोने का भय लगा रहता है।
(2) मोबाइल फोन का नम्बर भारत में कम- से-कम 10 अंकों का होता है,
(3) यह काफी महँगा होता है,
(4) वाहन चलाते समय इनका प्रयोग करने के कारण दुर्घटना भी हो सकती है।
प्रश्न 4 (xix) फैक्स क्या है? इसके लाभ बताइए।
उत्तर-
आविष्कार- फैक्स पद्धति का प्रयोग सर्वप्रथम स्कॉटलैण्ड के वैज्ञानिक अलेक्जेंडर सेन ने सन् 1842 ई0 में किया। सन् 1865 ई० में फ्रांस में एक चक्रीय ड्रम का प्रयोग करके फैक्स तन्त्र का निर्माण किया गया। फैक्स का पूर्णतः विकास सन् 1980 ई0 में हुआ। 'फैक्स' की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के शब्द 'फेसिमिली' शब्द से हुई है। 'फेसिमिली' लैटिन भाषा का शब्द हैं। 'फेस' से तात्पर्य 'बनाना' और 'सिमिली' शब्द से तात्पर्य 'उसी के समान' से है। यह पद्धति अन्य पद्धतियों की अपेक्षा सस्ती है । जब सम्प्रेषक तथा सन्देश प्राप्तकर्त्ता के मध्य दूरी बहुत अधिक होती हैं तब उस स्थिति में इस पद्धति का प्रयोग अत्यन्त उपयोगी तथा लाभदायक सिद्ध होता है।
फैक्स सम्प्रेषण की एक आधुनिक तथा सरल विद्युतीय तकनीक है। इसके अन्तर्गत मुद्रित अथवा लिखित सूचना अथवा मूल दस्तावेजों की फोटो कापी टेलीफोन के माध्यम से एक जगह से दूसरी जगह पर भेजी जाती है।
कार्यप्रणाली - जो सन्देश फैक्स किया जाने वाला है सर्वप्रथम उसे स्केनिंग प्रक्रिया से गुजारा जाता है। सन्देश मुद्रित अथवा लिखित किसी भी प्रकार का हो सकता है। इसमें यह सूचना अथवा सन्देश विद्युतीय संकेतों में बदल जाता है। जब ये विद्युत संकेत फैक्स रिकॉर्डर से होकर गुजरते हैं, तो प्राप्तकर्त्ता की मशीन में सम्प्रेषित सूचना अथवा सन्देश की प्रतिलिपि प्राप्त हो जाती है। फोटोस्टेट मशीन के द्वारा जिस प्रकार किसी प्रपत्र की प्रतिलिपि प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार फैक्स प्रक्रिया में भी प्रपत्र की फोटो कापी प्राप्त होती है। इस पद्धति में सम्प्रेषक तथा फोटो कापी प्राप्त करने वाला व्यक्ति दोनों भिन्न-भिन्न जगह पर होते हैं। ये दूरी टेलीफोन लाइन के द्वारा जोड़ी जाती है। आधुनिक युग में फैक्स सेवा का महत्त्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है । इस पद्धति से सन्देश भेजने की लागत काफी कम आती है तथा संचार की गुणवत्ता में भी सुधार आता है। वर्तमान समय में सभी समाचार-पत्र समूह इस पद्धति का प्रयोग करते हैं।
- लाभ -
(1) इसका प्रयोग शिक्षा, बैंकिंग, बीमा, कृषि, व्यापार, चिकित्सा, स्वास्थ्य इत्यादि के क्षेत्र में अधिक-से-अधिक किया जा रहा है,
(2) वर्तमान समय में फैक्स दैनिक कार्य-पद्धति का एक मुख्य हिस्सा है,
(3) फैक्स सेवा के द्वारा हम अपने मुद्रित तथा लिखित दस्तावेजों को फोटो कापी स्वरूप में सम्बन्धित व्यक्ति तक शीघ्रता से सम्प्रेषित कर सकते हैं,
(4) फैक्स सेवा काफी सस्ती पद्धति है,
(5) फैक्स मशीन द्वारा सन्देशों का सम्प्रेषण काफी आसान हैं,
(6) इससे समय की बचत होती है,
(7) फैक्स मशीन के द्वारा भेजा गया सन्देश पूर्ण रूप से गोपनीय रहता है।
प्रश्न 4 (xx ) ई-मेल के आशय एवं लाभ बताइए ।
उत्तर - ई-मेल के द्वारा सन्देश एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेज सकता है। इसमें सन्देश भेजने की गति काफी तेज होती है। ई-मेल एक ऐसी पद्धति है, जिसके अन्तर्गत कम्प्यूटर के द्वारा सन्देश सम्प्रेषित किया जाता है। इसकी विषय-सामग्री को वर्ड - प्रोसेसर द्वारा तैयार किया जाता है। सन् 1970 ई0 तक ई-मेल को कम्प्यूटर आधारित संचार पद्धति के नाम से जानते थे। ई-मेल पद्धति अत्यन्त तेज पद्धति है। इस पद्धति के द्वारा समय तथा कागज, दोनों की बचत होती है। यह अत्यन्त सस्ती पद्धति है परन्तु इस पद्धति का प्रयोग तभी किया जा सकता है जब दोनों व्यक्तियों के पास इण्टरनेट कनेक्शन अवश्य हो। इस पद्धति में हम जो सन्देश दूसरे व्यक्ति को देना चाहते हैं वह सन्देश सम्बन्धित व्यक्ति के कम्प्यूटर की टी०बी० स्क्रीन पर प्रदर्शित हो जाता है। यदि सम्बन्धित व्यक्ति संदेश भेजने के समय उस स्थान अथवा कम्प्यूटर के सामने नहीं बैठा है तो सम्प्रेषित किया गया वह सन्देश उसके (संदेश पाने वाले) कम्प्यूटर में संचित हो जाता है।
ई-मेल भेजने की विधि अथवा कार्यप्रणाली -
ई-मेल भेजने के लिए कम्प्यूटर के अतिरिक्त इण्टरनेट कनेक्शन तथा अन्य जरूरी उपकरणों के साथ ई-मेल का पता होना भी जरूरी है।
यदि हमें किसी भी व्यक्ति को ई-मेल भेजना है तो हम उसे किसी भी जगह ई-मेल भेज सकते हैं लेकिन वह इण्टरनेट से जुड़ा होना चाहिए। इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम विंडो के Start वाले चिह्न पर Click किया जाता है। इससे कम्प्यूटर में जो भी Programme Feed है उनकी सूची सामने आ जाती है। यह सूची Outlook Express भी दिखाती है। जब Outlook Express पर Click किया जाता है तो प्रोग्राम प्रारम्भ हो जाता है। अब स्क्रीन पर एक New E-mail चिह्न दिखाई देता है, फिर इसे Click किया जाता है, अब एक 'New Message' नामक खिड़की खुल जाती है। जिस स्थान पर To लिखा होता है वहाँ पर अपना पता लिख दिया जाता है। जब सन्देश पूरा लिख लिया जाय तो 'New Message' खिड़की के बायीं ओर ऊपर के कोने में Send नामक चिह्न पर Click किया जाता है। इस प्रकार हमारा सन्देश सम्प्रेषित किया जाता है।
ई-मेल को प्राप्त करना -
ई-मेल द्वारा किसी भी सम्प्रेषित सन्देश को प्राप्त करना अत्यन्त सरल है। यदि कम्प्यूटर में E-mail अथवा Outlook Express है तो Internet से जुड़ते ही यह Software अपने आप ही हमारे सन्देश की जाँच करता है। जो सन्देश सम्प्रेषित किया गया होगा वह Computer Screen के निचले हिस्से पर चमकता है। इस प्रकार Outlook Express को खोलकर सन्देश बड़ी आसानी से पढ़ा जा सकता है।
ई-मेल भेजते समय ध्यान रखने योग्य बातें -
(1) सन्देश भेजते समय हमें लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए।
(2) सन्देश छोटा होना चाहिए।
(3) यदि कोई सन्देश गलती से आपके पास आ गया है तो उस सन्देश को यथोक्त पते पर प्रेषित करना चाहिए।
(4) सन्देश भेजने वाले को शिष्टाचार तथा सभ्यता के अनुरूप ही व्यवहार करना चाहिए ।
लाभ -
( 1 ) इसमें सन्देश भेजने की गति काफी तेज होती है।
(2) यह अत्यन्त सस्ती पद्धति है।
सीमाएँ -
(1) जब ई-मेल द्वारा संचार प्राप्त कर लिया जाता है तो प्राप्तकर्त्ता को इसके बारे में पता होना जरूरी है।
(2) ई-मेल द्वारा संचार करने के लिए सन्देश प्राप्तकर्ता के पास ई-मेल सुविधा होनी चाहिए।
प्रश्न 4 (xxi) वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग क्या है?
उत्तर-
वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सचित्र संचार का प्रमुख साधन है। यह एक ऐसी पद्धति है जिसके अन्तर्गत आवाज तथा चित्र दोनों का सम्प्रेषण होता है। इसमें भिन्न-भिन्न जगहों पर उपस्थित व्यक्ति 'वास्तविक सभा' (Virtual Meeting) की तरह संचार करते हैं। इसमें संदेशों को सम्प्रेषित करने के साथ- साथ एक-दूसरे से सजीव बातचीत भी की जा सकती है जिससे उनके हाव भाव, भाव-भंगिमा, मुखाभिव्यक्ति का भी संचार हो जाता है। वर्तमान समय में भारत के प्रत्येक जिले में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की सुविधा उपलब्ध है। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग प्रक्रिया को दो तरीकों से सम्पन्न किया जा सकता है-
(1) कम्प्यूटर के द्वारा
(2) बिना कम्प्यूटर के द्वारा ।
जो कॉन्फ्रेंसिंग कम्प्यूटर के प्रयोग से सम्पन्न होती है उसे कम्प्यूटर कॉन्फ्रेंसिंग कहते हैं। इसके अन्तर्गत इण्टरनेट कनेक्शन, टेलीफोन कनेक्शन, वेब कैमरा, कम्प्यूटर इत्यादि की आवश्यकता होती है। जो कॉन्फ्रेंसिंग बिना कम्प्यूटर के प्रयोग से सम्पन्न होती है उसे बिना कम्प्यूटर कान्फ्रेंसिंग कहते हैं। इसके अन्तर्गत प्रोजेक्टर सेटेलाइट कनेक्शन, टेलीफोन वीडियो कॉन्फ्रेसिंग मशीन, डिजिटल वेब कैमरा इत्यादि की आवश्यकता होती है।
लाभ -
(1) यह अत्यन्त सस्ती पद्धति है।
(2) इससे समय की बचत होती है।
(3) इस पद्धति के द्वारा श्रव्य तथा दृश्य दोनों ही प्रकार के सन्देशों का सम्प्रेषण किया जाता है।
(4) भिन्न-भिन्न स्थानों पर स्थित अपने कार्यालयों में सन्देश अथवा सूचनाएँ प्राप्त की जाती हैं।
(5) भिन्न-भिन्न जगहों पर बैठे व्यक्ति लगभग आमने-सामने की तरह संचार करते हैं।
(6) संगठन के भिन्न-भिन्न स्रोतों के विभागों तथा शाखाओं से अत्यन्त तीव्र गति से लगभग सीधा संचार होता है।
हानियाँ –
(1) यह पद्धति छोटे तथा स्थानीय संगठनों के लिए उपयुक्त नहीं है।
(2) वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के लिए आवश्यक संसाधन काफी महँगे होते हैं।
(3) यह पद्धति इतनी लोकप्रिय नहीं है।
प्रश्न 4 (xxii) इण्टरनेट क्या है?
उत्तर-
इण्टरनेट / अन्तरताना
इण्टरनेट एक अत्यन्त शक्तिशाली तथा गतिशील संचार का माध्यम है। इण्टरनेट आधुनिक सम्प्रेषण माध्यम की एक ऐसी पद्धति है जो अलग-अलग जगहों पर स्थापित कम्प्यूटर्स को टेलीफोन लाइन की सहायता से जोड़ता है तथा संचार के लिए एक ऐसा रास्ता तैयार करता है जिससे कि सन्देश तथा सूचना शीघ्रता से पहुँच जाते हैं। इण्टरनेट अंग्रेजी के दो शब्दों से मिलकर बनता है-
(1) इण्टरनेशनल तथा (2) नेटवर्क, जिसका तात्पर्य विश्वव्यापी तन्त्र से है।
भारत में इण्टरनेट BSNL द्वारा संचालित किया जा रहा है। इण्टरनेट का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। आधुनिक समय में इण्टरनेट का प्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार की सूचनाएँ प्राप्त करने में किया जाता है। इण्टरनेट का प्रारम्भ सन् 1986 ई0 में हुआ था। वर्तमान समय में संचार के लिए इण्टरनेट अत्यन्त आवश्यक है। के०के० सिन्हा ने अपनी पुस्तक Business Communication, 2002 ई० में लिखा है कि- "यदि हम संचार के भिन्न-भिन्न माध्यमों की गति व वृद्धि का अवलोकन करें तो हम देखेंगे कि 40 वर्षों में रेडियो 50 मिलियन लोगों तक पहुँचा। जबकि इतने ही लोगों तक पहुँचने के लिए टी०वी० व कम्प्यूटर ने क्रमशः 13 व 16 वर्ष लिये जबकि इण्टरनेट केवल चार वर्षों में ही पचास मिलियन लोगों तक पहुँच चुका है।" इण्टरनेट पर सम्बद्धता के स्तर - इण्टरनेट पर सम्बद्धता के प्रमुख तीन स्तर हैं-
(1) पहले स्तर पर उपभोक्त द्वारा केवल इण्टरनेट पर सूचनाएँ देखी जा सकती हैं।
(2) दूसरे स्तर पर वह इण्टरनेट का एक भाग बन जाता है जिससे यह इण्टरनेट पर सूचनाएँ देख सकता है बल्कि वेबसाइट बनाकर सूचनाएँ भी एकत्रित कर सकता है।
(3) तीसरे स्तर पर वह इण्टरनेट पद्धति का मुख्य भाग बन जाता है। उसका अपना प्रमुख सूचना कम्प्यूटर होता है जिससे दूसरे स्तर के प्रयोगकर्ता अपनी वेबसाइट बना सकते हैं।
आधुनिक समय में कुछ प्रमुख निजी कम्पनियाँ इण्टरनेट सेवाएँ प्रदान कर रही हैं, जैसे - मन्त्रा, सत्यम् इत्यादि। इसके अतिरिक्त MTNL भी इण्टरनेट सेवा प्रदान करता है। केबल ऑपरेटर भी यह सेवाएँ प्रदान करते हैं। देश के लगभग समस्त जिलों में 'Internet Gateway's डाले जा चुके हैं।
प्रश्न 4 (xxiii) इण्टरनेट का प्रयोग बताइए ।
उत्तर-
(1) आजकल कई कम्पनियाँ, विभागीय स्टोर इत्यादि क्रेडिट कार्ड द्वारा इण्टरनेट के माध्यम से बिक्री करते हैं।
(2) व्यावसायिक संगठन द्वारा इण्टरनेट के माध्यम से विज्ञापन कराये जाते हैं।
(3) बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग तथा ई-बैंकिंग इत्यादि का इस्तेमाल किया जा रहा है।
(4) इण्टरनेट के द्वारा ई-कॉमर्स का विशाल कारोबार बढ़ता जा रहा है।
(5) इण्टरनेट के माध्यम से किसी भी विषय के बारे में पता लगाया जा सकता है।
(6) इस पद्धति का इस्तेमाल प्रायः ब्रांच तथा उनके मुख्यालयों द्वारा आपस में सन्देश संचार में किया जाता है।
(7) इस पद्धति के द्वारा नेटवर्क में समाहित सन्देशों को किसी विशिष्ट विषय के आधार पर समूहों में विभाजित किया जा सकता है।
(8) इसके द्वारा सूचनाओं को विषयानुसार प्रस्तुत किया जा सकता है।
(9) इसके पद्धति के द्वारा व्यक्ति आसानी से वेबसाइट (Website) का पता लगा सकता है।
(10) इस प्रणाली के माध्यम से व्यक्ति शीघ्र ही अपना सन्देश दुनिया में किसी भी स्थान पर भेज सकता है।
प्रश्न 4 (xxiv) इण्टरनेट के प्रयोग से उत्पन्न समस्याएँ बताइए ।
उत्तर-
(1) अंग्रेजी भाषा का प्रयोग इसकी प्रमुख समस्या है।
(2) इण्टरनेट पर बहुत से साइबर अपराधी वायरस फैलाने का काम करते हैं।
(3) इण्टरनेट पर असीमित ज्ञान तथा सूचनाएँ निहित हैं।
(4) इण्टरनेट पर बम निर्माण की पद्धति के बारे में बताया जाता है ।
(5) इण्टरनेट की एक मुख्य समस्या हैकिंग है। इसके अन्तर्गत किसी व्यक्ति का पासवर्ड चुराकर उसके आँकड़े तथा फाइलों का दुरुपयोग किया जा सकता है
(6) इण्टरनेट पर अश्लील फिल्मों का प्रचलन भी अत्यधिक बढ़ गया है।
प्रश्न 5 (i) उपग्रह सम्प्रेषण पर टिप्पणी लिखिए।
उत्तर-
उपग्रह सम्प्रेषण
सेल्युलर टेलीफोन, ई-मेल, इन्टरनेट इत्यादि का उपयोग संचार उपग्रह के माध्यम से किया जाता है, लेकिन वर्तमान समय में इण्टरनेट, सेल्युलर फोन इत्यादि पर जरूरत से अधिक भार पड़ने लगा है जिससे सम्पर्क आसानी से नहीं हो पाता। निगम एवं कम्पनियों को जिन्हें विशाल तथा व्यापक क्षेत्र में संचार करना पड़ता है, इस बाधा द्वारा समस्याओं का सामना करना पड़ता है । इन समस्याओं के समाधान के लिए स्वयं के या किराये पर लिये उपग्रह द्वारा अपने सम्पूर्ण संचार तन्त्र को अधिक सक्रिय बनाने का प्रयत्न किया जाता है। जब उपग्रह स्वयं का होता है, तो संचार तथा सम्पर्क में आने वाली बाधाएँ बहुत कम हो जाती हैं।
प्रश्न 5 (ii) पेजर क्या है?
उत्तर - भारत में सर्वप्रथम 1982 ई० में एशियन गेम्स के समय पेजर का प्रयोग किया गया था। यह आयताकार 31⁄2 इंच लम्बा तथा 21⁄2 इंच चौड़ा एक छोटा-सा उपकरण होता है। इसमें जो सन्देश आते हैं उन्हें वह लिखित रूप में उपकरण की स्क्रीन पर दिखाता है। इसका बेतार कनेक्शन पेपर बॉक्स से होता है। जब कोई सन्देश आता है तो यह उपकरण पीप- पीप की ध्वनि करता है तथा यन्त्रधारक बटन जुड़ा दबाकर सन्देश प्राप्त कर लेता है।
लाभ -
(1) पेजधारक का संगठन से निरन्तर सम्पर्क बना रहता है।
(2) इस यन्त्र को जेब में आसानी से डालकर कहीं भी घूमा जा सकता है।
सीमाएँ -
(1) इसमें सबसे बड़ा दोष यह है कि सन्देश प्राप्तकर्त्ता केवल सन्देश प्राप्त कर सकता है, सन्देश भेज नहीं सकता ।
(2) इसका एक निश्चित क्षेत्र होता है।
( 3 ) यह केवल निश्चित भाषा में ही लिखित सन्देश प्राप्त करता है ।
प्रश्न 5 (iii) इलेक्ट्रॉनिक मेल क्या है?
उत्तर- टेलीफोन लाइन की मदद से एक कम्प्यूटर से दूसरे कम्प्यूटर पर भेजा गया संदेश इलेक्ट्रॉनिक मेल या ई-मेल कहलाता है। साधारणतः यह टेक्स्ट बेस्ट होता है पर यूजर किसी भी तरह इनफॉर्मेशन (यहाँ तक कि प्रोग्राम और वायरस भी) इसके द्वारा भेज सकते हैं। कोई यूजर जिसका खुद का ईमेल एड्रेस है , ईमेल भेज और प्राप्त क्र सकता है |
यह कम्प्यूटर यूजर कम्प्यूटर नेटवर्क को ज्वाइन करके या लोकल सर्विस प्रोवाइडर द्वारा इंटरनेट सिग्नल्स में परिवर्तित होकर टेलीफोन लाइन के द्वारा रिसीवर के कम्प्यूटर तक पहुँचती है। वहाँ यह पुनः से कनेक्ट होकर खुद का ई-मेल एड्रेस पा सकते हैं। ई-मेल प्रेषक के कम्प्यूटर से मोडेम द्वारा इलेक्ट्रॉनिक मोडेम द्वारा कम्प्यूटर पर पढ़े जा सकने वाले रूप में परिवर्तित हो जाती है। कम्प्यूटर इस मेल को स्टोर कर देता है। यूजर अपने मेल लाइट के रूप में स्टोर कर देता है। यूजर अपने मेल क्लाइंट द्वारा इस फाइल को ओपन कर मेसेज को पढ़ लेता है।
प्रश्न 5 (iv) HTML तथा Home Page क्या है?
उत्तर-
HTML तथा Home Page (Web Page) -
HTML का पूरा नाम हाइपरटेक्स्ट मार्क लैंग्वेज है। यह एक कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग भाषा है जिसके द्वारा हाइपरटेक्स्ट पेज अथवा वेब पेज का निर्माण होता है। यदि आप वेब पेज पर b/w, सामान्य फॉन्ट में लिखा गया Text प्रदर्शित करना चाहते हैं तो HTML भाषा के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती परन्तु यदि आप वेब पेज में डाटा प्रदर्शित करना चाहते हैं तो HTML भाषा का प्रयोग करना पड़ेगा | HTML भाषा के द्वारा विभिन्न रंगों, अलग-अलग डिजाइन तथा आकार के अक्षर, फॉन्ट, चित्रों, ग्राफिक्स, हेडलाइन आदि का प्रयोग कर वेब पेज का निर्माण कर सकते हैं। दो या अधिक वेब पेजों को लिंक द्वारा जोड़े जाने की सुविधा HTML भाषा से ही प्राप्त होती है।
हाइपरमीडिया - यह हाइपरटेक्स्ट की उन्नते ( Advance) तकनीक है। इसमें Text के साथ ऑडियो तथा वीडियो डाटा का भी समावेश होता है ।
वेब सर्वर - वेब व्यवस्था में डाटा / जानकारी अनेकों सर्वर मशीनों में वितरित रहती है। वेब व्यवस्था के इस सर्वर को वेब सर्वर कहा जाता है। वेब सर्वर वह मशीन है जिसमें संग्रहित जानकारी वेब पेज के रूप में क्लाइण्ट कम्प्यूटर पर देखी जा सकती है। प्रत्येक वेब सर्वर का एक अद्वितीय IP Address व कोड होता है जिनके द्वारा सर्वर को खोजा जा सकता है।
वेब ब्राउजर - यह एक Application software programme है जो वेब सर्वर एवं क्लाइण्ट कम्प्यूटर के बीच इंटरफेस अर्थात् माध्यम का कार्य करता है।
प्रश्न 5 (v) W.W.W.क्या है ?
उत्तर - वर्ल्ड वाइड वेब ( W. w. w. ) - यह ऐसी ऐप्लीकेशन अथवा व्यवस्था है जिसके द्वारा इंटरनेट के किसी सर्वर में संग्रहित जानकारियों को एक क्लाइण्ट कम्प्यूटर से देखा जा सकता है। इसका विकास 1989 में स्विट्जरलैण्ड के सर्न (CERN) भौतिकी लैब में किया गया था। आरम्भ में इसका प्रयोग वैज्ञानिकों द्वारा कम्प्यूटर नेटवर्क पर उपस्थित शोध सम्बन्धी जानकारियों तथा फाइलों को प्राप्त करने, पढ़ने, खोजने के लिए किया गया था। धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई तथा 1993 के अन्त में www. को एक सॉफ्टवेयर के रूप में बाजार में निकाला गया जो windows के ऑपरेटिंग सिस्टम पर चल सकता था तथा जिसके द्वारा इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारियों को सरलता से खोजा जा सकता था।
w.w w. हाइपरटेक्स्ट पर आधारित डिस्ट्रीब्यूटेड इन्फार्मेशन सिस्टम है जिसके द्वारा छात्र/छात्राओं के इंटरनेट की सहायता से असंख्य जानकारियाँ उपलब्ध होती हैं ।
प्रश्न 5 (vi) M.S. Office क्या है?
अथवा
एम.एस. आफिस क्या है? शिक्षा में इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर-
कार्यालय के दिन-प्रतिदिन के सामान्य कार्यों को सम्पादित करने के लिए ही एम. एस. ऑफिस अत्यंत उपयोगी एवं महत्वपूर्ण सॉफ्टवेयर है। इसके निर्माता माइक्रोसॉफ्ट कॉर्पोरेशन ने इसे विशेष तौर पर कार्यालय कार्यों को सम्पादित करने के लिए ही बनाया है, इसलिए इसका नाम एम. एस. ऑफिस रखा गया है। एम. एस. ऑफिस कोई एक प्रोग्राम न होकर कई प्रोग्रामों का एक समूह है। इसमें कई प्रोग्राम सम्मिलित है। जब हम अपने कम्प्यूटर में इसे इंस्टाल कर लेते हैं और कम्प्यूटर ऑन करते हैं तो हमें मॉनीटर पटल पर इसका टूल बॉक्स नीचे दिये अनुसार दिखता है।
एम. एस. ऑफिस के टूल बार के किसी हिस्से पर डबल क्लिक करके हम उसे खोल सकते हैं या एम. एस. ऑफिस मीनू को खोल सकते हैं। यदि हम एम. एस. मीनू खोलते हैं तो पटल पर वह दिखेगा।
प्रश्न 5 (vii) M.S. वर्ड क्या है? इसका उपयोग बताइए।
उत्तर -
M.S. Word से तात्पर्य Microsoft word से है जो माइक्रोसॉफ्ट कार्पोरेशन द्वारा विकसित एक वर्ड प्रोसेसिंग पैकेज है। जिसकी सहायता से साधारण दैनिक पत्र व्यवहार से लेकर डेस्कटॉप पब्लिशिंग (D.T.P.) स्तर के कार्य सुविधापूर्वक किए जाते हैं। इसमें परम्परागत मैन्युओं के साथ ही दूल- बारों की सुविधा भी उपलब्ध है; जैसे- कॉपी करना, काटना, जोड़ना, खोजना एवं बदलना, फॉण्ट एवं स्पेसिंग तथा ग्रामर की जाँच करना इत्यादि ।
M.S. Word 2007 तथा 2010 में दस्तावेजों को विभिन्न भाषाओं में अनुवादित करने की भी सुविधा उपलब्ध है । MS Word दस्तावेज के बनाने तथा शेयर करने के लिए शक्तिशाली उपकरण प्रदान करता है। किसी भी दस्तावेज को बनाने से लेकर पहले से वर्तमान दस्तावेज में किसी भी प्रकार का परिवर्तन करने के लिए MS Word में बहुत सारे Tools एवं Short-cut Keys हैं जो document से सम्बन्धित कार्यों को और भी अधिक सरल बना देते हैं ।
M.S. Word का उपयोग
(i) विभिन्न प्रकार के Assignment Work तैयार करने में ।
(ii) लम्बे-लम्बे Essay लिखने में।
. (iii) Application लिखने में, Resume / Biodata बनाने में
(iv) M.S. Word 2007 की मदद से डॉक्यूमेण्ट में किसी तरह के Shape के अन्दर लिखने की भी व्यवस्था है।
(v) कुछ विषयों; जैसे - सांख्यिकी और भौतिकी में चार्ट, तालिका की आवश्यकता होती है। M. S. Word की सहायता से शिक्षक / छात्र आसानी से इसे बना सकते हैं।
(vi) किसी भी Document में किसी विशेष शब्द को तुरन्त खोजने में MS Word से मदद मिलती है।
1. सूक्ष्म शिक्षण एक वास्तविक शिक्षण है।
2. सूक्ष्म शिक्षण सामान्य कक्षा - शिक्षण की जटिलता को कम करता है।
3. सूक्ष्म शिक्षण का मुख्य केन्द्र विशिष्ट कार्य को पूर्ण करने का प्रशिक्षण देना है।
4. सूक्ष्म शिक्षण शिक्षण की प्रक्रिया में पृष्ठपोषण का अधिकाधिक प्रयोग किया जाता है।
सूक्ष्म शिक्षण की प्रक्रिया में निम्नलिखित मुख्य तीन स्तर होते हैं-
(i) ज्ञान प्राप्ति स्तर (ii) कौशल प्राप्त स्तर (iii) स्थानान्तरण स्तर
सूक्ष्म शिक्षण की विशेषताएँ
(1) सूक्ष्म शिक्षण में शिक्षण के तत्त्वों को सूक्ष्म रूप दिया जाता है।
(2) यह व्यक्ति प्रशिक्षण की विधि है ।
(3) यह ऐसा वास्तविक शिक्षण है, जो केन्द्र - बिन्दु प्रशिक्षणार्थियों में शिक्षण - कौशल विकास करता है।
(4) कक्षा के आकार को छोटा कर दिया जाता है अर्थात् मात्र 5 से 10 छात्र ही रखे जाते हैं।
(5) पढ़ाने की अवधि 5 से 10 मिनट की होती है ।
(6) पढ़ाने का प्रकरण आकार में छोटा होता है ।
(7) एक ही शिक्षण कौशल का अभ्यास कराया जाता है।
(30) प्रश्न 2 (xx1) भाषा - प्रयोगशाला क्या है?
(30) प्रश्न 2 (xxi) भाषा - प्रयोगशाला क्या है? |
उत्तर-
भाषा प्रयोगशाला
भाषा-प्रयोगशाला शिक्षण के क्षेत्र में अन्य दृश्य-श्रव्य उपकरणों की भाँति सहायक मात्र है, न कि अध्यापक/शिक्षा का प्रतिस्थापन । भाषा - प्रयोगशाला एक विशेष कक्ष होता है, जो विविध दृश्य-श्रव्य उपकरणों से युक्त होता है । सामान्यतः एक भाषा - प्रयोगशाला चार, छह, आठ... बत्तीस टेपरिकॉर्डरों का एक क्रमिक व्यवस्थित संयोजन होता है, जिसके माध्यम से शिक्षार्थी / अध्येता भाषा-अध्ययन हेतु विविध तरह के अभ्यास करते हुए भाषा सीखते हैं । संकुचित अर्थ में एक ऐसा कमरा भी भाषा - प्रयोगशाला कहा जा सकता है, जिसमें सिर्फ एक टेपरिकॉर्डर हो तथा जिसके माध्यम से शिक्षार्थी / अध्येता भाषा अभ्यास कार्य करते हों, पर वास्तव में भाषा - प्रयोगशाला एक सामान्य कक्षा का पूरक रूप है, जहाँ शिक्षार्थी सामान्य कक्षा के अध्ययन के अतिरिक्त समय में टेपित पाठों का श्रवण करते हुए अनुकरण आदि के द्वारा भाषा को व्यवहार के स्तर पर सीखते हैं । यहाँ भाषा - कौशलों का विकास किया जाता है।
किसी भाषा प्रयोगशाला की कार्य-प्रणाली उस भाषा - प्रयोगशाला में उपलब्ध दृश्य-श्रव्य उपकरणों की मात्रा एवं गुण पर निर्भर है। जिस भाषा प्रयोगशाला में जो-जो उपकरण उपलब्ध होंगे, उनकी संचालन व्यवस्था एवं संचालन प्रक्रिया उन्हीं के अनुरूप रखनी होगी । विविध तरह के प्रक्षेपकों से आवश्यकतानुसार कक्षा-स्तर के अनुरूप सामग्री का प्रक्षेपण किया जाता है। कमरे में दृश्य सामग्री प्रक्षेपण के समय पर्याप्त अँधेरा होना जरूरी है। बूथों की संख्या के अनुसार मॉनीटर कन्सोल का आकार-प्रकार रखा जाता है। प्रायः 16 बूथोंवाली भाषा - प्रयोगशाला के मॉनीटर कन्सोल में चार बड़े-बड़े टेपरिकॉर्डरों में चार ग्रूपों हेतु एक साथ चार कार्यक्रम तक प्रसारित होने की व्यवस्था हो तो अच्छा है।
(31) प्रश्न 2 (xx1)बुनियादी शिक्षण प्रतिमान की विशेषताएँ बताइए
(31) प्रश्न 2 (xxi) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान की विशेषताएँ बताइए |
उत्तर -
शिक्षण के बुनियादी प्रतिमान के अन्तर्गत अनुदेशनात्मक व्यवस्था के सभी आवश्यक अंगों का समावेश है। इसकी महत्त्वपूर्ण विशेषताओं को इस प्रकार अंकित किया जा सकता है—
1. यह प्रतिमान शिक्षण तथा अधिगम की 'लक्ष्य निर्देशित धारणा' पर विशेष बल देता है। इस बात की पुष्टि इसके प्रथम घटक आयत 'अ' के द्वारा हो जाती है ।
2. यह प्रतिमान शिक्षण-क्रिया का स्वरूप कुछ विशेष निर्णयों एवं उनके अनुकूल सम्पादित कार्यों तथा अभ्यासों के आधार पर घटित होता है न कि शिक्षक एवं विद्यार्थी के व्यक्तिगत अन्तर्सम्बन्धों द्वारा । इसी कारण प्रस्तुत प्रतिमान के अन्तर्गत शिक्षक के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों को महत्त्व नहीं दिया गया है।
3. इस प्रतिमान के अनुसरण हेतु शिक्षक की निपुणता परमावश्यक है। इसमें शिक्षक की प्रभाविता के लिए ‘व्यक्तिगत करिश्मा' की तुलना में 'निपुणता' को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है।किन्तु 'व्यक्तिगत करिश्मा' तथा 'निपुणता' के सम्यक् सम्मिश्रण के प्रति इस मॉडल में कोई विरोध या दुराग्रह नहीं है।
4. इस प्रतिमान का विशेष आकर्षण शैक्षिक नियोजन तथा पाठों की व्यवस्था पर है। इसलिए अनुदेशनात्मक प्रणालियों को परिष्कृत करने तथा उन्हें सम्बन्धित करने के प्रति विशेष चेष्टा विद्यमान है।
5. इस प्रतिमान में शिक्षण एवं पुनर्शिक्षण में क्रम को तब तक चालू रखने की संस्तुति होती है जब तक अपेक्षित अधिगम सम्बन्धी अनुदेशनात्मक उद्देश्य की प्राप्ति नहीं हो जाती। इसलिए 'निष्पादन मूल्यांकन' के अनुसार आयत 'अ', 'ब' तथा 'स' तीनों ही संशोधित एवं परिवर्तित किये जाते हैं।
(32)बुनियादी शिक्षण प्रतिमान का शिक्षण अधिगम में उपयोग का वर्णन कीजिए।
(32) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान का शिक्षण अधिगम में उपयोग का वर्णन कीजिए। |
उत्तर -
शिक्षण अधिगम में बुनियादी शिक्षण प्रतिमान की उपयोगिता अधिक है। इसका कारण यह है कि यह प्रतिमान शिक्षण तथा अधिगम की 'लक्ष्य निर्देशित ' धारणा पर आधारित है । डिसीको एवं क्राकोर्ड के अनुसार, “प्रतिमान में शिक्षण - क्रिया का स्वरूप कुछ विशेष निर्णयों और उनके अनुकूल सम्पादित कार्यों तथा अभ्यासों के आधार पर घटित होता है न कि शिक्षक एवं विद्यार्थी के व्यक्तिगत अन्तर्सम्बन्धों के द्वारा।” इसी कारण इस प्रतिमान में शिक्षक के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों को महत्त्व नहीं दिया गया है। इस प्रतिमान के अनुसरण हेतु शिक्षक की निपुणता परमावश्यक है। इसमें शिक्षण की प्रभावकारिता के लिए शिक्षण की 'व्यक्तिगत करिश्मा' की तुलना में 'निपुणता' को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस प्रतिमान का विशेष आकर्षण शैक्षिक नियोजन तथा पाठों की व्यवस्था पर है। इसलिए अनुदेशनात्मक प्रणालियों को परिष्कृत करने तथा उन्हें सम्बन्धित करने के प्रति इसमें विशेष चेष्टा विद्यमान है। बुनियादी शिक्षण प्रतिमान में शिक्षण एवं पुनर्शिक्षण के क्रम को तब तक चालू रखने की संस्तुति होती है जब तक अपेक्षित अधिगम सम्बन्धी अनुदेशनात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो जाती । इसीलिए ‘निष्पादन मूल्यांकन' के अनुसार अनुदेशनात्मक उद्देश्यों, प्रारम्भिक व्यवहार और अनुदेशनात्मक प्रक्रिया तीनों ही संशोधित एवं परिमार्जित किये जाते हैं।
(33) शिक्षण प्रतिमान का अर्थ बताइए।
(33) शिक्षण प्रतिमान का अर्थ बताइए। |
अथवा
शिक्षण प्रतिमान से आप क्या समझते हैं ? शिक्षण प्रतिमान का कक्षा शिक्षण में क्या महत्त्व है?
उत्तर -
शिक्षण प्रतिमान ऐसे प्रतिमान अथवा व्यवस्थाएँ हैं, जो हमें सीखने के सिद्धान्तों की ओर ले जा रहे हैं। इन्हें कुछ लोग अपूर्ण शिक्षण सिद्धान्त भी कहते हैं। वास्तव में, ये प्रतिमान शिक्षण सिद्धान्तों के निर्माण के लिए प्राथमिक सामग्री तथा वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करते हैं ।
इस प्रकार प्रतिमान शिक्षण के सम्बन्ध में सोचने-विचारने की एक रीति है । यह किसी वस्तु के आन्तरिक गुणों को परखने में आधार का काम करता है । किसी वस्तु को विभाजित तथा व्यवस्थित करके तर्कसंगत ढंग से प्रस्तुत करने की विधि को ही 'प्रतिमान' कहा जाता है। शिक्षण के क्षेत्र में विकसित विभिन्न प्रतिमान सामान्यतया सम्बन्धों तथा अन्तःसम्पर्कों के विषय में बतलाते हैं। यह निरीक्षण तथा प्राप्त अनुभवों का परिणाम है और इस प्रकार उस ताने-बाने के सम्बन्ध में बताते हैं, जो कि हमें उसके कार्यान्वयन की जानकारी देता है। शिक्षण प्रतिमान, शिक्षण सिद्धान्त विकसित करने की ओर एक कदम है। ये शिक्षण सिद्धान्तों को वैज्ञानिक आधार प्रदान करते हैं। ये स्वयं सिद्ध कल्पनाएँ होती हैं, जिनका प्रयोग शिक्षक अपने शिक्षण और अधिगम को प्रभावशाली बनाने के लिए करता है ।
शिक्षण के प्रतिमान का महत्त्व या उपयोगिता
शिक्षण प्रतिमानों की निम्नलिखित उपयोगिता मानी जाती है-
(1) विद्यालयों की शिक्षण व्यवस्था में विशिष्ट उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इनको प्रयुक्त किया जा सकता है। इनके द्वारा शिक्षण को अधिक सार्थक तथा प्रभावशाली बनाया जा सकता है।
(2) विद्यालयों के विभिन्न विषयों के शिक्षण में विशिष्ट प्रतिमानों को ही प्रयुक्त किया जा सकता है।
(4) शिक्षण प्रतिमान अभी जाँच स्तर पर ही हैं। इनके आधार पर शिक्षण - सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जा सकता है।
(3) शिक्षण प्रतिमानों को सामाजिक, व्यक्तिगत, ज्ञानात्मक तथा व्यावहारिक पक्षों के विकास के लिए विकसित किया जाता है। अतः शिक्षण के सभी उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए इनको प्रयुक्त किया जा सकता है। (4) शिक्षण प्रतिमान अभी जाँच स्तर पर ही हैं। इनके आधार पर शिक्षण - सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया जा सकता है।
(5) इन रचना की जा सकती है ।
(6) शिक्षण प्रतिमान शिक्षण-प्रक्रिया में शोध कार्य के लिए विशाल क्षेत्र प्रस्तुत प्रतिमानों से सादृश्य अनुभव ग्रहण कर भारतीय परिस्थिति के लिए अधिक प्रभावशाली प्रतिमानों की करते हैं, जिससे शिक्षण की प्रक्रिया को समझा जा सकता है और उनके चरों का उल्लेख किया जा सकता है।
(7) शिक्षण विधियों में पाठ्य-वस्तु को प्रधानता दी जाती है जबकि शिक्षण प्रतिमानों में उद्देश्यों को प्रधानता दी जाती है जिससे शिक्षण को अधिक सार्थक तथा उपयोगी बनाया जा सकता है।
( 8 ) शिक्षण तथा अधिगम क्रियाओं के सम्बन्ध में विभिन्न परिस्थितियों का भली प्रकार अध्ययन किया जा सकता है।
(9) भारतीय परिस्थिति में कक्षा-शिक्षण की समस्याओं के समाधान के लिए शिक्षण प्रतिमानों को विकसित किया जा सकता है।
(10) मनोवैज्ञानिक शक्तियों को शिक्षण में प्रभावशाली रूप प्रयुक्त करने के लिए नवीन प्रतिमानों का विकास किया जा सकता है।
(11) शिक्षा की मूल्यांकन प्रणाली का विकास किया जा सकता है।
(34) शिक्षण प्रतिमान की विशेषताएँ बताइए
(34) शिक्षण प्रतिमान की विशेषताएँ बताइए |
उत्तर -
शिक्षण प्रतिमानों में सीखने तथा सिखाने की निम्नांकित विशेषताएँ पायी जाती हैं-
(1) प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान के निश्चित आधार होते हैं
। ( 2 ) ये शिक्षक और छात्र दोनों को वांछित अनुभव प्राप्त कराते हैं।
(3) शिक्षण प्रतिमान सामान्यतया शिक्षक के व्यक्तिगत मतों, दर्शन, चिन्तन तथा मूल्यों पर आधारित होते हैं।
(4) शिक्षण प्रतिमान छात्रों की रुचि का विनियोग करते हैं।
(5) प्रत्येक प्रतिमान किसी-न-किसी प्रकार के दर्शन से प्रभावित होता है।
(6) प्रत्येक प्रतिमान कुछ निश्चित शिक्षण सूत्रों का प्रयोग करता है; जैसे- ज्ञात से अज्ञात, स्थूल से सूक्ष्म या सरल से कठिन आदि।
(7) शिक्षण प्रतिमान सामाजिक आवश्यकताओं की पूर्ति पर ध्यान देते हैं और मानव योग्यताओं के विकास में सहायता प्रदान करते हैं।
(8) ये दार्शनिक सिद्धान्तों तथा मनोवैज्ञानिक नियमों पर आधारित होते हैं।
(9) प्रतिमानों का विकास निरन्तर अभ्यास, अनुभव, साधना और प्रयोगों के पश्चात् होता है।
(10) शिक्षण प्रतिमान शिक्षण-प्रक्रिया का व्यावहारिक पक्ष कहलाता है, जो शिक्षक के व्यक्तित्व से विकसित होता है।
(11) शिक्षण प्रतिमान शिक्षण को एक कला के रूप में विकसित करने में पूर्ण सहायता देते हैं ।
(12) ये शिक्षक के व्यक्तित्व की गुणात्मक उन्नति करने की ओर प्रयत्नशील होते हैं।
(13) ये शिक्षण-अधिगम सिद्धान्तों का आधार लेकर बनाये जाते हैं (शिक्षण प्रतिमान तथा शिक्षण अधिगम सिद्धान्त दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं) ।
(14) शिक्षण प्रतिमान कुछ निश्चित आधारभूत प्रश्नों का उत्तर देने में समर्थ होते हैं।
(35) शिक्षण प्रतिमानों के तत्त्व क्या हैं?
(35) शिक्षण प्रतिमानों के तत्त्व क्या हैं? |
अथवा
शिक्षण प्रतिमान के आधारभूत तत्त्वों की व्याख्या कीजिए।
अथवा शिक्षण प्रतिमान के चार तत्त्व।
अथवा शिक्षण प्रतिमान के आधारभूत तत्त्व क्या हैं?
उत्तर -
सिखाने हेतु शिक्षण प्रतिमान के अग्रलिखित चार मौलिक तत्त्व होते हैं-
1. उद्देश्य -
प्रत्येक शिक्षण प्रतिमान का कोई-न-कोई उद्देश्य अवश्य होता है, जिसे उसका लक्ष्य बिन्दु कहते हैं। इसी लक्ष्य बिन्दु को ध्यान में रखकर प्रतिमान को विकसित किया जाता है। दूसरे शब्दों में शिक्षण प्रतिमान का उद्देश्य (Focus) उस बिन्दु को कहते हैं जिसके लिए प्रतिमान का विकास किया जाता है। स्मरण रहे कि प्रतिमान के विभिन्न पक्ष (Phases) होते हैं, अतः इनके द्वारा विशेष प्रकार की क्षमताओं को विकसित किया जाता है।
2. संरचना -
संरचना से अभिप्राय शिक्षण प्रतिमानों के उन बिन्दुओं से है, जो शिक्षण की विभिन्न अवस्थाओं में निर्धारित लक्ष्यों या उद्देश्यों के अनुसार केन्द्रित क्रियाएँ उत्पन्न करते हैं। दूसरे शब्दों में शिक्षण प्रतिमान की संरचना से यह पता चलता है कि शिक्षण की क्रियाओं, नीतियों, युक्तियों तथा अन्तः क्रियाओं को किस प्रकार से क्रमबद्ध किया जाना चाहिए, ताकि वांछित उद्देश्यों को प्राप्त किया जा सके। यह विषय-वस्तु के प्रस्तुतीकरण से सम्बन्धित है ।
3. सामाजिक प्रणाली -
प्रत्येक प्रतिमान की अपनी एक सामाजिक प्रणाली होती है, जो हमें यह बताती है कि छात्र और शिक्षकों के मध्य क्रिया तथा अन्तःक्रिया का आयोजन किस प्रकार से किया जाना चाहिए, जिससे छात्रों के व्यवहार पर नियन्त्रण रखा जा सके, साथ ही उनमें वांछित परिवर्तन भी लाया जा सके । सामाजिक प्रणाली हमें अभिप्रेरणा देनेवाली प्रविधियों के बारे में भी बताती है । प्रत्येक प्रतिमान यह मानकर चलता है कि प्रत्येक कक्षा एक समाज है और उस समाज के नियन्त्रण तथा सुधार के लिए कोई-न-कोई निश्चित प्रकार की सामाजिक प्रणाली अवश्य अपनानी चाहिए, जिससे शिक्षण व्यवस्था सुचारु रूप से चलती रहे ।
(36) शिक्षण प्रतिमानों के प्रकार बताइए
(36) शिक्षण प्रतिमानों के प्रकार बताइए |
उत्तर -
आजकल जितने भी अधिगम हेतु शिक्षण प्रतिमान विशेष रूप से शिक्षण तथा प्रशिक्षण के क्षेत्र में प्रचलित हैं, उन सभी को जोयस (Joyce 1977) ने चार वर्गों में वर्गीकृत किया है। जोयस इसका निम्नलिखित प्रकार वर्गीकरण करते हैं-
1. ऐतिहासिक शिक्षण प्रतिमान -
(1) सुकरात का शिक्षण प्रतिमान,
(2) परम्परागत मानवीय शिक्षण प्रतिमान,
( 3 ) व्यक्तिगत विकास शिक्षण प्रतिमान |
2. मनोवैज्ञानिक शिक्षण प्रतिमान - (1) मौलिक शिक्षण प्रतिमान (2) कम्प्यूटर आधारित शिक्षण प्रतिमान, (3) विद्यालय अधिगम शिक्षण प्रतिमान, (4) अन्तःप्रक्रिया शिक्षण प्रतिमान |
3. अध्यापक शिक्षा के लिए शिक्षण प्रतिमान - (1) तेबा का शिक्षण प्रतिमान, (2) टर्नर का शिक्षण प्रतिमान, (3) शिक्षक अभिविन्यास शिक्षण प्रतिमान, (4) फाक्स लिपिक शिक्षण प्रतिमान |
4. आधुनिक शिक्षण प्रतिमान- आधुनिक शिक्षण प्रतिमान निम्नलिखित हैं-
(क) अन्तः प्रक्रिया स्त्रोत - (1) सामूहिक अन्वेषण प्रतिमान, (2) जूरिस प्रूडेन्शियल प्रतिमान, (3) सामाजिक अन्वेषण प्रतिमान, (4) प्रयोगशाला विधि प्रतिमान ।
(ख) सूचना प्रक्रिया स्त्रोत - उपलब्धि प्रत्यय प्रतिमान, (2) आगमन प्रतिमान, (3) पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान, (4) जैविक विज्ञान पृच्छा प्रतिमान ( 5 ) अग्रिम व्यवस्थापक प्रतिमान, (6) विकासात्मक प्रतिमान या प्रभावी अधिगम प्रतिमान |
(ग) व्यक्तिगत स्त्रोत - ( 1 ) दिशाविहीन शिक्षण प्रतिमान, (2) कक्षा - सभा प्रतिमान, (3) सृजनात्मक शिक्षण प्रतिमान, ( 4 ) जागरूकता प्रतिमान, (5) प्रत्यक्ष व्यवस्था प्रतिमान ।
(घ) व्यवहार परिवर्तन स्रोत - (1) सक्रिय अनुबन्धन प्रतिमान |
(ङ) चार -पदीय शिक्षण प्रतिमान - (1) पाम्प एवं बकर प्रतिमान, (2) सामान्य शिक्षण प्रतिमान, (3) तार्किक शिक्षण प्रतिमान |
(37) बुनियादी शिक्षण-प्रतिमान का शिक्षण-अधिगम में क्या उपयोग है? स्पष्ट कीजिए।
(37) बुनियादी शिक्षण-प्रतिमान का शिक्षण-अधिगम में क्या उपयोग है? स्पष्ट कीजिए। |
उत्तर -
शिक्षण अधिगम में बुनियादी शिक्षण प्रतिमान की उपयोगिता अधिक है। इसका कारण यह है कि यह प्रतिमान शिक्षण तथा अधिगम की 'लक्ष्य निर्देशित ' धारणा पर आधारित है। डीसीको एवं क्राफोर्ड के अनुसार, “प्रतिमान में शिक्षण-क्रिया का स्वरूप कुछ विशेष निर्णयों और उनके अनुकूल सम्पादित कार्यों तथा अभ्यासों के आधार पर घटित होता है न कि शिक्षक एवं विद्यार्थी के व्यक्तिगत अन्तर्सम्बन्धों के द्वारा ।” इसी कारण इस प्रतिमान में शिक्षक के व्यक्तित्व सम्बन्धी गुणों को महत्त्व नहीं दिया गया है। इस प्रतिमान के अनुसरण हेतु शिक्षक की निपुणता परमावश्यक है। इसमें शिक्षण की प्रभावकारिता के लिए शिक्षण की 'व्यक्तिगत करिश्मा' की तुलना में 'निपुणता' को अपेक्षाकृत अधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है । इस प्रतिमान का विशेष आकर्षण शैक्षिक नियोजन तथा पाठों की व्यवस्था पर है। इसलिए अनुदेशनात्मक प्रणालियों को परिष्कृत करने तथा उन्हें सम्बन्धित करने के प्रति इसमें विशेष चेष्टा विद्यमान है। बुनियादी शिक्षण प्रतिमान में शिक्षण एवं पुनर्शिक्षण के क्रम को तब तक चालू रखने की संस्तुति होती है जब तक अपेक्षित अधिगम सम्बन्धी अनुदेशनात्मक उद्देश्यों की प्राप्ति नहीं हो जाती। इसीलिए ‘निष्पादन मूल्यांकन' के अनुसार अनुदेशनात्मक उद्देश्यों, प्रारम्भिक व्यवहार और अनुदेशानात्मक प्रक्रिया तीनों ही संशोधित एवं परिमार्जित किये जाते हैं।
(38) अन्तर्क्रिया प्रतिमान की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए।
(38)अन्तर्क्रिया प्रतिमान की विशेषताओं का उल्लेख कीजिए। |
उत्तर-
अन्तर्क्रिया प्रतिमान की विशेषताएँ- फ़्लैण्डर का दृढ़ मत है क्रि “शिक्षण-व्यवहार का परिप्रेक्ष्य पूर्णतः सामाजिक होता है और उसमें होनेवाली अन्तर्क्रिया को ही शिक्षा मानना चाहिए। यह अन्तर्क्रिया शिक्षक एवं छात्र की पहल एवं अनुक्रिया द्वारा सम्पन्न होती है।” इस प्रकार अन्तर्क्रिया की निम्नलिखित विशेषताएँ मानी जा सकती हैं-
1. इस प्रतिमान के अनुसार शिक्षक तथा छात्रों के मध्य परस्पर सम्पर्क या आदान-प्रदान को कई क्रमिक घटनाओं के रूप में देखा जा सकता है। ये घटनाएँ कक्षा की अन्तर्क्रियात्मक परिस्थिति में एक-दूसरे के व्यवहार को पूर्वापर ढंग से प्रभावित करती रहती हैं। छात्रों में अधिगम उत्पन्न करने के लिए इनका विशेष महत्त्व है।
2. यह प्रतिमान इस बात पर बल देता है कि अधिगम क्रिया के प्रारम्भिक क्षणों में शिक्षक को अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के अतिरिक्त परोक्ष व्यवहार का ही अधिक प्रयोग करना चाहिए ।
3. शिक्षण अधिगम प्रक्रिया के सम्बन्ध में इस प्रतिमान का मुख्य आग्रह यह है कि किसी भी विशिष्ट अनुदेशनात्मक पद्धति का प्रयोग न तो सम्भव है और न आवश्यक है। इसलिए इस प्रतिमान के अन्तर्गत शिक्षण या अनुदेशन के उद्देश्यों का पूर्व निर्धारण भी किया जाता है।
4. अन्तर्क्रिया प्रतिमान के लिए जिन युक्तियों एवं रचना - कौशलों का प्रयोग किया जा सकता है वे प्रत्यक्ष तथा परोक्ष दोनों ही रूपों में प्रयुक्त हो सकते हैं। शिक्षक द्वारा अनुप्रयुक्त व्यवहार छात्रों की पराश्रयता और उनकी उपलब्धि को बढ़ाता है जबकि शिक्षक द्वारा अनुप्रयुक्त परोक्ष व्यवहार उनकी पराश्रयता को कम करता तथा उपलब्धि को बढ़ाता है ।
5. इस प्रतिमान के अन्तर्गत शिक्षण का स्वरूप शिक्षण उद्देश्यों तथा शिक्षण के रचना - कौशलों से प्रभावित न होकर शिक्षक - छात्र अन्तर्क्रिया एवं उनकी मात्रा पर निर्भर होता है। इसलिए कक्षा - शिक्षक को एक खुले वातावरण के रूप में रखने की संस्तुति की जाती है।
(40) पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान क्या है?
(40) पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान क्या है? |
उत्तर-
इस प्रतिमान का विकास रिचर्ड सकमैन ने किया है। इसमें व्यक्तिगत क्षमताओं का विकास किया जाता है जिससे वह सामाजिक क्षमताओं का विकास और समायोजन कर सके ।
उद्देश्य - व्यक्तिगत क्षमताओं का विकास कराना तथा सिद्धान्तों का बोध कराना इस प्रतिमान के प्रमुख उद्देश्य हैं।
Steps :
I. समस्या, II. समस्या से सम्बन्धित सूचनाओं का संकलन, III. आव्यूह का चुनाव ।
संरचना - इस प्रतिमान में तीन सोपानों का प्रयोग किया जाता है। प्रथम सोपान में समस्या को पहचानना जिसमें छात्र तनाव का अनुभव करें। द्वितीय सोपान में छात्र समस्या के सम्बन्ध में सूचनाओं का संकलन करना। शिक्षक से छात्र स्वयं वातावरण की अन्तःप्रक्रिया से प्रत्ययों को एकत्रित कर लेते हैं। तनाव की परिस्थिति के समाधान के लिए परिकल्पनायें प्रस्तुत करने के लिए दिशा प्रदान करता है।
तृतीय सोपान में छात्र तथा शिक्षक दोनों ही मिलकर समस्या के लिए समुचित आव्यूह के सम्बन्ध में निर्णय लेते हैं। इसके द्वारा छात्रों में कारण प्रभाव और उनमें सम्बन्ध स्थापित करने की क्षमताओं का विकास होता है।
सामाजिक प्रणाली- कक्षा का वातावरण ऐसा होता है कि शिक्षक और छात्र एक-दूसरे को सहयोग देते हैं। शिक्षक का दृष्टिकोण आलोचनात्मक होता है। शिक्षक समस्त क्रियाओं को नियन्त्रित करता है। शिक्षक बौद्धिक वातावरण उत्पन्न करने का प्रयास करता है। शिक्षक छात्रों को सूचनायें एकत्रित करने के लिए प्रोत्साहित करता है। शिक्षक द्वितीय एवं तृतीय सोपान में अधिक क्रियाशील रहता है और सूचनायें एकत्रित करने में छात्रों की सहायता भी करता है।
मूल्यांकन प्रणाली - यह प्रतिमान पाठ्य वस्तु से सम्बन्धित विशेष प्रकार की समस्याओं के शिक्षण के लिए प्रयुक्त किया जाता है। छात्रों को समस्याओं की अनुभूति कराने के लिए शिक्षक अनेक उदाहरण प्रस्तुत करता है। प्रशिक्षण में उनकी आवश्यकताओं का उल्लेख करता है । इसके मूल्यांकन के लिए प्रयोगात्मक परीक्षायें प्रयुक्त की जाती हैं और यह ज्ञात किया जाता है कि छात्र अपनी समस्याओं का समाधान करके अपने कार्य को कितने प्रभावशाली ढंग से कर सकते हैं।
प्रयोग --इस प्रतिमान का प्रयोग वैज्ञानिक विषयों के बोध के लिए किया जाता है जिससे छात्र अपनी सूचनाओं का विश्लेषण करें तथा अन्य आव्यूहों से तुलना करें। इसमें पारस्परिक सम्बन्धों का विकास होता है।
(41) प्रभुत्व या पूर्णज्ञान अधिगम प्रतिमान क्या है?
(41) प्रभुत्व या पूर्णज्ञान अधिगम प्रतिमान क्या है? |
उत्तर -
यह मॉडल जॉन बी. कारूल तथा बेंजामिन ब्लूम द्वारा 1971 में प्रस्तुत किया गया था। यह प्रतिमान छात्रों द्वारा विषय में संतोषजनक अधिगम प्राप्त करने के उद्देश्य से बनाया गया है। यह प्रतिमान इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक छात्र अपनी गति से सीखते हैं, कुछ जल्दी तथा कुछ धीमे । किन्तु यदि हम उचित अधिगम सामग्री, निश्चित निर्देशों के साथ अधिक समय के लिए छात्रों को प्रदान करेंगे तो सभी छात्र अपनी क्षमता के अनुसार कम या अधिक समय में विषय पर स्वामित्व अवश्य प्राप्त कर लेंगे ।
यह प्रतिमान छात्रों को अपनी गति से अपनी क्षमता के अनुसार सीखने के व्यक्तिगत अवसर प्रदान करता है।
उद्देश्य-संक्षिप्त सुसम्बन्ध, नियोजित तथा रुचिपूर्ण विधि द्वारा छात्रों का अधिगम स्वामित्व प्रदान करने के व्यक्तिगत अवसर प्रदान करना ।
संरचना - इस प्रतिमान की संरचना / प्रारूप इस प्रकार है-
(1) छात्रों को स्वयं अपनी गति से सीखने अनुरूप प्रदान करना।
(2) छात्रों को विषय विशेष में अधिगम स्वामित्व प्रदान करना ।
(3) छात्रों में स्वयं -अनुक्रिया तथा स्वयं
दिशा-निर्देशन के गुणों का विकास करना । (4) छात्रों को स्व-मूल्यांकन एवं सीखने के लिए प्रेरित करना। तकनीकी की सहायता से सीखने की प्रक्रिया को रोचक एवं व्यक्तिगत आधार प्रदान करना।
उदाहरण - अभिक्रमित अनुदेशन प्रणाली इसी प्रतिमान पर आधारित है।
(1) इस प्रतिमान में विषय-वस्तु को सूक्ष्म किन्तु क्रमित इकाइयों में विभाजित किया जाता है।
(2) प्रत्येक इकाई के उद्देश्य निर्धारित किये जाते हैं ।
(3) इकाइयों के अनुसार अधिगम सामग्री का निर्माण किया जाता है ।
(4) प्रत्येक इकाई के बाद उसका वस्तुनिष्ठ निदानात्मक परीक्षण का निर्माण किया जाता है।
(5) प्रत्येक इकाई को सफलतापूर्वक पूर्ण करने पर पुनर्बलन प्रदान किया जाता है।
सामाजिक प्रणाली -
यह प्रतिमान इस मान्यता पर आधारित है कि प्रत्येक छात्र अपनी गति से सीखता है। अतः इस प्रतिमान को अपनाने के लिए छात्रों को सीखने के व्यक्तिगत अवसर प्रदान करने होंगे। कक्षा में ऐसी व्यवस्था करनी होगी जिसमें छात्रों को सीखने का अधिकतम समय दिया जाए।
मूल्यांकन प्रणाली-
इसमें प्रत्येक इकाई का मूल्यांकन किया जाता है। यह साधारण मूल्यांकन न होकर निदानात्मक रूप में होता है। अर्थात् प्रत्येक छात्र का मूल्यांकन व्यक्तिगत रूप से किया जाता है तथा उसे स्वमूल्यांकन के लिए प्रेरित किया जाता है, इस मूल्यांकन का उद्देश्य अधिगम में आने वाली कठिनाइयों को दूर कर उसे अधिगम - स्वामित्व प्रदान करता है।
प्रयोग-अभिक्रमित अनुदेशन प्रणाली, व्यक्तिगत निर्देशन प्रणाली इसी प्रतिमान पर आधारित हैं
(42) प्रत्यय निष्पत्ति प्रतिमान क्या है?
(42) प्रत्यय निष्पत्ति प्रतिमान क्या है? |
उत्तर- प्रत्यय निष्पत्ति प्रतिमान का विकास जे. ब्रूनर ने किया था। यह आगमन तर्क के विकास के लिए उपयोगी है।
(1) उद्देश्य - इस प्रतिमान द्वारा भाषा का बोध तथा कौशल का विकास किया जाता है। प्रमुख रूप से इसका उद्देश्य आगमन तर्क का विकास करना है ।
(2) संरचना- इसमें चार सोपानों का अनुसरण किया जाता है।
प्रथम सोपान - प्रदत्तों का प्रस्तुतीकरण किया जाता है, जिसमें उदाहरणों का उल्लेख करने से प्रत्ययों का विकास किया जाता है।
द्वितीय सोपान - छात्र प्रत्यय की व्यूह रचना का विश्लेषण करता है। इसमें छात्र अपने सीखने की गति का विकास करता है ।
तृतीय सोपान-छात्र प्रत्ययों के विश्लेषण का आलेख लिखित रूप में प्रस्तुत करता है। इस सोपान का लक्ष्य ज्ञान वृद्धि करना है।
चतुर्थ सोपान - छात्र प्रत्ययों के लिए अभ्यास करते हैं। छात्रों को प्रत्यय विकास में सहायता दी जाती है।
(3) सामाजिक प्रणाली - इस प्रतिमान के आरम्भ में शिक्षक (Social System) छात्रों की अधिक सहायता करता है। उन्हें प्रोत्साहित करता है । अन्त में शिक्षक छात्रों को ऐसी दिशा प्रदान करता है कि छात्र अपने प्रत्ययों तथा व्यूह रचना का विश्लेषण आरम्भ कर देते हैं। शिक्षक छात्रों को विश्लेषण करने के लिए अभिप्रेरणा भी देता है। छात्र सबसे सरल एवं प्रभावशाली व्यूह रचना का चयन करता है
- (4) मूल्यांकन प्रणाली - इस प्रतिमान में पाठ्य वस्तु की व्यवस्था इस प्रकार से की जाती है कि प्रत्ययों का बोध हो सके। अतः इसमें इस प्रकार की व्यूह रचना की जाती है जिससे नवीन प्रत्ययों का बोध कराया जा सके। मूल्यांकन में वस्तुनिष्ठ तथा निबन्धात्मक परीक्षाओं को प्रयुक्त किया जा सकता है। लिखित परीक्षायें ही अधिक उपयोगी मानी जाती हैं।
(5) प्रयोग - इसका प्रयोग व्यापक रूप में किया जाता है। भाषा के सीखने तथा प्रत्यय भाषा - विज्ञान तथा व्यवहार के लिए अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतिमान माना जाता है। जब कभी शिक्षक अपने शिक्षण से छात्रों को किसी तथ्य का बोध सही से नहीं करा पाते तब यही प्रतिमान प्रयुक्त किया जाता है। इसका प्रयोग दूरदर्शन पर भी किया जा सकता है।
(43)एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर क्या है?
(43) एप्लीकेशन सॉफ्टवेयर क्या है? |
उत्तर- एप्लीकेशन सॉफ्टेवयर - यह किसी विशिष्ट कार्य को पूर्ण करने के लिए लोगों द्वारा प्रयोग किया जाता है। कुछ सामान्यतया प्रयोग में आने वाले सॉफ्टवेयर निम्न हैं- (a) Word उ Processing Software, (b) Data base Software, (c) Spead sheet Software, (d) Games, (e) Web browsers.
(44) पृच्छा शिक्षण प्रतिमान का वर्णन कीजिए।
(44) पृच्छा शिक्षण प्रतिमान का वर्णन कीजिए। |
उत्तर- पृच्छा प्रशिक्षण प्रतिमान -
इस प्रतिमान के प्रतिपादक रिचर्ड सचमैन हैं। इन्होंने इसका प्रतिपादन 1966 में किया था। डॉ. एस. पी. कुलश्रेष्ठ कहते हैं कि, "यह प्रतिमान बालक के वैयक्तिक विकास एवं मानसिक क्षमताओं में अभिवृद्धि लाता है जिससे बालकों की वैज्ञानिक दिशा एवं प्राकृतिक शक्तिशाली खोजों के लिए प्रशिक्षण प्राप्त हो सके। "
यह प्रतिमान वैज्ञानिक विचारधारा पर आधारित है जो विद्वत्तापूर्ण पूछताछ के लिए प्रशिक्षित करता है। इसमें छात्रों को शंका समाधान के पूर्ण अवसर दिये जाने चाहिये तथा अनुशासित रहते हुए अपनी शंकाओं का समाधान करते रहना चाहिये । सचमैन का विश्वास अथवा मानना था कि "बालक का स्वभाव से ईमानदार एवं जिज्ञासु प्रवृत्ति का होना आवश्यक है। पूछताछ की प्रक्रिया से बच्चों में पूछताछ के कौशल का विकास होता है । "
इस प्रतिमान का प्रमुख लक्ष्य विद्यार्थी में पूछताछ की कुशलता का विकास करना है ताकि वह सामाजिक क्षमताओं का विकास और समायोजन कर सके। इसका विकास सीखने इच्छुक व्यक्तियों के लिए किया गया है। सचमैन का विचार था कि ज्ञान परिवर्तनशील है यह स्थायी न होकर परिस्थितियों के अनुकूल परिवर्तित होता रहता है। इसी कारण व्यक्ति में कुछ न कुछ सीखने की इच्छा निरन्तर रहती है। वह अपनी जिज्ञासा को शान्त करने हेतु पूछताछ करता रहता है । जिस प्रकार वैज्ञानिक किसी नये नियम या सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं उसी प्रकार छात्र भी वैज्ञानिक ढंग से पूछताछ द्वारा समस्या की जाँच करते हैं। जाँच करने की यह प्रक्रिया ही पूछताछ प्रशिक्षण है। सचमैन कहते हैं कि छात्रों को स्वतंत्रतापूर्वक पूछताछ के अवसर देने चाहिए लेकिन क्रमबद्धता व अनुशासन का ध्यान रखा जाये ।
(45) कम्प्यूटर की उपयोगिता बताइए
(45) कम्प्यूटर की उपयोगिता बताइए |
अथवा शिक्षा में कम्प्यूटर्स की उपयोगिता की विवेचना कीजिए।
अथवा शिक्षा में कम्प्यूटर की उपयोगिता की संक्षिप्त में व्याख्या कीजिए।
अथवा शिक्षा में कम्प्यूटरों के उपयोग की विवेचना कीजिए ।
उत्तर-
(i) घर-घरों में भी इसका स्थान महत्त्वपूर्ण है। घरेलू मशीनों के संचालन में यह महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। इसके अतिरिक्त इंटरनेट के द्वारा कई प्रकार की उपयोगी जानकारियाँ उपलब्ध होती हैं। पैंसों का हिसाब-किताब, शैक्षिक क्षेत्र, मनोरंजन आदि में कम्प्यूटर अच्छा कार्य करता है।
(ii) इंजीनियरिंग ग्राफिक्स- ग्राफिक्स के द्वारा नई-नई डिजाइन को सरलता से बनाया एवं परिवर्धित भी किया जाता है।
(iii) पत्रकारिता-विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं एवं अखबारों के प्रकाश में इसका महत्त्वपूर्ण योगदान है।
(iv) बैंक - बैंक तो कम्प्यूटर के बिना पंगु है ।
(v) विभिन्न अनुसन्धान - विभिन्न प्रकार के अनुसंधान में कम्प्यूटर प्रयोग बहुत ज्यादा होता है
। (vi) स्वास्थ्य - अस्पताल में विभिन्न तरह के रिकार्ड, दवाइयों का निर्माण, स्वास्थ्य सम्बन्धी मशीनों का संचालन आदि का कार्य कम्प्यूटर के द्वारा सुगमता से होता है।
(vii) शिक्षा - शिक्षा में तो इसका प्रयोग अनगिनत है। विद्यालयों में तो आजकल उपस्थिति, परीक्षा परिणाम, शिक्षण कार्य सम्बन्धी तथ्यों का लेखा-जोखा इसके द्वारा सरलता से होता है । प्रतियोगी परीक्षाओं में तो कम्प्यूटर के बिना परिणाम निकालना अत्यधिक कठिन है। नवीन अनुसन्धानों में कम्प्यूटर अत्यधिक योगदान देता है। इसके द्वारा नवीन खोजों को प्रिन्ट करके सरलता से जन सामान्य तक पहुँचाया जा सकता है । विद्यार्थी इसके प्रयोग में नई-नई बातें सरलता से सीख लेते हैं।
(viii) अंतरिक्ष विज्ञान - अंतरिक्ष में यात्रा कम्प्यूटर के उपयोग के बगैर असम्भव है। गणनाओं से लेकर नवीनतम भविष्यवाणियाँ एवं सम्भावनाओं से हमें कम्प्यूटर ही परिचित कराता है।
(ix) ऑफिस - निजी एवं सरकारी ऑफिस में कम्प्यूटर अत्यधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है। पुराने समय में फाइलों का गट्ठर बना रहता था। आजकल तो सब एक चिप में आ जाता है। यही नहीं उसकी नई कॉपी भी उपलब्ध हो सकती हैं । लेखा विभाग कार्य के लिए कम्प्यूटर एक वरदान की तरह है।
(x) हवाई यात्रा - हवाई जहाज को उड़ान भरने से लेकर टिकट की बुकिंग तक सभी क्रियाओं का संचालन कम्प्यूटर के बिना सम्भव नहीं ।
(xi) रेलवे - रिजर्वेशन - विश्व में चलने वाली लाखों रेलगाड़ियों में सफर करने वाले करोड़ों यात्री कम्प्यूटर के बगैर सुविधाजनक तरीके से यात्रा नहीं कर सकते। टिकट लेना, कैन्सिल कराना आदि इसके बगैर श्रमसाध्य है ।
(46)सम्प्रेषण से आप क्या समझते हैं? सम्प्रेषण के प्रमुख प्रतिमानों का वर्णन कीजिए
(46)सम्प्रेषण से आप क्या समझते हैं? सम्प्रेषण के प्रमुख प्रतिमानों का वर्णन कीजिए |
उत्तर- सम्प्रेषण का अर्थ एवं परिभाषा
सम्प्रेषण के लिए अंग्रेजी भाषा में 'Communication' शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसकी उत्पत्ति लैटिन भाषा के 'Communis' शब्द से हुई है । 'Communis' शब्द का अर्थ है 'जानना या समझना'। 'Communis' शब्द को 'Common ' शब्द से लिया गया है। सम्प्रेषण का अर्थ हैं किसी विचार या तथ्य को कछ व्यक्तियों में सामन्यतया 'Common' बना देना। इस प्रकार सम्प्रेषण या संचार शब्द से आशय है, तथ्यों, सूचनाओं, विचारों आदि को भेजना या समझना ।
इस प्रकार सम्प्रेषण एक द्विमार्गी प्रक्रिया है जिसके लिये आवश्यक है कि यह सम्बन्धित व्यक्तियों तक उसी अर्थ में पहुँचे जिस अर्थ में सम्प्रेषणकर्ता ने अपने विचारों को भेजा है।
यदि सन्देश प्राप्तकर्ता, सन्देश वाहक द्वारा भेजे गये सन्देश को उस रूप में ग्रहण नहीं करता है, तो सम्प्रेषण पूरा नहीं माना जायेगा । अतः सम्प्रेषण का अर्थ विचारों तथा सूचनाओं को एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक इस प्रकार पहुँचाना है कि वह उसे जान सके तथा समझ सके ।
एडविन बी. फिलप्पों के शब्दों में, “संदेश सम्प्रेषण या संचार अन्य व्यक्तियों को इस तरह प्रोत्साहित करने का कार्य है, जिससे वह किसी विचार का उसी रूप में अनुवाद करे जैसा कि लिखने या बोलने वाले ने चाहा है।” अतः सम्प्रेषण एक ऐसी कला है जिसके अन्तर्गत विचारों, सूचनाओं, सन्देश एवं सुझावों का आदान प्रदान चलता है।
सम्प्रेषण के प्रतिमान
1. शैमन - वीवर प्रतिमान- सम्प्रेषण के सन्देशबद्ध सिद्धान्त का प्रतिपादन शैमन-वीवर द्वारा किया गया। शैमन - वीवर के अनुसार सम्प्रेषण प्रक्रिया में पाँच तत्व निहित हैं जो सूचना स्रोत से प्रारम्भ होकर प्रेषक द्वारा कोलाहल स्रोत को पार करते हुए सन्देश के रूप में उनके लक्ष्य तक प्राप्तकर्ता के पास सम्प्रेषित होते हैं।
2. सूचना स्त्रोत - यह सम्प्रेषण प्रक्रिया का प्रारम्भ है जो आज के वैज्ञानिक युग में सूचना एक साधन बन चुकी है। प्रबन्धन को उचित निर्णय लेने में सूचना अनिवार्य भूमिका निभाती है। अतः सूचना ही एक ऐसा स्रोत है जिसके द्वारा व्यक्तियों की सोच-समझ को परिवर्तित किया जा सकता है । सम्प्रेषण प्रक्रिया में सूचना स्रोत से ही मनुष्य के मस्तिष्क में विचारों की उत्पत्ति होती है जो सन्देश के रूप में परिवर्तित होकर अपने गन्तव्य स्थान तक पहुँचता है |
3. प्रेषक - जिस व्यक्ति द्वारा संदेश को प्रेषित किया जाता है, वह सम्प्रेषण में प्रेषक कहलाता है। शैमन तथा वीवर मॉडल के अनुसार सम्प्रेषण में प्रेषक की अहम भूमिका होती है जो सूचना स्रोत से विचारों को एकत्रित करके सम्प्रेषण के माध्यम से संदेश को उनके प्राप्तकर्ता तक पहुँचाता है। प्रेषक संदेश को संदेशबद्ध करके भेजता है।
4. कोलाहल स्रोत - इस मॉडल में कोलाहल या शोर स्रोत को भी महत्व दिया गया है । सम्प्रेषण प्रक्रिया में जिस माध्यम से सन्देश प्रेषित होते हैं, उसमें शोरगुल का पाया जाना स्वाभाविक है जिसकी वजह से सन्देश में अशुद्धि भी हो सकती है।
5. प्रापक - सम्प्रेषण का उद्देश्य सन्देश को किसी अन्य तक पहुँचाना होता है। जिसके पास सन्देश प्रेषित किया जाता है, वह सन्देश का प्रापक या प्राप्तकर्ता होता है।
6. लक्ष्य - यह संचार प्रक्रिया की अंतिम कड़ी है जिसको आधार बनाकर सन्देश देने वाला अपना सन्देश देकर अंतिम लक्ष्य की प्राप्ति करता है ।
7. सन्देश - एक ऐसी सूचना जिसे प्रेषक प्राप्तकर्ता के पास भेजना चाहता है वह सन्देश कहलाती है।
(47) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान के उद्देश्य एवं संरचना बताइए।
(47) बुनियादी शिक्षण प्रतिमान के उद्देश्य एवं संरचना बताइए। |
उत्तर-
बुनियादी शिक्षण-प्रतिमान को William Robert Glaser ने 1962 में प्रस्तुत किया था। इस प्रतिमान का केन्द्र-बिन्दु कक्षा-कक्ष में होने वाले क्रियाकलाप तथा कक्षा-कक्ष के बुनियादी पहलुओं पर विचार करना है। उन्होंने कक्षा में शिक्षक तथा छात्र के मध्य होने वाले सामाजिक सम्बन्धों में सुधार द्वारा शिक्षण प्रक्रिया को बेहतर बनाने पर जोर दिया है। इसे प्राथमिक शिक्षण प्रतिमान, कक्षा-कक्ष सभा शिक्षण प्रतिमान तथा मौलिक शिक्षण प्रतिमान के नाम से जाना जाता है ।
उद्देश्य -
छात्र सहभागिता तथा शिक्षक छात्र के माध्य सामाजिक सम्बन्धों को बढ़ाना। छात्र एवं शिक्षक के मध्य अनुशासनबद्धता तथा पारस्परिक स्नेह द्वारा अधिगक को बढ़ावा देना । ज्ञानात्मक, भावात्मक एवं क्रियात्मक पक्ष का सम्यक विकास ।
संरचना- इसमें निम्न चरण होते हैं-
(i) शिक्षक एवं छात्र के मध्य एकाग्रपूर्ण, सहभागितापूर्ण उत्कृष्ट परिवेश का निर्माण करना ।
(ii) समस्या का परिभाषीकरण, प्रस्तुतिकरण तथा वाद-विवाद द्वारा समस्या निवारण की पृष्ठभूमि बनाना ।
(iii) स्वस्थ वातावरण में वाद-विवाद के उपरान्त मूल्यों का निर्धारण करना ।
समस्या-समाधान के विकल्पों का चुनाव करना शिक्षक शिक्षार्थी दोनों की भागीदारी सुनिश्चित करना।
समस्या-समाधान हेतु आपसी सहमति से वचनबद्ध होना ।
समस्या-समाधान से सम्बन्धित निर्णयों का अनुसरण करना ।
सामाजिक प्रणाली -
शिक्षक और शिक्षार्थी परस्पर सहयोग द्वारा समस्या का समाधान ढूँढ़ते हैं। शिक्षक शिक्षण अधिगम के लिए उपयुक्त परिवेश का सृजन करता है। छात्रों की निष्पत्ति को बढ़ाने के लिए पुरस्कार एवं दण्ड की व्यवस्था करता है। शिक्षक की भूमिका स्नेह एवं अनुशासन द्वारा छात्रों के अधिगम को प्रभावी बनाना है ।
मूल्यांकन -
छात्रों की बौद्धिक क्षमता तथा निर्णय लेने की क्षमता का आकलन किया जाता है. इसके लिए निबन्धात्मक तथा वस्तुनिष्ठ दोनों प्रकार के परीक्षण का प्रयोग किया जाता है।
उपयोग- इसका उपयोग छात्रों के व्यक्तिगत गुणों के विकास हेतु किया जाता है, विशेषकर दायित्व-निर्वहन। इससे छात्र स्वयं तथा सहयोगियों के व्यवहार का आंकलन कर सकते हैं।
(49)शैक्षिक उपग्रह किसे कहते हैं?
(49)शैक्षिक उपग्रह किसे कहते हैं? |
उत्तर-
विश्व का सर्वप्रथम स्पूतनिक था जिसे रूस द्वारा 1957 में अन्तरिक्ष में प्रक्षेपित किया गया था। तत्पश्चात् अनेक उपग्रह भिन्न उद्देश्यों, जैसे, रिमोट सेंसिंग, दूर सम्प्रेषण या मौसम की जानकारी हेतु पृथ्वी की कक्षा में स्थापित किये गये । वास्तव में उपग्रह प्रणाली में उपग्रह के अलावा पूरी एक व्यवस्था होती है जो सन्देश भेजने ग्रहण करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। इसमें दो प्रमुख उपकरण होते हैं-पतला ट्रांसमिशन स्टेशन जो जमीन पर स्थिर होता है, जिसे uplink कहते हैं, दूसरा रिसीविंग डिस्क (Receiving disk) जिसे (down link) कहते हैं। uplink द्वारा सिगनल उपग्रह को भेजा जाता है जो उसे कई गुना बढ़ाकर पुनः downlink को भेजता है जिसके द्वारा सन्देश स्थानीय स्टेशनों को भेजा जाता है।
(50)सम्प्रेषण तकनीकी से आप क्या समझते हैं? विवेचना कीजिए।
(50)सम्प्रेषण तकनीकी से आप क्या समझते हैं? विवेचना कीजिए। |
उत्तर-
सम्प्रेषण तकनीकी
शिक्षा तकनीकी ने शिक्षण का वैज्ञानिक विश्लेषण करते हुए शिक्षण प्रक्रिया को मुख्य रूप से दो भागों में बाँटा है। ये हैं-विषय-वस्तु और सम्प्रेषण | शिक्षण के उद्देश्यों को ध्यान में रखते हुए विषय-वस्तु का निर्धारण किया जाता है तथा उद्देश्यों के सन्दर्भ में ही उक्त विषय-वस्तु का क्रमबद्ध विश्लेषण एवं व्यवस्था की जाती है। शिक्षण की प्रक्रिया का दूसरा पक्ष सम्प्रेषण है । विषय-वस्तु को छात्रों तक सरलतापूर्वक तथा प्रभावी ढंग से पहुँचाने के लिए जिस प्रविधि का प्रयोग किया जाता है, उसे सम्प्रेषण कहते हैं। वस्तुतः सम्प्रेषण माध्यम का चयन विषय-वस्तु के स्वरूप और उसकी प्रकृति पर निर्भर करती है। विषय-वस्तु को प्रभावपूर्ण ढंग से छात्रों तक पहुँचाने के लिए जिन अनेक प्रकार के शिक्षण माध्यमों का प्रयोग किया जाता है, उन सबको सम्प्रेषण तकनीकी के अन्तर्गत सम्मिलित किया जाता है।
सम्प्रेषण तकनीकी का अभिप्राय - वस्तुतः मनुष्य सम्प्रेषण विधि की जैविकीय प्रणाली होता है, किन्तु जब वह अपने विस्तार के लिए इस जैविकीय प्रणाली से भिन्न अन्य किसी बाहरी तत्त्व या वस्तु का प्रयोग करता है; जैसे–फिल्म, टेपरिकॉर्डर, दूरदर्शन, कम्प्यूटर, रेडियो इत्यादि तो इन्हें सम्प्रेषण माध्यम के रूप में जाना जाता है ।
(51)सम्प्रेषण तकनीकी को परिभाषित कीजिए।
(51) सम्प्रेषण तकनीकी को परिभाषित कीजिए। |
उत्तर-
कीथ डेविस ने संचार के अर्थ को स्पष्ट करते हुए लिखा है, “संचार एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक सूचना एवं समझ को पहुँचाने की प्रक्रिया है । "
न्यूमेन एवं समर ने संचार के अर्थ के विषय में लिखा है, “संचार दो या दो से अधिक व्यक्तियों के मध्य तथ्यों, विचारों, सम्मतियों अथवा भावनाओं का विनिमय है । "
डी.ई. मेक फारलैण्ड ने संचार के विषय में लिखा है, "संचार को विस्तृत रूप से मानव- प्राणियों के मध्य अर्थपूर्ण अन्तर्क्रिया की प्रक्रिया के रूप में परिभाषित किया जा सकता है।"
शिक्षा - शब्दकोष में संचार का अर्थ इस प्रकार स्पष्ट किया गया है, " संचार भाषा के प्रयोग अथवा अन्य चिह्नों एवं प्रतीकों के माध्यम से सूचना देने वाले और भाष्यकार के मध्य उनकी उदभूत प्रतिक्रियाओं से सामान्य अर्थों की जागृति है ।"
(52A) संचार प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए ।
(52A) संचार प्रक्रिया को स्पष्ट कीजिए । |
उत्तर-
संचार - प्रक्रिया
संचार एक सामाजिक प्रक्रिया है, जिसके द्वारा मानवीय सम्बन्ध स्थापित तथा विकसित होते हैं। संचार की प्रक्रिया में सर्वप्रथम जो व्यक्ति संदेश भेजता है, वह संदेश बनाता है, उसे लिखता है, फिर किसी-न-किसी माध्यम के द्वारा (जैसे- रेडियो, टेलीफोन, तार, भाषण आदि) संदेश प्रेषित करता है । प्रेषित संदेश जहाँ पहुँचता है, वहाँ उसे पढ़कर डीकोड किया जाता है और संदेश जिसके लिए है, उस तक उसे पहुँचाते हैं। यह व्यक्ति संदेश प्राप्ति की सूचना देता है । इस प्रकार संचार की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है।
प्रेषक- -संदेश --संदेश अर्थ को निहित करना --प्रापक --निहित अर्थ को समझना -- प्रतिपुष्टि
(52B)सम्प्रेषण तकनीकी की विशेषताएँ बताइए।
(52B) सम्प्रेषण तकनीकी की विशेषताएँ बताइए। |
उत्तर-
संचार तकनीकी की विशेषताएँ -
उपर्युक्त परिभाषाओं के संचार तकनीकी की निम्नलिखित विशेषताएँ हो सकती हैं-
(1) संचार तकनीकी पारस्परिक सम्बन्ध स्थापित करने की एक प्रक्रिया है।
(2) इसमें विचार- विमर्श तथा विचार-विनिमय पर विशेष ध्यान दिया जाता है।
(3) इसमें एक संदेश देने वाले तथा दूसरे संदेश ग्रहण करने वाले दो पक्ष होते हैं।
(4) सम्प्रेषण प्रक्रिया एक उद्देश्ययुक्त प्रक्रिया होती है ।
(5) संचार तकनीकी में मनोवैज्ञानिक एवं सामाजिक पक्ष समावेशित होते हैं।
(6) प्रभावशाली संचार तकनीकी उत्तम शिक्षण के लिए विशेष उपयोगी है ।
( 7 ) संचार प्रक्रिया में प्रत्यक्षीकरण सम्मिलित रहता है ।
(53)संचार प्रक्रिया के प्रमुख तत्त्वों का वर्णन कीजिए ।
(53)संचार प्रक्रिया के प्रमुख तत्त्वों का वर्णन कीजिए । |
उत्तर-
संचार प्रक्रिया के तत्त्व संचार प्रक्रिया में निम्नांकित तत्त्वों का होना आवश्यक है-
1. संदेश का स्त्रोत-
किसी व्यक्ति द्वारा प्रदत्त शाब्दिक या अशाब्दिक संकेत संदेश स्रोत कहे जाते हैं। संदेश स्रोत व्यक्ति को संदेश भेजने वाला कहते हैं। संचार प्रक्रिया संदेश स्रोत से ही प्रारम्भ होती है, जो संदेश की विषय-वस्तु निर्धारित करता है, उसका कोडिंग तथा प्रसारण भी करता है।
2. संदेश -
लिखित संकेतों के रूप में अथवा व्यक्ति की मुखमुद्रा या हाव-भाव के रूप में संदेश दिया जा सकता है। संदेश किसी संकेत द्वारा जैसे पोस्टर/चार्ट / पम्पलेट द्वारा अथवा सूचना पैकेज के रूप में भी प्रेषित किया जा सकता है।
3. संचार का माध्यम-
वे साधन जिसके द्वारा कोई संदेश, संदेश- स्रोत से संदेश ग्रहणकर्त्ता तक पहुँचता है, उन्हें संचार का माध्यम कहते हैं। माध्यम प्रत्यक्षीकरण की संवेदनाएं होती हैं, जो दिखने, सुनने, स्पर्श करने, स्वाद बताने वाली अथवा गंध वाली हो सकती है। संचार के माध्यम द्वारा संदेश भौतिक रूप में प्रेषित किये जाते हैं।
5. संकेत या प्रतीक ये प्रतीक या संकेत वे हैं, जो किसी अन्य वस्तु का प्रतिनिधित्व करते हैं। ये संकेत शाब्दिक अथवा अशाब्दिक भी हो सकते हैं। शब्द स्वयं में संकेत या प्रतीक हैं।
(54) संचार के प्रकार बताइए।
(54) संचार के प्रकार बताइए। |
उत्तर-
संचार के प्रकार
शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को गत्यात्मक, सक्रिय तथा जीवन्त बनाने के लिये संचार की निरन्तरता आवश्यक होती हैं। शिक्षा के क्षेत्र में संचार को कई प्रकार से वर्गीकृत किया जा सकता है- माध्यम पर आधारित
1. शाब्दिक संचार-जिस संचार में भाषा का प्रयोग होता है, उसे शाब्दिक संचार कहते हैं। यह संचार मौखिक रूप में वाणी द्वारा तथा लिखित रूप में शब्दों अथवा संकेतों के द्वारा, विचार अथवा भावनाओं को दूसरों के समक्ष प्रस्तुत करने में प्रयुक्त होता है
2. अशाब्दिक संचार- इसमें भाषा का प्रयोग नहीं किया जाता है। इसमें वाणी संकेत, चक्षु- -सम्पर्क तथा मुख मुद्राओं के प्रयोग एवं स्पर्श- सम्पर्क आदि तरीकों से तथ्य / सूचना / संदेश पहुँचाए जाते हैं
(55) सम्प्रेषण के आधुनिक साधन बताइए।
(55) सम्प्रेषण के आधुनिक साधन बताइए। |
उत्तर - सम्प्रेषण के कुछ प्रमुख आधुनिक साधन निम्नलिखित हैं-
(1) इलेक्ट्रॉनिक बुलेटिन बोर्ड,
(2) सेल्युलर फोन्स,
(3) सुबोध तन्त्र,
(4) इण्टरनेट,
(6) वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग,
(7) सिटीजन बैण्ड रेडियो,
(8) फैक्स,
(9) उपग्रह सम्प्रेषण,
( 10 ) ई - मेल ।
(56) सेल्युलर फोन्स क्या है? इसके लाभ व हानि बताइए |
(57) सेल्युलर फोन्स क्या है? इसके लाभ व हानि बताइए | |
उत्तर -
सेल्युलर शब्द की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के 'सेल' (Cell) शब्द से हुई है जिसका अर्थ है कोशिका । यह मौखिक सम्प्रेषण की अत्यन्त प्रचलित तकनीक है। यह देखने में काफी छोटा होता है तथा इसे आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है। इसमें केबल लगाने की जरूरत नहीं होती । इसे मोबाइल फोन भी कहा जाता है। सेल फोन को आसानी से जेब में रख सकते हैं।
सेल्युलर टेलीफोन पद्धति में एक बड़े क्षेत्र को छोटे-छोटे क्षेत्रों में बाँट देते हैं। इसमें प्रत्येक क्षेत्र का अपना अलग-अलग ट्रांसमीटर होता है। रिसीवर में एक विशेष प्रकार का एण्टीना लगा होता है जैसे ही बटन दबाया जाता है उसका सम्पर्क अपने क्षेत्र के ट्रांसमीटर से स्थापित हो जाता है। इसमें सम्पूर्ण प्रक्रिया स्वचालित होती है तथा एक ही समय में एक ही आवृत्ति पर कई व्यक्ति बातचीत कर सकते हैं
सेल्युलर का प्रयोग किसी भी वाहन में तथा देश में कहीं भी किया जा सकता है। लेकिन वहाँ सम्प्रेषण पद्धति की सुविधा अवश्य होनी चाहिए। प्राकृतिक आपदा (बाढ़, भूकम्प) के समय सेल्युलर फोन अत्यन्त लाभदायक सिद्ध होते हैं।
लाभ—(1) इससे व्यक्तियों का समय बचता है,
(2) इनके द्वारा परम्परागत टेलीफोन से भी सम्पर्क स्थापित किया जा सकता है,
(3) इन पर प्राकृतिक आपदाओं का कोई प्रभाव नहीं पड़ता,
(4) इसे आसानी से कहीं भी ले जाया जा सकता है,
(5) इसे जेब में रखा जा सकता है,
(6) इससे सन्देश भेजा जा सकता है,
(7) इनका प्रयोग वाहन में अथवा यात्रा करते समय भी किया जा सकता है।
हानियाँ -
(1) मोबाइल खोने का भय लगा रहता है।
(2) मोबाइल फोन का नम्बर भारत में कम- से-कम 10 अंकों का होता है,
(3) यह काफी महँगा होता है,
(4) वाहन चलाते समय इनका प्रयोग करने के कारण दुर्घटना भी हो सकती है।
(58) फैक्स क्या है? इसके लाभ बताइए।
(58) फैक्स क्या है? इसके लाभ बताइए। |
उत्तर-
आविष्कार- फैक्स पद्धति का प्रयोग सर्वप्रथम स्कॉटलैण्ड के वैज्ञानिक अलेक्जेंडर सेन ने सन् 1842 ई0 में किया। सन् 1865 ई० में फ्रांस में एक चक्रीय ड्रम का प्रयोग करके फैक्स तन्त्र का निर्माण किया गया। फैक्स का पूर्णतः विकास सन् 1980 ई0 में हुआ। 'फैक्स' की उत्पत्ति अंग्रेजी भाषा के शब्द 'फेसिमिली' शब्द से हुई है। 'फेसिमिली' लैटिन भाषा का शब्द हैं। 'फेस' से तात्पर्य 'बनाना' और 'सिमिली' शब्द से तात्पर्य 'उसी के समान' से है। यह पद्धति अन्य पद्धतियों की अपेक्षा सस्ती है । जब सम्प्रेषक तथा सन्देश प्राप्तकर्त्ता के मध्य दूरी बहुत अधिक होती हैं तब उस स्थिति में इस पद्धति का प्रयोग अत्यन्त उपयोगी तथा लाभदायक सिद्ध होता है।
फैक्स सम्प्रेषण की एक आधुनिक तथा सरल विद्युतीय तकनीक है। इसके अन्तर्गत मुद्रित अथवा लिखित सूचना अथवा मूल दस्तावेजों की फोटो कापी टेलीफोन के माध्यम से एक जगह से दूसरी जगह पर भेजी जाती है।
कार्यप्रणाली - जो सन्देश फैक्स किया जाने वाला है सर्वप्रथम उसे स्केनिंग प्रक्रिया से गुजारा जाता है। सन्देश मुद्रित अथवा लिखित किसी भी प्रकार का हो सकता है। इसमें यह सूचना अथवा सन्देश विद्युतीय संकेतों में बदल जाता है। जब ये विद्युत संकेत फैक्स रिकॉर्डर से होकर गुजरते हैं, तो प्राप्तकर्त्ता की मशीन में सम्प्रेषित सूचना अथवा सन्देश की प्रतिलिपि प्राप्त हो जाती है। फोटोस्टेट मशीन के द्वारा जिस प्रकार किसी प्रपत्र की प्रतिलिपि प्राप्त हो जाती है, उसी प्रकार फैक्स प्रक्रिया में भी प्रपत्र की फोटो कापी प्राप्त होती है। इस पद्धति में सम्प्रेषक तथा फोटो कापी प्राप्त करने वाला व्यक्ति दोनों भिन्न-भिन्न जगह पर होते हैं। ये दूरी टेलीफोन लाइन के द्वारा जोड़ी जाती है। आधुनिक युग में फैक्स सेवा का महत्त्व निरन्तर बढ़ता जा रहा है । इस पद्धति से सन्देश भेजने की लागत काफी कम आती है तथा संचार की गुणवत्ता में भी सुधार आता है। वर्तमान समय में सभी समाचार-पत्र समूह इस पद्धति का प्रयोग करते हैं।
- लाभ -
(1) इसका प्रयोग शिक्षा, बैंकिंग, बीमा, कृषि, व्यापार, चिकित्सा, स्वास्थ्य इत्यादि के क्षेत्र में अधिक-से-अधिक किया जा रहा है,
(2) वर्तमान समय में फैक्स दैनिक कार्य-पद्धति का एक मुख्य हिस्सा है,
(3) फैक्स सेवा के द्वारा हम अपने मुद्रित तथा लिखित दस्तावेजों को फोटो कापी स्वरूप में सम्बन्धित व्यक्ति तक शीघ्रता से सम्प्रेषित कर सकते हैं,
(4) फैक्स सेवा काफी सस्ती पद्धति है,
(5) फैक्स मशीन द्वारा सन्देशों का सम्प्रेषण काफी आसान हैं,
(6) इससे समय की बचत होती है,
(7) फैक्स मशीन के द्वारा भेजा गया सन्देश पूर्ण रूप से गोपनीय रहता है।
(59) ई-मेल के आशय एवं लाभ बताइए ।
(59) ई-मेल के आशय एवं लाभ बताइए । |
उत्तर - ई-मेल के द्वारा सन्देश एक व्यक्ति दूसरे व्यक्ति को आसानी से एक स्थान से दूसरे स्थान पर भेज सकता है। इसमें सन्देश भेजने की गति काफी तेज होती है। ई-मेल एक ऐसी पद्धति है, जिसके अन्तर्गत कम्प्यूटर के द्वारा सन्देश सम्प्रेषित किया जाता है। इसकी विषय-सामग्री को वर्ड - प्रोसेसर द्वारा तैयार किया जाता है। सन् 1970 ई0 तक ई-मेल को कम्प्यूटर आधारित संचार पद्धति के नाम से जानते थे। ई-मेल पद्धति अत्यन्त तेज पद्धति है। इस पद्धति के द्वारा समय तथा कागज, दोनों की बचत होती है। यह अत्यन्त सस्ती पद्धति है परन्तु इस पद्धति का प्रयोग तभी किया जा सकता है जब दोनों व्यक्तियों के पास इण्टरनेट कनेक्शन अवश्य हो। इस पद्धति में हम जो सन्देश दूसरे व्यक्ति को देना चाहते हैं वह सन्देश सम्बन्धित व्यक्ति के कम्प्यूटर की टी०बी० स्क्रीन पर प्रदर्शित हो जाता है। यदि सम्बन्धित व्यक्ति संदेश भेजने के समय उस स्थान अथवा कम्प्यूटर के सामने नहीं बैठा है तो सम्प्रेषित किया गया वह सन्देश उसके (संदेश पाने वाले) कम्प्यूटर में संचित हो जाता है।
ई-मेल भेजने की विधि अथवा कार्यप्रणाली -
ई-मेल भेजने के लिए कम्प्यूटर के अतिरिक्त इण्टरनेट कनेक्शन तथा अन्य जरूरी उपकरणों के साथ ई-मेल का पता होना भी जरूरी है।
यदि हमें किसी भी व्यक्ति को ई-मेल भेजना है तो हम उसे किसी भी जगह ई-मेल भेज सकते हैं लेकिन वह इण्टरनेट से जुड़ा होना चाहिए। इस प्रक्रिया में सर्वप्रथम विंडो के Start वाले चिह्न पर Click किया जाता है। इससे कम्प्यूटर में जो भी Programme Feed है उनकी सूची सामने आ जाती है। यह सूची Outlook Express भी दिखाती है। जब Outlook Express पर Click किया जाता है तो प्रोग्राम प्रारम्भ हो जाता है। अब स्क्रीन पर एक New E-mail चिह्न दिखाई देता है, फिर इसे Click किया जाता है, अब एक 'New Message' नामक खिड़की खुल जाती है। जिस स्थान पर To लिखा होता है वहाँ पर अपना पता लिख दिया जाता है। जब सन्देश पूरा लिख लिया जाय तो 'New Message' खिड़की के बायीं ओर ऊपर के कोने में Send नामक चिह्न पर Click किया जाता है। इस प्रकार हमारा सन्देश सम्प्रेषित किया जाता है।
ई-मेल को प्राप्त करना -
ई-मेल द्वारा किसी भी सम्प्रेषित सन्देश को प्राप्त करना अत्यन्त सरल है। यदि कम्प्यूटर में E-mail अथवा Outlook Express है तो Internet से जुड़ते ही यह Software अपने आप ही हमारे सन्देश की जाँच करता है। जो सन्देश सम्प्रेषित किया गया होगा वह Computer Screen के निचले हिस्से पर चमकता है। इस प्रकार Outlook Express को खोलकर सन्देश बड़ी आसानी से पढ़ा जा सकता है।
ई-मेल भेजते समय ध्यान रखने योग्य बातें -
(1) सन्देश भेजते समय हमें लापरवाही नहीं बरतनी चाहिए।
(2) सन्देश छोटा होना चाहिए।
(3) यदि कोई सन्देश गलती से आपके पास आ गया है तो उस सन्देश को यथोक्त पते पर प्रेषित करना चाहिए।
(4) सन्देश भेजने वाले को शिष्टाचार तथा सभ्यता के अनुरूप ही व्यवहार करना चाहिए ।
लाभ -
( 1 ) इसमें सन्देश भेजने की गति काफी तेज होती है।
(2) यह अत्यन्त सस्ती पद्धति है।
सीमाएँ -
(1) जब ई-मेल द्वारा संचार प्राप्त कर लिया जाता है तो प्राप्तकर्त्ता को इसके बारे में पता होना जरूरी है।
(2) ई-मेल द्वारा संचार करने के लिए सन्देश प्राप्तकर्ता के पास ई-मेल सुविधा होनी चाहिए।
(60) वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग क्या है?
(60) वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग क्या है? |
उत्तर-
वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग सचित्र संचार का प्रमुख साधन है। यह एक ऐसी पद्धति है जिसके अन्तर्गत आवाज तथा चित्र दोनों का सम्प्रेषण होता है। इसमें भिन्न-भिन्न जगहों पर उपस्थित व्यक्ति 'वास्तविक सभा' (Virtual Meeting) की तरह संचार करते हैं। इसमें संदेशों को सम्प्रेषित करने के साथ- साथ एक-दूसरे से सजीव बातचीत भी की जा सकती है जिससे उनके हाव भाव, भाव-भंगिमा, मुखाभिव्यक्ति का भी संचार हो जाता है। वर्तमान समय में भारत के प्रत्येक जिले में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग की सुविधा उपलब्ध है। वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग प्रक्रिया को दो तरीकों से सम्पन्न किया जा सकता है-
(1) कम्प्यूटर के द्वारा
(2) बिना कम्प्यूटर के द्वारा ।
जो कॉन्फ्रेंसिंग कम्प्यूटर के प्रयोग से सम्पन्न होती है उसे कम्प्यूटर कॉन्फ्रेंसिंग कहते हैं। इसके अन्तर्गत इण्टरनेट कनेक्शन, टेलीफोन कनेक्शन, वेब कैमरा, कम्प्यूटर इत्यादि की आवश्यकता होती है। जो कॉन्फ्रेंसिंग बिना कम्प्यूटर के प्रयोग से सम्पन्न होती है उसे बिना कम्प्यूटर कान्फ्रेंसिंग कहते हैं। इसके अन्तर्गत प्रोजेक्टर सेटेलाइट कनेक्शन, टेलीफोन वीडियो कॉन्फ्रेसिंग मशीन, डिजिटल वेब कैमरा इत्यादि की आवश्यकता होती है।
लाभ -
(1) यह अत्यन्त सस्ती पद्धति है।
(2) इससे समय की बचत होती है।
(3) इस पद्धति के द्वारा श्रव्य तथा दृश्य दोनों ही प्रकार के सन्देशों का सम्प्रेषण किया जाता है।
(4) भिन्न-भिन्न स्थानों पर स्थित अपने कार्यालयों में सन्देश अथवा सूचनाएँ प्राप्त की जाती हैं।
(5) भिन्न-भिन्न जगहों पर बैठे व्यक्ति लगभग आमने-सामने की तरह संचार करते हैं।
(6) संगठन के भिन्न-भिन्न स्रोतों के विभागों तथा शाखाओं से अत्यन्त तीव्र गति से लगभग सीधा संचार होता है।
हानियाँ –
(1) यह पद्धति छोटे तथा स्थानीय संगठनों के लिए उपयुक्त नहीं है।
(2) वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के लिए आवश्यक संसाधन काफी महँगे होते हैं।
(3) यह पद्धति इतनी लोकप्रिय नहीं है।
(61) इण्टरनेट क्या है?
(61) इण्टरनेट क्या है? |
उत्तर-
इण्टरनेट / अन्तरताना
इण्टरनेट एक अत्यन्त शक्तिशाली तथा गतिशील संचार का माध्यम है। इण्टरनेट आधुनिक सम्प्रेषण माध्यम की एक ऐसी पद्धति है जो अलग-अलग जगहों पर स्थापित कम्प्यूटर्स को टेलीफोन लाइन की सहायता से जोड़ता है तथा संचार के लिए एक ऐसा रास्ता तैयार करता है जिससे कि सन्देश तथा सूचना शीघ्रता से पहुँच जाते हैं। इण्टरनेट अंग्रेजी के दो शब्दों से मिलकर बनता है-
(1) इण्टरनेशनल तथा (2) नेटवर्क, जिसका तात्पर्य विश्वव्यापी तन्त्र से है।
भारत में इण्टरनेट BSNL द्वारा संचालित किया जा रहा है। इण्टरनेट का महत्व दिन-प्रतिदिन बढ़ता जा रहा है। आधुनिक समय में इण्टरनेट का प्रयोग भिन्न-भिन्न प्रकार की सूचनाएँ प्राप्त करने में किया जाता है। इण्टरनेट का प्रारम्भ सन् 1986 ई0 में हुआ था। वर्तमान समय में संचार के लिए इण्टरनेट अत्यन्त आवश्यक है। के०के० सिन्हा ने अपनी पुस्तक Business Communication, 2002 ई० में लिखा है कि- "यदि हम संचार के भिन्न-भिन्न माध्यमों की गति व वृद्धि का अवलोकन करें तो हम देखेंगे कि 40 वर्षों में रेडियो 50 मिलियन लोगों तक पहुँचा। जबकि इतने ही लोगों तक पहुँचने के लिए टी०वी० व कम्प्यूटर ने क्रमशः 13 व 16 वर्ष लिये जबकि इण्टरनेट केवल चार वर्षों में ही पचास मिलियन लोगों तक पहुँच चुका है।" इण्टरनेट पर सम्बद्धता के स्तर - इण्टरनेट पर सम्बद्धता के प्रमुख तीन स्तर हैं-
(1) पहले स्तर पर उपभोक्त द्वारा केवल इण्टरनेट पर सूचनाएँ देखी जा सकती हैं।
(2) दूसरे स्तर पर वह इण्टरनेट का एक भाग बन जाता है जिससे यह इण्टरनेट पर सूचनाएँ देख सकता है बल्कि वेबसाइट बनाकर सूचनाएँ भी एकत्रित कर सकता है।
(3) तीसरे स्तर पर वह इण्टरनेट पद्धति का मुख्य भाग बन जाता है। उसका अपना प्रमुख सूचना कम्प्यूटर होता है जिससे दूसरे स्तर के प्रयोगकर्ता अपनी वेबसाइट बना सकते हैं।
आधुनिक समय में कुछ प्रमुख निजी कम्पनियाँ इण्टरनेट सेवाएँ प्रदान कर रही हैं, जैसे - मन्त्रा, सत्यम् इत्यादि। इसके अतिरिक्त MTNL भी इण्टरनेट सेवा प्रदान करता है। केबल ऑपरेटर भी यह सेवाएँ प्रदान करते हैं। देश के लगभग समस्त जिलों में 'Internet Gateway's डाले जा चुके हैं।
(62) इण्टरनेट का प्रयोग बताइए ।
(62) इण्टरनेट का प्रयोग बताइए । |
उत्तर-
(1) आजकल कई कम्पनियाँ, विभागीय स्टोर इत्यादि क्रेडिट कार्ड द्वारा इण्टरनेट के माध्यम से बिक्री करते हैं।
(2) व्यावसायिक संगठन द्वारा इण्टरनेट के माध्यम से विज्ञापन कराये जाते हैं।
(3) बैंकिंग, मोबाइल बैंकिंग तथा ई-बैंकिंग इत्यादि का इस्तेमाल किया जा रहा है।
(4) इण्टरनेट के द्वारा ई-कॉमर्स का विशाल कारोबार बढ़ता जा रहा है।
(5) इण्टरनेट के माध्यम से किसी भी विषय के बारे में पता लगाया जा सकता है।
(6) इस पद्धति का इस्तेमाल प्रायः ब्रांच तथा उनके मुख्यालयों द्वारा आपस में सन्देश संचार में किया जाता है।
(7) इस पद्धति के द्वारा नेटवर्क में समाहित सन्देशों को किसी विशिष्ट विषय के आधार पर समूहों में विभाजित किया जा सकता है।
(8) इसके द्वारा सूचनाओं को विषयानुसार प्रस्तुत किया जा सकता है।
(9) इसके पद्धति के द्वारा व्यक्ति आसानी से वेबसाइट (Website) का पता लगा सकता है।
(10) इस प्रणाली के माध्यम से व्यक्ति शीघ्र ही अपना सन्देश दुनिया में किसी भी स्थान पर भेज सकता है।
(63) इण्टरनेट के प्रयोग से उत्पन्न समस्याएँ बताइए
(63) इण्टरनेट के प्रयोग से उत्पन्न समस्याएँ बताइए |
उत्तर-
(1) अंग्रेजी भाषा का प्रयोग इसकी प्रमुख समस्या है।
(2) इण्टरनेट पर बहुत से साइबर अपराधी वायरस फैलाने का काम करते हैं।
(3) इण्टरनेट पर असीमित ज्ञान तथा सूचनाएँ निहित हैं।
(4) इण्टरनेट पर बम निर्माण की पद्धति के बारे में बताया जाता है ।
(5) इण्टरनेट की एक मुख्य समस्या हैकिंग है। इसके अन्तर्गत किसी व्यक्ति का पासवर्ड चुराकर उसके आँकड़े तथा फाइलों का दुरुपयोग किया जा सकता है
(6) इण्टरनेट पर अश्लील फिल्मों का प्रचलन भी अत्यधिक बढ़ गया है।
(64) उपग्रह सम्प्रेषण पर टिप्पणी लिखिए।
(64) उपग्रह सम्प्रेषण पर टिप्पणी लिखिए। |
उत्तर-
उपग्रह सम्प्रेषण
सेल्युलर टेलीफोन, ई-मेल, इन्टरनेट इत्यादि का उपयोग संचार उपग्रह के माध्यम से किया जाता है, लेकिन वर्तमान समय में इण्टरनेट, सेल्युलर फोन इत्यादि पर जरूरत से अधिक भार पड़ने लगा है जिससे सम्पर्क आसानी से नहीं हो पाता। निगम एवं कम्पनियों को जिन्हें विशाल तथा व्यापक क्षेत्र में संचार करना पड़ता है, इस बाधा द्वारा समस्याओं का सामना करना पड़ता है । इन समस्याओं के समाधान के लिए स्वयं के या किराये पर लिये उपग्रह द्वारा अपने सम्पूर्ण संचार तन्त्र को अधिक सक्रिय बनाने का प्रयत्न किया जाता है। जब उपग्रह स्वयं का होता है, तो संचार तथा सम्पर्क में आने वाली बाधाएँ बहुत कम हो जाती हैं।
(65)पेजर क्या है?
(65)पेजर क्या है? |
उत्तर - भारत में सर्वप्रथम 1982 ई० में एशियन गेम्स के समय पेजर का प्रयोग किया गया था। यह आयताकार 31⁄2 इंच लम्बा तथा 21⁄2 इंच चौड़ा एक छोटा-सा उपकरण होता है। इसमें जो सन्देश आते हैं उन्हें वह लिखित रूप में उपकरण की स्क्रीन पर दिखाता है। इसका बेतार कनेक्शन पेपर बॉक्स से होता है। जब कोई सन्देश आता है तो यह उपकरण पीप- पीप की ध्वनि करता है तथा यन्त्रधारक बटन जुड़ा दबाकर सन्देश प्राप्त कर लेता है।
लाभ -
(1) पेजधारक का संगठन से निरन्तर सम्पर्क बना रहता है।
(2) इस यन्त्र को जेब में आसानी से डालकर कहीं भी घूमा जा सकता है।
सीमाएँ -
(1) इसमें सबसे बड़ा दोष यह है कि सन्देश प्राप्तकर्त्ता केवल सन्देश प्राप्त कर सकता है, सन्देश भेज नहीं सकता ।
(2) इसका एक निश्चित क्षेत्र होता है।
( 3 ) यह केवल निश्चित भाषा में ही लिखित सन्देश प्राप्त करता है ।
(66)इलेक्ट्रॉनिक मेल क्या है?
(66)इलेक्ट्रॉनिक मेल क्या है? |
उत्तर- टेलीफोन लाइन की मदद से एक कम्प्यूटर से दूसरे कम्प्यूटर पर भेजा गया संदेश इलेक्ट्रॉनिक मेल या ई-मेल कहलाता है। साधारणतः यह टेक्स्ट बेस्ट होता है पर यूजर किसी भी तरह इनफॉर्मेशन (यहाँ तक कि प्रोग्राम और वायरस भी) इसके द्वारा भेज सकते हैं। कोई यूजर जिसका खुद का ईमेल एड्रेस है , ईमेल भेज और प्राप्त क्र सकता है |
यह कम्प्यूटर यूजर कम्प्यूटर नेटवर्क को ज्वाइन करके या लोकल सर्विस प्रोवाइडर द्वारा इंटरनेट सिग्नल्स में परिवर्तित होकर टेलीफोन लाइन के द्वारा रिसीवर के कम्प्यूटर तक पहुँचती है। वहाँ यह पुनः से कनेक्ट होकर खुद का ई-मेल एड्रेस पा सकते हैं। ई-मेल प्रेषक के कम्प्यूटर से मोडेम द्वारा इलेक्ट्रॉनिक मोडेम द्वारा कम्प्यूटर पर पढ़े जा सकने वाले रूप में परिवर्तित हो जाती है। कम्प्यूटर इस मेल को स्टोर कर देता है। यूजर अपने मेल लाइट के रूप में स्टोर कर देता है। यूजर अपने मेल क्लाइंट द्वारा इस फाइल को ओपन कर मेसेज को पढ़ लेता है।
(67) HTML तथा Home Page क्या है?
(67) HTML तथा Home Page क्या है? |
उत्तर-
HTML तथा Home Page (Web Page) -
HTML का पूरा नाम हाइपरटेक्स्ट मार्क लैंग्वेज है। यह एक कम्प्यूटर प्रोग्रामिंग भाषा है जिसके द्वारा हाइपरटेक्स्ट पेज अथवा वेब पेज का निर्माण होता है। यदि आप वेब पेज पर b/w, सामान्य फॉन्ट में लिखा गया Text प्रदर्शित करना चाहते हैं तो HTML भाषा के प्रयोग की आवश्यकता नहीं होती परन्तु यदि आप वेब पेज में डाटा प्रदर्शित करना चाहते हैं तो HTML भाषा का प्रयोग करना पड़ेगा | HTML भाषा के द्वारा विभिन्न रंगों, अलग-अलग डिजाइन तथा आकार के अक्षर, फॉन्ट, चित्रों, ग्राफिक्स, हेडलाइन आदि का प्रयोग कर वेब पेज का निर्माण कर सकते हैं। दो या अधिक वेब पेजों को लिंक द्वारा जोड़े जाने की सुविधा HTML भाषा से ही प्राप्त होती है।
हाइपरमीडिया - यह हाइपरटेक्स्ट की उन्नते ( Advance) तकनीक है। इसमें Text के साथ ऑडियो तथा वीडियो डाटा का भी समावेश होता है ।
वेब सर्वर - वेब व्यवस्था में डाटा / जानकारी अनेकों सर्वर मशीनों में वितरित रहती है। वेब व्यवस्था के इस सर्वर को वेब सर्वर कहा जाता है। वेब सर्वर वह मशीन है जिसमें संग्रहित जानकारी वेब पेज के रूप में क्लाइण्ट कम्प्यूटर पर देखी जा सकती है। प्रत्येक वेब सर्वर का एक अद्वितीय IP Address व कोड होता है जिनके द्वारा सर्वर को खोजा जा सकता है।
वेब ब्राउजर - यह एक Application software programme है जो वेब सर्वर एवं क्लाइण्ट कम्प्यूटर के बीच इंटरफेस अर्थात् माध्यम का कार्य करता है।
(68) W.W.W.क्या है ?
(68) W.W.W.क्या है ? |
उत्तर - वर्ल्ड वाइड वेब ( W. w. w. ) - यह ऐसी ऐप्लीकेशन अथवा व्यवस्था है जिसके द्वारा इंटरनेट के किसी सर्वर में संग्रहित जानकारियों को एक क्लाइण्ट कम्प्यूटर से देखा जा सकता है। इसका विकास 1989 में स्विट्जरलैण्ड के सर्न (CERN) भौतिकी लैब में किया गया था। आरम्भ में इसका प्रयोग वैज्ञानिकों द्वारा कम्प्यूटर नेटवर्क पर उपस्थित शोध सम्बन्धी जानकारियों तथा फाइलों को प्राप्त करने, पढ़ने, खोजने के लिए किया गया था। धीरे-धीरे इसकी लोकप्रियता बढ़ती गई तथा 1993 के अन्त में www. को एक सॉफ्टवेयर के रूप में बाजार में निकाला गया जो windows के ऑपरेटिंग सिस्टम पर चल सकता था तथा जिसके द्वारा इंटरनेट पर उपलब्ध जानकारियों को सरलता से खोजा जा सकता था।
w.w w. हाइपरटेक्स्ट पर आधारित डिस्ट्रीब्यूटेड इन्फार्मेशन सिस्टम है जिसके द्वारा छात्र/छात्राओं के इंटरनेट की सहायता से असंख्य जानकारियाँ उपलब्ध होती हैं ।
(69) M.S. Office क्या है?
(69) M.S. Office क्या है? |
अथवा
एम.एस. आफिस क्या है? शिक्षा में इसकी उपयोगिता पर प्रकाश डालिए ।
उत्तर-
कार्यालय के दिन-प्रतिदिन के सामान्य कार्यों को सम्पादित करने के लिए ही एम. एस. ऑफिस अत्यंत उपयोगी एवं महत्वपूर्ण सॉफ्टवेयर है। इसके निर्माता माइक्रोसॉफ्ट कॉर्पोरेशन ने इसे विशेष तौर पर कार्यालय कार्यों को सम्पादित करने के लिए ही बनाया है, इसलिए इसका नाम एम. एस. ऑफिस रखा गया है। एम. एस. ऑफिस कोई एक प्रोग्राम न होकर कई प्रोग्रामों का एक समूह है। इसमें कई प्रोग्राम सम्मिलित है। जब हम अपने कम्प्यूटर में इसे इंस्टाल कर लेते हैं और कम्प्यूटर ऑन करते हैं तो हमें मॉनीटर पटल पर इसका टूल बॉक्स नीचे दिये अनुसार दिखता है।
एम. एस. ऑफिस के टूल बार के किसी हिस्से पर डबल क्लिक करके हम उसे खोल सकते हैं या एम. एस. ऑफिस मीनू को खोल सकते हैं। यदि हम एम. एस. मीनू खोलते हैं तो पटल पर वह दिखेगा।
(70) M.S. वर्ड क्या है? इसका उपयोग बताइए।
(70) M.S. वर्ड क्या है? इसका उपयोग बताइए। |
उत्तर -
M.S. Word से तात्पर्य Microsoft word से है जो माइक्रोसॉफ्ट कार्पोरेशन द्वारा विकसित एक वर्ड प्रोसेसिंग पैकेज है। जिसकी सहायता से साधारण दैनिक पत्र व्यवहार से लेकर डेस्कटॉप पब्लिशिंग (D.T.P.) स्तर के कार्य सुविधापूर्वक किए जाते हैं। इसमें परम्परागत मैन्युओं के साथ ही दूल- बारों की सुविधा भी उपलब्ध है; जैसे- कॉपी करना, काटना, जोड़ना, खोजना एवं बदलना, फॉण्ट एवं स्पेसिंग तथा ग्रामर की जाँच करना इत्यादि ।
M.S. Word 2007 तथा 2010 में दस्तावेजों को विभिन्न भाषाओं में अनुवादित करने की भी सुविधा उपलब्ध है । MS Word दस्तावेज के बनाने तथा शेयर करने के लिए शक्तिशाली उपकरण प्रदान करता है। किसी भी दस्तावेज को बनाने से लेकर पहले से वर्तमान दस्तावेज में किसी भी प्रकार का परिवर्तन करने के लिए MS Word में बहुत सारे Tools एवं Short-cut Keys हैं जो document से सम्बन्धित कार्यों को और भी अधिक सरल बना देते हैं ।
M.S. Word का उपयोग
(i) विभिन्न प्रकार के Assignment Work तैयार करने में ।
(ii) लम्बे-लम्बे Essay लिखने में।
. (iii) Application लिखने में, Resume / Biodata बनाने में
(iv) M.S. Word 2007 की मदद से डॉक्यूमेण्ट में किसी तरह के Shape के अन्दर लिखने की भी व्यवस्था है।
(v) कुछ विषयों; जैसे - सांख्यिकी और भौतिकी में चार्ट, तालिका की आवश्यकता होती है। M. S. Word की सहायता से शिक्षक / छात्र आसानी से इसे बना सकते हैं।
(vi) किसी भी Document में किसी विशेष शब्द को तुरन्त खोजने में MS Word से मदद मिलती है।
(71) M.S. एक्सेल क्या है? इसका उपयोग भी बताइए ।
(72) M.S. एक्सेल क्या है? इसका उपयोग भी बताइए । |
उत्तर - यह एक इलेक्ट्रॉनिक स्प्रेडशीट है जो सांख्यिकी गणना करने तथा चार्ट बनाने में सहायता देता है। जिन लोगों को संख्या का विश्लेषण, रिकार्ड तथा सूचनाएँ व्यवस्थित करने की आवश्यकता होती हैं, वे लोग M. S. Excel का प्रयोग करते हैं। M.S. Office का ही एक पैकेज होता है तो यह कम्प्यूटर में भी आसानी से Install हो जाता है ।
M.S. Excel आरम्भ करना --
इसके दो तरीके हैं-
(1) डेस्कटॉप पर MS Excel, आइकन पर डबल क्लिक करते हैं।
(2) Start-Programm-MS-office
MS-Excel
इससे कम्प्यूटर स्क्रीन पर Window खुल जाएगी जिसमें एक खाली Worksheet दिखाई देगी।
सूत्र बनाना
(1) उस सेल पर क्लिक करते हैं जहाँ सूत्र डालना चाहते हैं ।
(2) = ( an equal sign) टाइप करते हैं।
(3) फंक्शन बटन Fx पर click करते हैं।
(4) जो भी सूत्र हम डालना चाहते हैं उसका चयन करते हैं तथा स्क्रीन पर मिले निर्देशों का पालन करते हैं।
फार्मूलों का उपयोग करना-
एक्सेल में फार्मूलों का बहुत महत्त्व है। जब हम कोई गणना करना चाहते हैं, जैसे- किसी कॉलम के कुछ सेलों को जोड़ना, एक संख्या का दूसरे में गुणा करना, किसी रेंज के डाटा का औसत निकालना आदि तो हम उस गणना के लिए फॉर्मूलों का उपयोग करते हैं।
चार्ट बनाना - MS Excel में किसी भी वर्कशीट में भरे हुए डाटा के आधार पर अनेक प्रकार के दो या तीन आयामी चार्ट सरलता से बनाये जा सकते हैं | MS Excel में उपलब्ध चार्ट टूल बार से अपनी इच्छा से विभिन्न प्रकार के चार्ट बना सकते हैं।
उपयोग
(i) शैक्षिक गतिविधियों को सुचारु रूप से चलाने के लिए विभिन्न प्रकार के Routine बनाने में MS Excel का उपयोग किया जा सकता है।
(ii) विद्यालय / कॉलेजों के शिक्षक एवं शिक्षकेतर कर्मचारियों के वेतन भुगतान सम्बन्धी हिसाब- किताब MS Excel की सहायता से आसानी से कर सकते हैं।
(iii) विद्यालयों में लाइब्रेरी के लिए पुस्तकों की List बनाने, प्रयोगशाला के उपकरण, रसायन आदि की खरीद के लिए List बनाने में MS Excel की सहायता ले सकते हैं।
(iv) विभिन्न प्रकार के सहकारी एवं गैर-सरकारी आर्थिक मदों के हिसाब-किताब में MS Excel सहायक होते हैं।
(v) छात्रों के मूल्यांकन के लिए; जैसे - विभिन्न परीक्षाफल के आधार पर छात्र विशेष को प्राप्त अंकों का विश्लेषण करने में MS Excel सहायक होता है ।
(vi) विद्यालयों में किसी भी प्रकार की वित्तीय योजना बनाने का कार्य MS Excel द्वारा सरलता से सम्भव हो सकता है।
प्रश्न 5 (ix) MS एक्सेस क्या है? इसका उपयोग बताइए |
उत्तर -
एम. एस. एक्सेस, M.S. ऑफिस का ही एक अनुप्रयोग है जिसके द्वारा डाटाबेस के विभिन्न अनुप्रयोगों को संचालित किया जाता है। यह मुख्यतः डाटाबेस मैनेजमेंट सिस्टम है जिसका प्रयोग संस्थाओं में किया जाता है एवं सभी कर्मचारियों का लेखा-जोखा रखा जाता है। इसे DBMS कहा जाता है। यह एक ऐसा सॉफ्टवेयर है जिससे ऑपरेटर को डाटाबेस की स्थापना, रख-रखाव तथा डाटाबेस के प्रोसेसिंग में मदद मिलती है । DBMS में विभिन्न कार्यों के लिए 6 फाइलें तैयार की जा सकती हैं-
(i) प्रोग्राम फाइल - यह मुख्य रूप से DBMS के प्रोग्राम लिखने के लिए उपयोगी होती है।
(ii) डाटाबेस मीमो फाइल - यह मूल रूप से डाटाबेस फाइल की ही सहायक फाइल है।
(iii) डाटाबेस फाइल - यह DBMS की मुख्य फाइल है जिसमें DBMS के सभी रिकार्ड्स, आँकड़े तथा सूचनाएँ संचित की जाती हैं ।
(iv) रिपोर्ट फाइल - डाटा बेस फाइल में संचित व भण्डारित रिकार्ड के आधार पर तथ्यों की विभिन्न दृष्टिकोणों से रिपोर्ट का प्रतिवेदन बनाने के लिए इसका प्रयोग किया जाता है ।
(v) इन्डेक्स फाइल -DBMS की प्रमुख फाइल को किसी तर्कसंगत रूप में क्रमबद्ध एवं व्यवस्थित करने के लिए इसका उपयोग किया जाता है।
(vi) लेबल फाइल - इस फाइल का उपयोग Mailing label बनाने के लिए किया जाता है।
DBMS के अनुप्रयोग
(i) रिकार्ड को व्यवस्थित करने हेतु ।
(ii) रिकार्ड की खोज करना ।
(iii) रिकार्ड को जोड़ना या मिटाना ।
(iv) डाटा फिल्टरेशन - "Criteria " विकल्प से हमें डाटा स्वतः क्रमबद्ध रूप में दिखाई देते रहेंगे।
प्रश्न 5 (x) पावर प्वाइंट क्या है? इसका उपयोग बताइए ।
उत्तर-
माइक्रोसॉफ्ट कम्पनी ने कई महत्त्वपूर्ण तथा उपयोगी सॉफ्टवेयर दिए हैं। इसी कड़ी में माइक्रोसॉफ्ट पॉवर प्वाइण्ट (M. P. Power Point) का नाम सर्वप्रमुख है। इसे अब केवल पॉवर प्वाइण्ट के नाम से जाना जाता है। यह वास्तविक रूप से MS Office का ही एक अंग है । ऐतिहासिक दृष्टि से देखने पर हम पाते हैं कि यह सबसे पहले विन्डोज 3.1 के संस्करण के साथ विकसित किया गया। 1997 में इसे M. S. Office के साथ जोड़कर इसका नया संस्करण विकसित किया गया। इसके बाद इसमें नए- नए संशोधन होते रहे किन्तु 2000 में जो इसका नया संस्करण आया, वह बहुत ही अधिक विकसित था । सन् 2000 से ही पॉवर प्वाइण्ट (XP) आ गया । यह नवीनतम संस्करण अत्यन्त विकसित तथा सरलतम था ।
उपयोग-
आज प्रत्येक औद्योगिक इकाई तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठान सूचना प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर मार्केटिंग कर रहा है। वे अपने उत्पाद तथा सम्बन्धित तथ्यों को अधिक-से-अधिक प्रभावी रूप से प्रस्तुत करना चाहते हैं। इतना ही नहीं आज के राजनीतिज्ञ, शिक्षक, समाजशास्त्री, समाज-सेवी चिकित्सक आदि सूचना प्रौद्योगिकी की सहायता से अपनी बात प्रभावी रूप से प्रस्तुत करना चाहते हैं । तथ्यों एवं विचारों को प्रभावी रूप से प्रस्तुत करने में यह अत्यन्त उपयोगी है। इसकी उपयोगिता को हम निम्न बिन्दुओं में देख सकते हैं-
(1) प्रस्तुतीकरण -
इसके द्वारा प्रस्तुतकर्ता अत्यन्त प्रभावी तरीके से अपने विचारों तथ्यों तथा सूचनाओं को दिखा सकता है। श्रव्य, दृश्य तथा पाठ्य सभी प्रकार की सूचनाएँ इसके द्वारा दी जा सकती हैं।
(2) स्पेशल इफेक्ट देना-
इसकी सहायता से विभिन्न प्रकार के नवीन प्रयोगों को करके विषय वस्तु प्रभावी बनाई जा सकती है। यथा-
(i) 3-D इफेक्ट,
(ii) गति प्रभाव ( Motion effect),
(iii) रंग प्रभाव (Colour effect),
(iv) ग्रुपिंग प्रभाव ( Grouping effect),
(v) आवाज प्रभाव ( Sound effect ) ।
( 3 ) प्रेजेन्टेशन्स स्लाइड्स-
पॉवर प्वॉइण्ट प्रस्तुतीकरण स्लाइड्स की सहायता से होता है जो आसानी से बनाई एवं कहीं भी ले जाई जा सकती है । इन स्लाइड्स में प्रस्तुतकर्त्ता शीर्षक, विषय-वस्तु, वीडियो, एनिमेशन आदि कुछ भी प्रदर्शित कर सकता है।
(4) पारदर्शिकाओं का निर्माण -
OHP पर कार्य करने हेतु पॉव प्वॉइण्ट के द्वारा B/W या रंगीन पारदर्शिकाएँ भी बड़े आसानी से बनाई जा सकती हैं।
प्रश्न 5 (xi) इग्नू का उच्च शिक्षा में गुणवत्ता उन्नयन में योगदान बताइए ।
उत्तर -
(1) सामुदायिक शिक्षा एवं सतत् शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा के अवसर प्रदान कर समाज में उच्च शिक्षा का विस्तार करना ।
(2) शिक्षा, शोध, प्रशिक्षण तथा विस्तार क्रिया-कलापों में गुणवत्तापूर्ण योगदान देना ।
राष्ट्रीय स्तर के निकाय के रूप में सभी दूरस्थ शिक्षा एवं सतत् शिक्षा संस्थानों के लिए सेवा केन्द्र के रूप में कार्य करना ।
दूरस्थ शिक्षा में नवाचार तथा उन्नयन के लिए निरन्तर प्रयासरत रहना ।
अन्तःक्रियात्मक तथा दूरसंचार के विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा दूरस्थ शिक्षा के उन्नयन हेतु इग्नू विशेष रूप से प्रयासरत है।
दूरस्थ शिक्षा के नये-नये साधनों; जैसे - Online Learning, Blended learning आदि का प्रयोग इग्नू द्वारा किया जा रहा है।
प्रश्न 5 (xii) अनुकरणीय सामाजिक कौशल प्रशिक्षण क्या है?
अथवा
अनुकरणीय शिक्षण को परिभाषित करते हुए इसकी उपयोगिता के बारे में लिखिए।
उत्तर -
अधिकतर देखा जाता है कि बी. एड्. प्रशिक्षण में छात्रों के समक्ष शिक्षक-प्रशिक्षक हर विषय में 2-3 पाठों का प्रदर्शन करते हैं और उसके बाद छात्रों को सीधे विद्यालयों में बिना किसी पूर्व-अभ्यास के शिक्षण हेतु भेज दिया जाता है। देखा जाता है कि ये छात्र या छात्राध्यापक, शिक्षक द्वारा दिये गये प्रदर्शन पाठ से प्रभावित होकर पाठ प्रदर्शन के अनुरूप अनुकरण करने का पूरा प्रयास करते हैं। फलस्वरूप वे कक्षा में सामाजिक व्यवहारों को समझ नहीं पाते और अपेक्षित शिक्षण का प्रदर्शन करने में असमर्थ रहते हैं।
शिक्षण व्यवसाय में शिक्षण कुशलता प्रभावशीलता प्राप्त करने के लिये शिक्षण का पूर्वाभ्यास छात्रों के लिये अति आवश्यक है । इस अभ्यास में छात्र को शिक्षक की भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है। कक्षागत व्यवस्था तथा सामाजिक कौशल प्राप्त करने के लिये प्रयास करने पड़ते हैं। छात्र ये प्रशिक्षण अनुकरणीय (SSST) विधि से प्राप्त करते हैं, जो छात्रों में आत्मविश्वास जाग्रत करता है तथा उन्हें प्रभावशाली शिक्षक बनाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
इस विधि (SSST) का विकास क्रुक शैन्क (Cruick - Shank) ने 1968 में शिक्षक प्रशिक्षण के लिये किया था। इस विधि के अनेक नाम हैं- जैसे- भूमिका निर्वाह विधि, कृत्रिम शिक्षण, पायलट प्रशिक्षण, प्रयोगशाला विधि, नैदानिक विधि तथा आगमन वैज्ञानिक विधि आदि।
प्रश्न 5 (xiii) अनुकरणीय सामाजिक कौशल प्रशिक्षण की विशेषताएँ बताइए ।
उत्तर-
इस प्रशिक्षण प्रविधि की निम्नांकित मान्यतायें हैं-
(i) पृष्ठपोषण प्रणाली के प्रयोग से शिक्षक - व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सकता है।
(ii) एक प्रभावशाली शिक्षक के लिये कुछ निश्चित सामाजिक कौशल होते हैं जो शिक्षक व्यवहार की प्रभावशीलता पर प्रभाव डालते हैं।
(iii) इन सामाजिक कौशल - व्यवहारों को पहचाना जा सकता है। उन्हें observe किया जा सकता है और उनका मापन भी किया जा सकता है तथा इनको पृष्ठपोषण विधियों के प्रयोग से परिमार्जित किया जा सकता है।
(iv) शिक्षण व्यवहार का अपना “वर्गीकरण - विज्ञान" (Taxonomy) होता है। अनुकरणीय प्रविधि का प्रयोग करके वर्गीकरण विज्ञान विकसित किया जा सकता है।
(v) सामाजिक कौशलों का विकास अनुकरण तथा अभ्यास के द्वारा कृत्रिम शिक्षण परिस्थितियों में किया जा सकता है।
(vi) जिस समूह को इस प्रविधि द्वारा प्रशिक्षण प्रदान किया जा सकता है उस समूह के सभी सदस्यों (छात्रों) को अवसर मिलता है जिससे वे शिक्षण व्यवहार को नियन्त्रित कर, अपने शिक्षण - व्यवहार को उन्नत तथा प्रभावशाली बना सकते हैं।
प्रश्न 5 (xiv) शिक्षा में ICT की चुनौतियाँ बताइए ।
उत्तर-
भारत जैसे देश में शिक्षा व्यवस्था में पर्याप्त सुधार किसी चुनौती से कम नहीं | इसे हम निम्न बिन्दुओं के आधार पर समझ सकते हैं-
(i) बजट की कमी-अधिक जनसंख्या होने के कारण प्रति व्यक्ति बजट काफी कम होता है और कम बजट ICT को स्थापित करने की सबसे बड़ी चुनौती है।
(ii) प्रशिक्षित लोगों की कमी- जनसंख्या में कम्प्यूटर शिक्षित लोगों की संख्या नगण्य है। अतः यह भी मुख्य चुनौती है।
(iii) संसाधनों की कमी- यह भी एक बड़ी चुनौती है। संसाधनों के अभाव में अच्छी योजनायें भी बेकार हो जाती हैं।
(iv) परम्परागत सोच-कम जागरूक होना अथवा नवीन सोच न अपनाना भी एक मुख्य चुनौती है।
प्रश्न 5 (xv) सम्प्रेषण के तत्त्व बताइए।
उत्तर-
(i) प्रेषक (Sender) -
वह व्यक्ति जो सूचना को प्रसारित करना चाहता है एवं प्रसारित करता है, प्रेषक कहलाता है। यह अपने सन्देशों को शाब्दिक अथवा भाव-भंगिमाओं के रूप में भेजता है। दूसरे राज्यों में यह भी कह सकते हैं कि सम्प्रेषण प्रक्रिया की शुरुआत प्रेषक के द्वारा की जाती है
(ii) सन्देश (Message) -
वह विषय-वस्तु जो प्रेषक के द्वारा भेजी जाती है। यह विषय-वस्तु कोई तथ्य/विचार/मत/सूचना में से कोई भी हो सकती है। यह लिखित अथवा मौखिक भी हो सकती है।
(iii) कूट प्रक्रिया (Encoding) -
विषय-वस्तु को भेजने से पहले प्रेषक उसे एक निश्चित शब्द, भाव-भंगिमा प्रदान करता है जिससे उसका अर्थ उचित प्रकार से निकाला जा सके। इसके स्वरूप विभिन्न प्रकार के शब्द प्रतीक संकेत आदि हो सकते हैं।
(iv) माध्यम (Channel/Medium) -
प्रेषक, सन्देश भेजने के पूर्व माध्यम को निर्धारित कर लेता है। यह माध्यम वह मीडिया है जिसके द्वारा प्रेषक एवं ग्राही में सम्बन्ध स्थापित हो पाता है। यह कई रूपों; जैसे- रेडियो, टी. वी., ई-मेल, फैक्स, पत्र, व्याख्यान, आदि में हो सकता है।
(v) ग्राही -
सन्देश को ग्रहण करने वाला व्यक्ति ग्राही कहा जाता है । सम्प्रेषण प्रक्रिया की सफलता का मापदण्ड ग्राही की ग्रहण क्षमता पर ही निर्भर करता है । ग्राही, सन्देश / सूचना को ग्रहण कर समझने का पूर्ण प्रयास करता है।
(vi) कूटानुवाद (Decoding) -
प्रेषक द्वारा दिए गए सन्देश की उचित व्याख्या ( Interpreta- tion) ही कूटानुवाद (decoding) कही जाती है।
कूटानुवाद सार्थक होने की दशा में ही सम्प्रेषण अच्छा माना जाता है। शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया में उचित अर्थ ग्रहण कर लेने पर की ही शिक्षक की सफलता निश्चित होती है।
· (vii) प्रतिपुष्टि (Feedback ) -
सन्देश का अर्थ ग्रहण करने के पश्चात् ग्राही द्वारा उस पर प्रतिक्रिया की जाती है। यह प्रतिक्रिया पुनः सूचना के रूप में माध्यम द्वारा प्रेषक तथा वापस जाती है। इस क्रिया में ग्राही एवं प्रेषक की भूमिकाएँ आपस में बदल जाती हैं।
प्रश्न 5 (xvi) आदर्श सम्प्रेषण की बाधाएँ बताइए ।
उत्तर -
आदर्श सम्प्रेषण की निम्नलिखित बाधाएँ हैं-
(A) भौतिक बाधाएँ -
उपयोग-
आज प्रत्येक औद्योगिक इकाई तथा व्यवसायिक प्रतिष्ठान सूचना प्रौद्योगिकी का सहारा लेकर मार्केटिंग कर रहा है। वे अपने उत्पाद तथा सम्बन्धित तथ्यों को अधिक-से-अधिक प्रभावी रूप से प्रस्तुत करना चाहते हैं। इतना ही नहीं आज के राजनीतिज्ञ, शिक्षक, समाजशास्त्री, समाज-सेवी चिकित्सक आदि सूचना प्रौद्योगिकी की सहायता से अपनी बात प्रभावी रूप से प्रस्तुत करना चाहते हैं । तथ्यों एवं विचारों को प्रभावी रूप से प्रस्तुत करने में यह अत्यन्त उपयोगी है। इसकी उपयोगिता को हम निम्न बिन्दुओं में देख सकते हैं-
(1) प्रस्तुतीकरण -
इसके द्वारा प्रस्तुतकर्ता अत्यन्त प्रभावी तरीके से अपने विचारों तथ्यों तथा सूचनाओं को दिखा सकता है। श्रव्य, दृश्य तथा पाठ्य सभी प्रकार की सूचनाएँ इसके द्वारा दी जा सकती हैं।
(2) स्पेशल इफेक्ट देना-
इसकी सहायता से विभिन्न प्रकार के नवीन प्रयोगों को करके विषय वस्तु प्रभावी बनाई जा सकती है। यथा-
(i) 3-D इफेक्ट,
(ii) गति प्रभाव ( Motion effect),
(iii) रंग प्रभाव (Colour effect),
(iv) ग्रुपिंग प्रभाव ( Grouping effect),
(v) आवाज प्रभाव ( Sound effect ) ।
( 3 ) प्रेजेन्टेशन्स स्लाइड्स-
पॉवर प्वॉइण्ट प्रस्तुतीकरण स्लाइड्स की सहायता से होता है जो आसानी से बनाई एवं कहीं भी ले जाई जा सकती है । इन स्लाइड्स में प्रस्तुतकर्त्ता शीर्षक, विषय-वस्तु, वीडियो, एनिमेशन आदि कुछ भी प्रदर्शित कर सकता है।
(4) पारदर्शिकाओं का निर्माण -
OHP पर कार्य करने हेतु पॉव प्वॉइण्ट के द्वारा B/W या रंगीन पारदर्शिकाएँ भी बड़े आसानी से बनाई जा सकती हैं।
प्रश्न 5 (xi) इग्नू का उच्च शिक्षा में गुणवत्ता उन्नयन में योगदान बताइए ।
उत्तर -
(1) सामुदायिक शिक्षा एवं सतत् शिक्षा तथा व्यावसायिक शिक्षा के अवसर प्रदान कर समाज में उच्च शिक्षा का विस्तार करना ।
(2) शिक्षा, शोध, प्रशिक्षण तथा विस्तार क्रिया-कलापों में गुणवत्तापूर्ण योगदान देना ।
राष्ट्रीय स्तर के निकाय के रूप में सभी दूरस्थ शिक्षा एवं सतत् शिक्षा संस्थानों के लिए सेवा केन्द्र के रूप में कार्य करना ।
दूरस्थ शिक्षा में नवाचार तथा उन्नयन के लिए निरन्तर प्रयासरत रहना ।
अन्तःक्रियात्मक तथा दूरसंचार के विभिन्न कार्यक्रमों द्वारा दूरस्थ शिक्षा के उन्नयन हेतु इग्नू विशेष रूप से प्रयासरत है।
दूरस्थ शिक्षा के नये-नये साधनों; जैसे - Online Learning, Blended learning आदि का प्रयोग इग्नू द्वारा किया जा रहा है।
प्रश्न 5 (xii) अनुकरणीय सामाजिक कौशल प्रशिक्षण क्या है?
अथवा
अनुकरणीय शिक्षण को परिभाषित करते हुए इसकी उपयोगिता के बारे में लिखिए।
उत्तर -
अधिकतर देखा जाता है कि बी. एड्. प्रशिक्षण में छात्रों के समक्ष शिक्षक-प्रशिक्षक हर विषय में 2-3 पाठों का प्रदर्शन करते हैं और उसके बाद छात्रों को सीधे विद्यालयों में बिना किसी पूर्व-अभ्यास के शिक्षण हेतु भेज दिया जाता है। देखा जाता है कि ये छात्र या छात्राध्यापक, शिक्षक द्वारा दिये गये प्रदर्शन पाठ से प्रभावित होकर पाठ प्रदर्शन के अनुरूप अनुकरण करने का पूरा प्रयास करते हैं। फलस्वरूप वे कक्षा में सामाजिक व्यवहारों को समझ नहीं पाते और अपेक्षित शिक्षण का प्रदर्शन करने में असमर्थ रहते हैं।
शिक्षण व्यवसाय में शिक्षण कुशलता प्रभावशीलता प्राप्त करने के लिये शिक्षण का पूर्वाभ्यास छात्रों के लिये अति आवश्यक है । इस अभ्यास में छात्र को शिक्षक की भूमिका का निर्वाह करना पड़ता है। कक्षागत व्यवस्था तथा सामाजिक कौशल प्राप्त करने के लिये प्रयास करने पड़ते हैं। छात्र ये प्रशिक्षण अनुकरणीय (SSST) विधि से प्राप्त करते हैं, जो छात्रों में आत्मविश्वास जाग्रत करता है तथा उन्हें प्रभावशाली शिक्षक बनाने में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।
इस विधि (SSST) का विकास क्रुक शैन्क (Cruick - Shank) ने 1968 में शिक्षक प्रशिक्षण के लिये किया था। इस विधि के अनेक नाम हैं- जैसे- भूमिका निर्वाह विधि, कृत्रिम शिक्षण, पायलट प्रशिक्षण, प्रयोगशाला विधि, नैदानिक विधि तथा आगमन वैज्ञानिक विधि आदि।
प्रश्न 5 (xiii) अनुकरणीय सामाजिक कौशल प्रशिक्षण की विशेषताएँ बताइए ।
उत्तर-
इस प्रशिक्षण प्रविधि की निम्नांकित मान्यतायें हैं-
(i) पृष्ठपोषण प्रणाली के प्रयोग से शिक्षक - व्यवहार में परिवर्तन लाया जा सकता है।
(ii) एक प्रभावशाली शिक्षक के लिये कुछ निश्चित सामाजिक कौशल होते हैं जो शिक्षक व्यवहार की प्रभावशीलता पर प्रभाव डालते हैं।
(iii) इन सामाजिक कौशल - व्यवहारों को पहचाना जा सकता है। उन्हें observe किया जा सकता है और उनका मापन भी किया जा सकता है तथा इनको पृष्ठपोषण विधियों के प्रयोग से परिमार्जित किया जा सकता है।
(iv) शिक्षण व्यवहार का अपना “वर्गीकरण - विज्ञान" (Taxonomy) होता है। अनुकरणीय प्रविधि का प्रयोग करके वर्गीकरण विज्ञान विकसित किया जा सकता है।
(v) सामाजिक कौशलों का विकास अनुकरण तथा अभ्यास के द्वारा कृत्रिम शिक्षण परिस्थितियों में किया जा सकता है।
(vi) जिस समूह को इस प्रविधि द्वारा प्रशिक्षण प्रदान किया जा सकता है उस समूह के सभी सदस्यों (छात्रों) को अवसर मिलता है जिससे वे शिक्षण व्यवहार को नियन्त्रित कर, अपने शिक्षण - व्यवहार को उन्नत तथा प्रभावशाली बना सकते हैं।
प्रश्न 5 (xiv) शिक्षा में ICT की चुनौतियाँ बताइए ।
उत्तर-
भारत जैसे देश में शिक्षा व्यवस्था में पर्याप्त सुधार किसी चुनौती से कम नहीं | इसे हम निम्न बिन्दुओं के आधार पर समझ सकते हैं-
(i) बजट की कमी-अधिक जनसंख्या होने के कारण प्रति व्यक्ति बजट काफी कम होता है और कम बजट ICT को स्थापित करने की सबसे बड़ी चुनौती है।
(ii) प्रशिक्षित लोगों की कमी- जनसंख्या में कम्प्यूटर शिक्षित लोगों की संख्या नगण्य है। अतः यह भी मुख्य चुनौती है।
(iii) संसाधनों की कमी- यह भी एक बड़ी चुनौती है। संसाधनों के अभाव में अच्छी योजनायें भी बेकार हो जाती हैं।
(iv) परम्परागत सोच-कम जागरूक होना अथवा नवीन सोच न अपनाना भी एक मुख्य चुनौती है।
प्रश्न 5 (xv) सम्प्रेषण के तत्त्व बताइए।
उत्तर-
(i) प्रेषक (Sender) -
वह व्यक्ति जो सूचना को प्रसारित करना चाहता है एवं प्रसारित करता है, प्रेषक कहलाता है। यह अपने सन्देशों को शाब्दिक अथवा भाव-भंगिमाओं के रूप में भेजता है। दूसरे राज्यों में यह भी कह सकते हैं कि सम्प्रेषण प्रक्रिया की शुरुआत प्रेषक के द्वारा की जाती है
(ii) सन्देश (Message) -
वह विषय-वस्तु जो प्रेषक के द्वारा भेजी जाती है। यह विषय-वस्तु कोई तथ्य/विचार/मत/सूचना में से कोई भी हो सकती है। यह लिखित अथवा मौखिक भी हो सकती है।
(iii) कूट प्रक्रिया (Encoding) -
विषय-वस्तु को भेजने से पहले प्रेषक उसे एक निश्चित शब्द, भाव-भंगिमा प्रदान करता है जिससे उसका अर्थ उचित प्रकार से निकाला जा सके। इसके स्वरूप विभिन्न प्रकार के शब्द प्रतीक संकेत आदि हो सकते हैं।
(iv) माध्यम (Channel/Medium) -
प्रेषक, सन्देश भेजने के पूर्व माध्यम को निर्धारित कर लेता है। यह माध्यम वह मीडिया है जिसके द्वारा प्रेषक एवं ग्राही में सम्बन्ध स्थापित हो पाता है। यह कई रूपों; जैसे- रेडियो, टी. वी., ई-मेल, फैक्स, पत्र, व्याख्यान, आदि में हो सकता है।
(v) ग्राही -
सन्देश को ग्रहण करने वाला व्यक्ति ग्राही कहा जाता है । सम्प्रेषण प्रक्रिया की सफलता का मापदण्ड ग्राही की ग्रहण क्षमता पर ही निर्भर करता है । ग्राही, सन्देश / सूचना को ग्रहण कर समझने का पूर्ण प्रयास करता है।
(vi) कूटानुवाद (Decoding) -
प्रेषक द्वारा दिए गए सन्देश की उचित व्याख्या ( Interpreta- tion) ही कूटानुवाद (decoding) कही जाती है।
कूटानुवाद सार्थक होने की दशा में ही सम्प्रेषण अच्छा माना जाता है। शिक्षण अधिगम की प्रक्रिया में उचित अर्थ ग्रहण कर लेने पर की ही शिक्षक की सफलता निश्चित होती है।
· (vii) प्रतिपुष्टि (Feedback ) -
सन्देश का अर्थ ग्रहण करने के पश्चात् ग्राही द्वारा उस पर प्रतिक्रिया की जाती है। यह प्रतिक्रिया पुनः सूचना के रूप में माध्यम द्वारा प्रेषक तथा वापस जाती है। इस क्रिया में ग्राही एवं प्रेषक की भूमिकाएँ आपस में बदल जाती हैं।
प्रश्न 5 (xvi) आदर्श सम्प्रेषण की बाधाएँ बताइए ।
उत्तर -
आदर्श सम्प्रेषण की निम्नलिखित बाधाएँ हैं-
(A) भौतिक बाधाएँ -
इसके अन्तर्गत निम्न बाधाएँ आती हैं-
(1) कक्षा की भौतिक स्थिति सही न होना; यथा - अत्यधिक शोरगुल वाली जगह होना ।
(2) बैठने की उचित व्यवस्था का न होना ।
(3) लिखित सामग्री का सभी जगह से ठीक से न दिखना ।
(4) आवाज गूँजना अथवा सबको अच्छी तरह से सुनाई न देना ।
(5) प्रकाश की उचित व्यवस्था का न होना ।
(B) मनोवैज्ञानिक बाधाएँ -
(1) कक्षा की भौतिक स्थिति सही न होना; यथा - अत्यधिक शोरगुल वाली जगह होना ।
(2) बैठने की उचित व्यवस्था का न होना ।
(3) लिखित सामग्री का सभी जगह से ठीक से न दिखना ।
(4) आवाज गूँजना अथवा सबको अच्छी तरह से सुनाई न देना ।
(5) प्रकाश की उचित व्यवस्था का न होना ।
(B) मनोवैज्ञानिक बाधाएँ -
इनमें निम्नलिखित बाधाएँ आती हैं-
(1) पूर्वाग्रह का होना।
(3) उत्साहहीनता की स्थिति ।
( 2 ) भग्नाशा की स्थिति का होना ।
( 4 ) अरुचि का होना ।
(5) निराशा का होना।
(C) पृष्ठ भूमि सम्बन्धी बाधाएँ -
(1) पूर्वाग्रह का होना।
(3) उत्साहहीनता की स्थिति ।
( 2 ) भग्नाशा की स्थिति का होना ।
( 4 ) अरुचि का होना ।
(5) निराशा का होना।
(C) पृष्ठ भूमि सम्बन्धी बाधाएँ -
इनके अन्तर्गत निम्न प्रकार की बाधाएँ आती हैं-
(1) पूर्व ज्ञान का विरोधी होना ।
(2) संस्कृति विरोधी ज्ञान की प्रस्तुति ।
(3) पूर्व अनुभवों का असंगत होना ।
(4) पूर्व वातावरण से बदलने में परेशानी ।
(D) भाषायी बाधाएँ - इनके अन्तर्गत निम्नलिखित बिन्दु आते हैं-
(1) भाषा के कठिन शब्दों का प्रयोग करना
(2) विदेशी भाषा का प्रयोग ।
(3) भाषा में व्याकरण सम्बन्धी दोष ।
(4) अत्यधिक मुहावरेदार/घुमावदार वाक्यों का प्रयोग ।
(5) अनुचित प्रतीकों का प्रयोग ।
प्रश्न 5 (xvii) सम्प्रेषण प्रतिमान बताइए ।
उत्तर-
(1) पूर्व ज्ञान का विरोधी होना ।
(2) संस्कृति विरोधी ज्ञान की प्रस्तुति ।
(3) पूर्व अनुभवों का असंगत होना ।
(4) पूर्व वातावरण से बदलने में परेशानी ।
(D) भाषायी बाधाएँ - इनके अन्तर्गत निम्नलिखित बिन्दु आते हैं-
(1) भाषा के कठिन शब्दों का प्रयोग करना
(2) विदेशी भाषा का प्रयोग ।
(3) भाषा में व्याकरण सम्बन्धी दोष ।
(4) अत्यधिक मुहावरेदार/घुमावदार वाक्यों का प्रयोग ।
(5) अनुचित प्रतीकों का प्रयोग ।
प्रश्न 5 (xvii) सम्प्रेषण प्रतिमान बताइए ।
उत्तर-
सन् 1949 में सर्वप्रथम CE. Shannon और Warren Weaver ने सम्प्रेषण हेतु प्रतिमान विकसित किया। इस प्राथमिक प्रतिमान में तीन भाग थे-
प्रेषक (Sender), माध्यम (Channel) और ग्राही ( Receiver )
इस मॉडल में माध्यम टेलीफोन था जिसके द्वारा प्रेषक एवं ग्राही में सम्बन्ध स्थापित किया गया।
प्रेषक - माध्यम (टेलीफोन) - ग्राही
समय के साथ धीरे-धीरे बदलाव आया और इस मॉडल के मूलभूत तत्त्वों की संख्या बढ़ी। आगे चलकर इसमें ग्राही द्वारा व्यक्त विचार या प्रतिक्रिया को प्रतिपुष्टि (Feedback ) के रूप में प्रस्तुत करते हुए नवीन प्रतिमान विकसित किए गए जिनमें प्रेषक द्वारा कूटीकरण (Encoding) एवं कूटानुवाद (decod- ing) को भी शामिल किया गया।
प्रश्न 5 (xviii) शिक्षण तकनीकी क्या है?
उत्तर-
विज्ञान उसे कहते हैं जिसमें वैज्ञानिक पदों का पालन किया जाता है तथा नियम बनाने के पूर्व
समस्या-- प्रयोग -प्रेक्षण निष्कर्ष - नियमीकरण
के पदों को देखा जाता है। शिक्षा भी कई क्षेत्रों में इनका पालन करती है । परन्तु इसे विशुद्ध विज्ञान नहीं माना जा सकता क्योंकि विज्ञान नियमों की भाँति इसके नियम अपरिवर्तनशील एवं अटल नहीं होते हैं। देश, काल, परिस्थिति और व्यक्तिगत विभिन्नता के अनुसार बदलते रहते हैं। इसी प्रकार कला का अर्थ व्यावहारिक कुशलता से है। इसका अर्थ कार्य, रचना, सृजन तथा निर्माण करना है। इसमें व्यक्ति अपनी ओर से परिवर्तन करके नवीनता पैदा कर सकता है। इसमें नियमों का बन्धन नहीं होता है। संगीत, काव्य, चित्रकारी एवं मूर्तिकला आदि को विशुद्ध कला कहा जा सकता है। इस आधार पर शिक्षण कला है क्योंकि शिक्षक देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन कर सकता है। परन्तु इसे हम विशुद्ध कला भी नहीं मान सकते क्योंकि शिक्षक एक सीमा तक ही परिवर्तन कर सकता है। उसे पाठ्यक्रम एवं छात्र-रुचि का ध्यान रखना पड़ता है।
प्रश्न 5 (xix) प्रणाली उपागम (विश्लेषण ) क्या है?
उत्तर-
प्रेषक (Sender), माध्यम (Channel) और ग्राही ( Receiver )
इस मॉडल में माध्यम टेलीफोन था जिसके द्वारा प्रेषक एवं ग्राही में सम्बन्ध स्थापित किया गया।
प्रेषक - माध्यम (टेलीफोन) - ग्राही
समय के साथ धीरे-धीरे बदलाव आया और इस मॉडल के मूलभूत तत्त्वों की संख्या बढ़ी। आगे चलकर इसमें ग्राही द्वारा व्यक्त विचार या प्रतिक्रिया को प्रतिपुष्टि (Feedback ) के रूप में प्रस्तुत करते हुए नवीन प्रतिमान विकसित किए गए जिनमें प्रेषक द्वारा कूटीकरण (Encoding) एवं कूटानुवाद (decod- ing) को भी शामिल किया गया।
प्रश्न 5 (xviii) शिक्षण तकनीकी क्या है?
उत्तर-
शिक्षण तकनीकी के अर्थ पर जाने के पूर्व शिक्षण शब्द की उचित व्याख्या जरूरी है। शिक्षण एक " कला " है या "विज्ञान" इस पर अलग-अलग विद्वानों के अलग-अलग मत हैं, परन्तु शिक्षा न तो सम्पूर्ण कला है और न ही पूर्ण रूप से विज्ञान अपितु यह दोनों का अद्वितीय सामंजस्य है। शिक्षक जन्मजात भी होते हैं परन्तु यदि उचित अवसर एवं प्रशिक्षण दिया जाए तो शिक्षक बनाए भी जा सकते हैं। इसी प्रकार शिक्षण एक कला भी है जिसे स्वतन्त्रतापूर्वक क्रियात्मकता के साथ स्वतः विकसित किया जा सकता है एवं वैज्ञानिकता को ध्यान में रखते हुए क्रमबद्ध तरीके से विकसित भी किया जा सकता है।
विज्ञान उसे कहते हैं जिसमें वैज्ञानिक पदों का पालन किया जाता है तथा नियम बनाने के पूर्व
समस्या-- प्रयोग -प्रेक्षण निष्कर्ष - नियमीकरण
के पदों को देखा जाता है। शिक्षा भी कई क्षेत्रों में इनका पालन करती है । परन्तु इसे विशुद्ध विज्ञान नहीं माना जा सकता क्योंकि विज्ञान नियमों की भाँति इसके नियम अपरिवर्तनशील एवं अटल नहीं होते हैं। देश, काल, परिस्थिति और व्यक्तिगत विभिन्नता के अनुसार बदलते रहते हैं। इसी प्रकार कला का अर्थ व्यावहारिक कुशलता से है। इसका अर्थ कार्य, रचना, सृजन तथा निर्माण करना है। इसमें व्यक्ति अपनी ओर से परिवर्तन करके नवीनता पैदा कर सकता है। इसमें नियमों का बन्धन नहीं होता है। संगीत, काव्य, चित्रकारी एवं मूर्तिकला आदि को विशुद्ध कला कहा जा सकता है। इस आधार पर शिक्षण कला है क्योंकि शिक्षक देश, काल एवं परिस्थिति के अनुसार परिवर्तन कर सकता है। परन्तु इसे हम विशुद्ध कला भी नहीं मान सकते क्योंकि शिक्षक एक सीमा तक ही परिवर्तन कर सकता है। उसे पाठ्यक्रम एवं छात्र-रुचि का ध्यान रखना पड़ता है।
प्रश्न 5 (xix) प्रणाली उपागम (विश्लेषण ) क्या है?
उत्तर-
प्रणाली विश्लेषण प्रशिक्षण एवं पृष्ठपोषण दोनों से सीधे तौर पर जुड़ा होता है। इसका उद्भव भी द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान हुआ था । वास्तव में यह वैज्ञानिक प्रबन्धन से जुड़ा हुआ शब्द है परन्तु धीरे- धीरे यह प्रत्यय शिक्षा में भी प्रभावी होने लगा। प्रणाली विश्लेषण को हम निम्न रेखाचित्र से समझ सकते हैं-
ब्लॉक चित्र--(Block Diagram) -7
समस्या के क्षेत्र में निश्चित कार्य (Operations in Problem Area) -6
मुख्य समस्या की पहचान - (Isolation of Problem) -5
आँकड़ों का विश्लेषण - (Analysis of Datas) -4
आँकड़ों का संग्रहण -(Collection of Datas) -3
प्रणाली का पुनरीक्षण -(Review of System Operations) -2.
उद्देश्यों का निर्धारण -(Formulation of Objectives) -1
शैक्षिक प्रबन्धन प्रणाली विश्लेषण से अत्यधिक प्रभावित हुआ है। इसके द्वारा शिक्षा की जटिल समस्याओं को हल करने में मदद मिलती है। प्रणाली शब्द इन्जीनियरिंग से लिया हुआ शब्द है जो विश्लेषण तथा विकास को प्रदर्शित करता है। ऐसा माना जाता है कि बगैर प्रणाली विश्लेषण के किसी भी नवीन उपयोगी प्रणाली को लागू नहीं किया जा सकता है।
प्रश्न 5 (xx) कम्प्यूटर से लाभ बताइए ।
उत्तर-
(i) निम्न कोटि के शिक्षार्थी को व्यक्तिगत प्रकार के अनुदेशनात्मक कार्यक्रम द्वारा धनात्मक एवं प्रभावी वातावरण तैयार किया जाता है। उसके लिए इसको विभिन्न पदों में व्यक्त किया जाता है।
(ii) शिक्षक के नियन्त्रण के क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है और अधिक सूचनाप्रद बनाया जा सकता है।
(iii) नवीन कम्प्यूटर के साथ काम करने के कुछ उपयोग प्रेरणा प्रदान करते हैं ।
(iv) उच्च कोटि की व्यक्तित्व की क्रियाएँ छात्रों की प्रतिक्रियाओं को उच्च कोटि का पुनर्बलन प्रदान करती है।
(v) छात्रों की स्मरण शक्ति उनके अतीत के ज्ञान को अभिलेखित करने के लिए परवर्ती पदों को प्रदान करती है।
(vi) सजीव रंगीन चित्रण छात्रों को अभ्यास करने के लिए वास्तविक प्रेरणा प्रदान करता है|
प्रश्न 5 (xxi) टेलीकान्फ्रेन्सिंग |
अथवा
ब्लॉक चित्र--(Block Diagram) -7
समस्या के क्षेत्र में निश्चित कार्य (Operations in Problem Area) -6
मुख्य समस्या की पहचान - (Isolation of Problem) -5
आँकड़ों का विश्लेषण - (Analysis of Datas) -4
आँकड़ों का संग्रहण -(Collection of Datas) -3
प्रणाली का पुनरीक्षण -(Review of System Operations) -2.
उद्देश्यों का निर्धारण -(Formulation of Objectives) -1
शैक्षिक प्रबन्धन प्रणाली विश्लेषण से अत्यधिक प्रभावित हुआ है। इसके द्वारा शिक्षा की जटिल समस्याओं को हल करने में मदद मिलती है। प्रणाली शब्द इन्जीनियरिंग से लिया हुआ शब्द है जो विश्लेषण तथा विकास को प्रदर्शित करता है। ऐसा माना जाता है कि बगैर प्रणाली विश्लेषण के किसी भी नवीन उपयोगी प्रणाली को लागू नहीं किया जा सकता है।
प्रश्न 5 (xx) कम्प्यूटर से लाभ बताइए ।
उत्तर-
(i) निम्न कोटि के शिक्षार्थी को व्यक्तिगत प्रकार के अनुदेशनात्मक कार्यक्रम द्वारा धनात्मक एवं प्रभावी वातावरण तैयार किया जाता है। उसके लिए इसको विभिन्न पदों में व्यक्त किया जाता है।
(ii) शिक्षक के नियन्त्रण के क्षेत्र को बढ़ाया जा सकता है और अधिक सूचनाप्रद बनाया जा सकता है।
(iii) नवीन कम्प्यूटर के साथ काम करने के कुछ उपयोग प्रेरणा प्रदान करते हैं ।
(iv) उच्च कोटि की व्यक्तित्व की क्रियाएँ छात्रों की प्रतिक्रियाओं को उच्च कोटि का पुनर्बलन प्रदान करती है।
(v) छात्रों की स्मरण शक्ति उनके अतीत के ज्ञान को अभिलेखित करने के लिए परवर्ती पदों को प्रदान करती है।
(vi) सजीव रंगीन चित्रण छात्रों को अभ्यास करने के लिए वास्तविक प्रेरणा प्रदान करता है|
प्रश्न 5 (xxi) टेलीकान्फ्रेन्सिंग |
अथवा
शिक्षा में टेलीकॉन्फ्रेन्सिंग का उपयोग।
उत्तर-
टेलीकान्फ्रेन्सिंग एक ऐसी इलेक्ट्रानिक प्रणाली है जिसमें दो या दो से अधिक दूर बैठे व्यक्ति अपनी इच्छित विषय-वस्तु से सम्बन्धित चर्चा परिचर्चा में भाग ले सकते हैं। अपनी बात कह सकते हैं, दूसरों की बात सुन सकते हैं, उन पर तुरंत प्रतिक्रियाएँ, सुझाव या अभिमत प्राप्त कर सकते हैं और आवश्यक सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकते हैं। टेलीकान्फ्रेन्सिंग में कई माध्यम भाग लेते हैं और इसमें द्विमार्गीय प्रसारण द्वारा अंतर्क्रिया सामूहिक संचार की व्यवस्था होती है। यह दूरवर्ती शिक्षा के लिए एक सशक्त माध्यम है।
सन् 1880 ई0 तक टेलीकान्फ्रेन्सिंग अपनी प्रयोगात्मक अवस्था में थी । इसका प्रयोग कभी-कभी किया जाता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह दूरवर्ती- शिक्षा संस्थाओं द्वारा प्रतिदिन प्रयोग किया जाने लगा लेकिन इसके प्रयोग द्वारा यह पाया गया है कि इसमें लागत की कमी आयी है और शिक्षार्थी की सेवा में गुणात्मक सुधार हुआ है। सुगमता एवं कम लागत की पूँजी के द्वारा यह दूरवर्ती शिक्षा संस्थानों एवं शिक्षार्थियों के द्वारा आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बन गया। इस माध्यम का शैक्षिक संस्थानों में अधिक विकास हुआ है।
प्रश्न 5 (xxii) शैक्षिक तकनीकी द्वितीय अथवा कोमल उपागम ।
अथवा
सॉफ्टवेयर तकनीकी ।
उत्तर-
इस शैक्षिक तकनीकी के प्रभाव में आने का मुख्य आधार शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग है। इस शैक्षिक तकनीकी को अनुदेशन-तकनीकी, शिक्षण तकनीकी तथा व्यवहार तकनीकी भी कहते हैं । सिल्वरमैन ने इसे रचनात्मक शैक्षिक तकनीकी कहा है। कोमल उपागम के माध्यम से नवीन विशिष्ट शिक्षण विधियों, प्रविधियों, तकनीकों एवं व्यूह-रचनाओं का निर्माण एवं विकास किया जाता है। यह तकनीकी शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को रुचिकर, सरल एवं प्रभावशाली तथा बनाती है। इसलिए इसे भाषा उपागम का नाम दिया गया है। इसमें अभियन्त्रण की मशीनों का प्रयोग न करके शिक्षण तथा सीखने के लिए सिद्धान्तों का प्रयोग छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन लाने के लिए किया जाता है।
प्रश्न 5 (xxiii) शैक्षिक दूरदर्शन के भाग एवं उद्देश्य लिखिए।
अथवा
शिक्षा में टेलीविज़न की उपयोगिता की विवेचना कीजिए।
उत्तर -
शैक्षिक दूरदर्शन को हम दो भागों में विभाजित करते हैं --
(i) खुला दूरदर्शन प्रसारण - इसके अन्तर्गत दूरदर्शन प्रसारण में शैक्षिक कार्यक्रमों को दूरदर्शन स्टूडियो से सीधे तरंगों के माध्यम से छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
(ii) बन्द दूरदर्शन प्रसारण - इस प्रसारण में श्रोता और प्रसारण के साधन सीमित होते हैं। प्रायः प्रसारण स्टूडियो का सम्बन्ध एक केबिल के माध्यम से सीधे दूरदर्शन से होता है अथवा विशेष प्रकार के दूरदर्शन पर एक विशेष तरंग दैर्ध्य पर प्रसारण होता है।
शैक्षिक दूरदर्शन के उद्देश्य
(1) सामान्य और विशेष विषयों की शिक्षा सबके लिए आसान बनाना ।
(2) व्यावसायिक एवं औद्योगिक प्रशिक्षण सम्बन्धी कार्यक्रम का प्रसारण।
(3) शिक्षकों को सेवापर्ण व सेवाकालीन प्रशिक्षण देना ।
(4) उन व्यक्तियों को शिक्षा प्रदान कराना जो विद्यालय नहीं जा सकते।
प्रश्न 5 (xxiv) शिक्षण व्यूह रचना ।
उत्तर-
टेलीकान्फ्रेन्सिंग एक ऐसी इलेक्ट्रानिक प्रणाली है जिसमें दो या दो से अधिक दूर बैठे व्यक्ति अपनी इच्छित विषय-वस्तु से सम्बन्धित चर्चा परिचर्चा में भाग ले सकते हैं। अपनी बात कह सकते हैं, दूसरों की बात सुन सकते हैं, उन पर तुरंत प्रतिक्रियाएँ, सुझाव या अभिमत प्राप्त कर सकते हैं और आवश्यक सूचनाओं का आदान-प्रदान कर सकते हैं। टेलीकान्फ्रेन्सिंग में कई माध्यम भाग लेते हैं और इसमें द्विमार्गीय प्रसारण द्वारा अंतर्क्रिया सामूहिक संचार की व्यवस्था होती है। यह दूरवर्ती शिक्षा के लिए एक सशक्त माध्यम है।
सन् 1880 ई0 तक टेलीकान्फ्रेन्सिंग अपनी प्रयोगात्मक अवस्था में थी । इसका प्रयोग कभी-कभी किया जाता था, लेकिन पिछले कुछ वर्षों से यह दूरवर्ती- शिक्षा संस्थाओं द्वारा प्रतिदिन प्रयोग किया जाने लगा लेकिन इसके प्रयोग द्वारा यह पाया गया है कि इसमें लागत की कमी आयी है और शिक्षार्थी की सेवा में गुणात्मक सुधार हुआ है। सुगमता एवं कम लागत की पूँजी के द्वारा यह दूरवर्ती शिक्षा संस्थानों एवं शिक्षार्थियों के द्वारा आकर्षण का प्रमुख केन्द्र बन गया। इस माध्यम का शैक्षिक संस्थानों में अधिक विकास हुआ है।
प्रश्न 5 (xxii) शैक्षिक तकनीकी द्वितीय अथवा कोमल उपागम ।
अथवा
सॉफ्टवेयर तकनीकी ।
उत्तर-
इस शैक्षिक तकनीकी के प्रभाव में आने का मुख्य आधार शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया में मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों का प्रयोग है। इस शैक्षिक तकनीकी को अनुदेशन-तकनीकी, शिक्षण तकनीकी तथा व्यवहार तकनीकी भी कहते हैं । सिल्वरमैन ने इसे रचनात्मक शैक्षिक तकनीकी कहा है। कोमल उपागम के माध्यम से नवीन विशिष्ट शिक्षण विधियों, प्रविधियों, तकनीकों एवं व्यूह-रचनाओं का निर्माण एवं विकास किया जाता है। यह तकनीकी शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को रुचिकर, सरल एवं प्रभावशाली तथा बनाती है। इसलिए इसे भाषा उपागम का नाम दिया गया है। इसमें अभियन्त्रण की मशीनों का प्रयोग न करके शिक्षण तथा सीखने के लिए सिद्धान्तों का प्रयोग छात्रों में अपेक्षित व्यवहार परिवर्तन लाने के लिए किया जाता है।
प्रश्न 5 (xxiii) शैक्षिक दूरदर्शन के भाग एवं उद्देश्य लिखिए।
अथवा
शिक्षा में टेलीविज़न की उपयोगिता की विवेचना कीजिए।
उत्तर -
शैक्षिक दूरदर्शन को हम दो भागों में विभाजित करते हैं --
(i) खुला दूरदर्शन प्रसारण - इसके अन्तर्गत दूरदर्शन प्रसारण में शैक्षिक कार्यक्रमों को दूरदर्शन स्टूडियो से सीधे तरंगों के माध्यम से छात्रों के समक्ष प्रस्तुत किया जाता है।
(ii) बन्द दूरदर्शन प्रसारण - इस प्रसारण में श्रोता और प्रसारण के साधन सीमित होते हैं। प्रायः प्रसारण स्टूडियो का सम्बन्ध एक केबिल के माध्यम से सीधे दूरदर्शन से होता है अथवा विशेष प्रकार के दूरदर्शन पर एक विशेष तरंग दैर्ध्य पर प्रसारण होता है।
शैक्षिक दूरदर्शन के उद्देश्य
(1) सामान्य और विशेष विषयों की शिक्षा सबके लिए आसान बनाना ।
(2) व्यावसायिक एवं औद्योगिक प्रशिक्षण सम्बन्धी कार्यक्रम का प्रसारण।
(3) शिक्षकों को सेवापर्ण व सेवाकालीन प्रशिक्षण देना ।
(4) उन व्यक्तियों को शिक्षा प्रदान कराना जो विद्यालय नहीं जा सकते।
प्रश्न 5 (xxiv) शिक्षण व्यूह रचना ।
उत्तर-
व्यूह रचना का अर्थ-
शिक्षण-क्रिया में कुछ शिक्षक अधिक प्रभावशाली होते हैं। इसके विपरीत कुछ शिक्षक नीरस, उदासीन एवं केवल पुस्तकीय ज्ञान तक सीमित रहते हैं एवं कुछ शिक्षक अपने विषय के अतिरिक्त अन्य विषयों, जैसे- राजनैतिक, प्रशासनिक, मनोरंजन आदि में ही व्यस्त रहते हैं एवं कक्षा शिक्षण में कोई रुचि नहीं लेते हैं। इस प्रकार हम कह सकते हैं कि शिक्षण एक मनोवैज्ञानिक क्रिया है, जिसके द्वारा विद्यार्थियों में आवश्यक व्यवहार परिवर्तन किया जा सकता है।
शिक्षक के शिक्षण कार्य की कुशलता उसके द्वारा चयनित व्यूह रचना पर निर्भर करती है। शिक्षण व्यूह रचना को हम साधारण भाषा में 'पूर्व शिक्षण नियोजन' की कला कह सकते हैं।
शिक्षण के सम्बन्ध में व्यूह रचनाओं एवं नीतियों की व्याख्या करते हुए प्रो० स्टोन्स एवं मैरिस कहते हैं- "शिक्षण व्यूह रचना पाठ की एक सामान्यीकृत योजना है, जिसमें छात्रों के व्यवहार परिवर्तन की संरचना अनुदान के उद्देश्यों के रूप में सम्मिलित होती है एवं व्यूह रचनाओं का प्रयोग करने के लिए आवश्यक युक्तियों की रूपरेखा सम्मिलित होती है । पाठ की नीति एक विकसित पाठ्यक्रम का ही भाग है । "
शिक्षण व्यूह रचनाओं के लाभ
1. शिक्षण व्यूह रचनाओं का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है।
2. इनके उपयोग से कम समय से अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
3. शिक्षण व्यूह रचनाओं द्वारा शिक्षण सिद्धान्तों एवं सम्प्रदायों के आदान-प्रदान में छात्र गलत अनुक्रिया कम करता है ।
4. शिक्षण व्यूह रचनाओं का मुख्य कार्य व्यवहार परिवर्तन है ।
5. शिक्षण व्यूह रचनाएँ सदैव किसी न किसी शिक्षण प्रतिमान की ओर संकेत करती हैं।
प्रश्न 5 (xxv) ओवरहैड प्रोजेक्टर (ओ० एच० पी० )।
अथवा
शिक्षक के शिक्षण कार्य की कुशलता उसके द्वारा चयनित व्यूह रचना पर निर्भर करती है। शिक्षण व्यूह रचना को हम साधारण भाषा में 'पूर्व शिक्षण नियोजन' की कला कह सकते हैं।
शिक्षण के सम्बन्ध में व्यूह रचनाओं एवं नीतियों की व्याख्या करते हुए प्रो० स्टोन्स एवं मैरिस कहते हैं- "शिक्षण व्यूह रचना पाठ की एक सामान्यीकृत योजना है, जिसमें छात्रों के व्यवहार परिवर्तन की संरचना अनुदान के उद्देश्यों के रूप में सम्मिलित होती है एवं व्यूह रचनाओं का प्रयोग करने के लिए आवश्यक युक्तियों की रूपरेखा सम्मिलित होती है । पाठ की नीति एक विकसित पाठ्यक्रम का ही भाग है । "
शिक्षण व्यूह रचनाओं के लाभ
1. शिक्षण व्यूह रचनाओं का क्षेत्र अत्यन्त व्यापक है।
2. इनके उपयोग से कम समय से अधिक ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।
3. शिक्षण व्यूह रचनाओं द्वारा शिक्षण सिद्धान्तों एवं सम्प्रदायों के आदान-प्रदान में छात्र गलत अनुक्रिया कम करता है ।
4. शिक्षण व्यूह रचनाओं का मुख्य कार्य व्यवहार परिवर्तन है ।
5. शिक्षण व्यूह रचनाएँ सदैव किसी न किसी शिक्षण प्रतिमान की ओर संकेत करती हैं।
प्रश्न 5 (xxv) ओवरहैड प्रोजेक्टर (ओ० एच० पी० )।
अथवा
ओवरहैड प्रोजेक्टर का प्रयोग एवं उसके महत्त्वपूर्ण सहायक उपकरणों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर-
ओवरहैड प्रोजेक्टर विधि शिक्षा के क्षेत्र में एक उत्तम सम्प्रेषण विधि है। इसमें विषय से सम्बन्धित विषय-वस्तु पर विभिन्न ट्रान्सपेरेन्सीज तैयार की जाती है और इन्हें पर्दे या दीवार पर प्रक्षेपित किया जाता है। प्रोजेक्टर को कक्षा में प्रदर्शन - मेज पर रखा जाता है। शिक्षक छात्रों की ओर उन्मुख होकर प्रोजेक्टर में तैयार ट्रान्सपेरेन्सीज रखता है और प्रोजेक्टर का संचालन करता है ।
ओवरहैड प्रोजेक्टर समस्त प्रक्षेपित होने वाला प्रोजेक्टर है। इसके द्वारा 18cm x 22.5cm आकार की तैयार ट्रान्सपेरेन्सीज को बड़ा करके प्रक्षेपण 1.5 cm x 1.5 cm आकार में सरलता से लाया जा सकता है। इसमें शिक्षक छात्रों के सामने रहता है। ट्रान्सपेरेन्सीज पर सन्देश, डायग्राम तथा स्कैच आदि विवरण अंकित किया जाता है। आवश्यकता पड़ने पर इन्हें टाइप कराकर फोटोकॉपीयर द्वारा भी तैयार किया जा सकता है।
प्रश्न 5 (xxvi) बहु इन्द्रिय अनुदेशन का उपयोग बताइए ।
अथवा.
शिक्षण में बहु इन्द्रिय अनुदेशन की उपयोगिता लिखिए।
अथवा
बहु इन्द्रिय अनुदेशन क्या है? संक्षिप्त में उदाहरण सहित इसकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
बहु इन्द्रिय अनुदेशन का उपयोग
बहु इन्द्रिय अनुदेशन का उपयोग उच्चस्तरीय शिक्षण तथा अनुदेशन में किया जाता है। इसके ने उपयोग से पाठ्यवस्तु पर स्वामित्व होता है । बोध स्तर की शिक्षण व्यवस्था में मौरीसन तथा ब्लूम अनुभवों के स्रोतों का उल्लेख नहीं किया है । यद्यपि इन्होंने अपनी क्रियाओं में बहुइन्द्रिय स्रोतों का उपयोग किया है।
ऐसे अनेक शिक्षण तथा अनुदेशन प्रतिमान, शिक्षण विधियाँ तथा योजनाओं को विकसित किया है जो स्वामित्व अधिगम के लिए प्रयुक्त होते हैं। इनके अन्तर्गत शिक्षण के स्वरूप को विकसित करने में बहु इन्द्रिय अनुदेशन का ही उपयोग किया है। यहाँ कुछ शिक्षण अधिगम विधियों, प्रतिमानों तथा योजनाओं का उल्लेख किया है-
(1) पर्यवेक्षण अध्ययन,
(2) बोध स्तर शिक्षण प्रतिमान,
(3) स्वामित्व अधिगम |
इन विधियों तथा प्रतिमानों का वर्णन बहुइन्द्रिय अनुदेशन के सन्दर्भ में किया गया है। बालक की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं—आँख, नाक, कान, जीभ तथा त्वचा । इन ज्ञानेन्द्रियों का काम बालक को उत्तेजित करना होता है। ये उत्तेजनाएँ भी पाँच प्रकार की होती हैं। आँख प्रकाश द्वारा, कान आवाज द्वारा, नाक गन्ध द्वारा, जीभ स्वाद द्वारा तथा त्वचा ज्ञानेन्द्रिय स्पर्श द्वारा उत्तेजना ग्रहण करती है। बच्चे में धीरे-धीरे सभी ज्ञानेन्द्रियाँ सचेष्ट एवं क्रियाशील हो जाती हैं। इसी समस्त प्रक्रिया को सामूहिक सन्तुलित एवं पूर्ण विकास की संज्ञा दी जाती है।
शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक बालक के शारीरिक और सामाजिक विकास के साथ ही ज्ञानात्मक अथवा मानसिक विकास होता रहता है। बिना मानसिक विकास के उपयुक्त सामाजिक विकास सम्भव नहीं। यह देखा गया है कि जिस बालक का मानसिक विकास समुचित ढंग से हुआ है वह प्रत्येक कार्य को ठीक प्रकार से कर सकता है। एक प्रकार से कहा जा सकता है कि विद्यालय में बालक के शारीरिक, क्रियात्मक, मानक तथा सामाजिक विकास की अपेक्षा ज्ञानात्मक विकास का बहुत अधिक महत्त्व है।
प्रश्न 5 (xxvii) इन्द्रियों का अनुदेशन पर प्रभाव बताइए ।
उत्तर -
बालक की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं— आँख, नाक, कान, जीभ तथा त्वचा । ये उत्तेजनाएँ भी पाँच प्रकार की होती हैं। आँख की प्रकाश द्वारा, कान की आवाज द्वारा, नाक की गन्ध द्वारा व जीभ का स्वाद तथा त्वचा की ज्ञानेन्द्रिय स्पर्श द्वारा उत्तेजना ग्रहण करती है। बच्चे में धीरे-धीरे सभी ज्ञानेन्द्रियाँ सचेष्ट एवं क्रियाशील हो जाती हैं ।
शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक बालक के शारीरिक और सामाजिक विकास के साथ ही ज्ञानात्मक अथवा मानसिक विकास होता रहता है । जिस बालक का मानसिक विकास समुचित ढंग से हुआ वह प्रत्येक कार्य को ठीक प्रकार से कर सकता है। एक प्रकार से कहा जा सकता है कि विद्यालय में बालक के शारीरिक, क्रियात्मक, गामक तथा सामाजिक विकास की अपेक्षा ज्ञानात्मक विकास का बहुत अधिक महत्त्व है।
प्रश्न 5 (xxviii) कम्प्यूटर सह अनुदेशन क्या है?
उत्तर -
उत्तर-
ओवरहैड प्रोजेक्टर विधि शिक्षा के क्षेत्र में एक उत्तम सम्प्रेषण विधि है। इसमें विषय से सम्बन्धित विषय-वस्तु पर विभिन्न ट्रान्सपेरेन्सीज तैयार की जाती है और इन्हें पर्दे या दीवार पर प्रक्षेपित किया जाता है। प्रोजेक्टर को कक्षा में प्रदर्शन - मेज पर रखा जाता है। शिक्षक छात्रों की ओर उन्मुख होकर प्रोजेक्टर में तैयार ट्रान्सपेरेन्सीज रखता है और प्रोजेक्टर का संचालन करता है ।
ओवरहैड प्रोजेक्टर समस्त प्रक्षेपित होने वाला प्रोजेक्टर है। इसके द्वारा 18cm x 22.5cm आकार की तैयार ट्रान्सपेरेन्सीज को बड़ा करके प्रक्षेपण 1.5 cm x 1.5 cm आकार में सरलता से लाया जा सकता है। इसमें शिक्षक छात्रों के सामने रहता है। ट्रान्सपेरेन्सीज पर सन्देश, डायग्राम तथा स्कैच आदि विवरण अंकित किया जाता है। आवश्यकता पड़ने पर इन्हें टाइप कराकर फोटोकॉपीयर द्वारा भी तैयार किया जा सकता है।
प्रश्न 5 (xxvi) बहु इन्द्रिय अनुदेशन का उपयोग बताइए ।
अथवा.
शिक्षण में बहु इन्द्रिय अनुदेशन की उपयोगिता लिखिए।
अथवा
बहु इन्द्रिय अनुदेशन क्या है? संक्षिप्त में उदाहरण सहित इसकी व्याख्या कीजिए।
उत्तर-
बहु इन्द्रिय अनुदेशन का उपयोग
बहु इन्द्रिय अनुदेशन का उपयोग उच्चस्तरीय शिक्षण तथा अनुदेशन में किया जाता है। इसके ने उपयोग से पाठ्यवस्तु पर स्वामित्व होता है । बोध स्तर की शिक्षण व्यवस्था में मौरीसन तथा ब्लूम अनुभवों के स्रोतों का उल्लेख नहीं किया है । यद्यपि इन्होंने अपनी क्रियाओं में बहुइन्द्रिय स्रोतों का उपयोग किया है।
ऐसे अनेक शिक्षण तथा अनुदेशन प्रतिमान, शिक्षण विधियाँ तथा योजनाओं को विकसित किया है जो स्वामित्व अधिगम के लिए प्रयुक्त होते हैं। इनके अन्तर्गत शिक्षण के स्वरूप को विकसित करने में बहु इन्द्रिय अनुदेशन का ही उपयोग किया है। यहाँ कुछ शिक्षण अधिगम विधियों, प्रतिमानों तथा योजनाओं का उल्लेख किया है-
(1) पर्यवेक्षण अध्ययन,
(2) बोध स्तर शिक्षण प्रतिमान,
(3) स्वामित्व अधिगम |
इन विधियों तथा प्रतिमानों का वर्णन बहुइन्द्रिय अनुदेशन के सन्दर्भ में किया गया है। बालक की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं—आँख, नाक, कान, जीभ तथा त्वचा । इन ज्ञानेन्द्रियों का काम बालक को उत्तेजित करना होता है। ये उत्तेजनाएँ भी पाँच प्रकार की होती हैं। आँख प्रकाश द्वारा, कान आवाज द्वारा, नाक गन्ध द्वारा, जीभ स्वाद द्वारा तथा त्वचा ज्ञानेन्द्रिय स्पर्श द्वारा उत्तेजना ग्रहण करती है। बच्चे में धीरे-धीरे सभी ज्ञानेन्द्रियाँ सचेष्ट एवं क्रियाशील हो जाती हैं। इसी समस्त प्रक्रिया को सामूहिक सन्तुलित एवं पूर्ण विकास की संज्ञा दी जाती है।
शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक बालक के शारीरिक और सामाजिक विकास के साथ ही ज्ञानात्मक अथवा मानसिक विकास होता रहता है। बिना मानसिक विकास के उपयुक्त सामाजिक विकास सम्भव नहीं। यह देखा गया है कि जिस बालक का मानसिक विकास समुचित ढंग से हुआ है वह प्रत्येक कार्य को ठीक प्रकार से कर सकता है। एक प्रकार से कहा जा सकता है कि विद्यालय में बालक के शारीरिक, क्रियात्मक, मानक तथा सामाजिक विकास की अपेक्षा ज्ञानात्मक विकास का बहुत अधिक महत्त्व है।
प्रश्न 5 (xxvii) इन्द्रियों का अनुदेशन पर प्रभाव बताइए ।
उत्तर -
बालक की पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ हैं— आँख, नाक, कान, जीभ तथा त्वचा । ये उत्तेजनाएँ भी पाँच प्रकार की होती हैं। आँख की प्रकाश द्वारा, कान की आवाज द्वारा, नाक की गन्ध द्वारा व जीभ का स्वाद तथा त्वचा की ज्ञानेन्द्रिय स्पर्श द्वारा उत्तेजना ग्रहण करती है। बच्चे में धीरे-धीरे सभी ज्ञानेन्द्रियाँ सचेष्ट एवं क्रियाशील हो जाती हैं ।
शैशवावस्था से प्रौढ़ावस्था तक बालक के शारीरिक और सामाजिक विकास के साथ ही ज्ञानात्मक अथवा मानसिक विकास होता रहता है । जिस बालक का मानसिक विकास समुचित ढंग से हुआ वह प्रत्येक कार्य को ठीक प्रकार से कर सकता है। एक प्रकार से कहा जा सकता है कि विद्यालय में बालक के शारीरिक, क्रियात्मक, गामक तथा सामाजिक विकास की अपेक्षा ज्ञानात्मक विकास का बहुत अधिक महत्त्व है।
प्रश्न 5 (xxviii) कम्प्यूटर सह अनुदेशन क्या है?
उत्तर -
कम्प्यूटर का प्रयोग सामान्यतः बड़ी-बड़ी सांख्यिकीय गणनाएँ करने हेतु किया जाता है। विदेशों में इसका प्रचार अधिक है और अब यहाँ भी इसका प्रयोग काफी होने लगा है। शिक्षण में भी अब इसका उपयोग किया जाने लगा है। कम्प्यूटर सह अनुदेशन में आवाज को रिकार्ड कर लिया जाता है जो अधिगमकर्त्ता द्वारा दिए गए उत्तर संकेतों के आधार पर निःसृत होती हैं। पहले अधिगमकर्ता पर्दे पर देखता है जो एक प्रोजेक्टर से सम्बद्ध होता है। वह उस पर जो बात लिखी या दर्शायी गई हैं, उसे सीखने का प्रयास करता है। जब वह उसे सीख लेता है तो यह जानने के लिए वह उसे सीख पाया है या नहीं, कई मिलते-जुलते शब्द या बातें पर्दे पर दर्शायी जाती हैं। अधिगमकर्त्ता सही बात या शब्द को पहचानने के पश्चात् उसे संकेतक से छूता है । छूने के पश्चात् वह उत्तर सही या गलत, जैसा भी होता है, वैसी ही ध्वनि जो पहले से ही रिकार्ड होती है, निःसृत होती है। यदि उत्तर गलत होता है तो उसका कारण भी ध्वनि रूप में अधिगमकर्त्ता को पता चल जाता है।
प्रश्न 6 (i) सूचना एवं संचार तकनीकी का महत्त्व लिखिए।
उत्तर -
सूचना एवं संचार तकनीकी का महत्त्व निम्नांकित है-
(i) शिक्षण की क्रिया का संचालन सम्प्रेषण प्रवाह से किया जाता है।
(ii) सूचना एवं संचार तकनीक द्वारा पठन-पाठन सुगम होता है।
(ii) सूचना एवं संचार तकनीक द्वारा कक्षा में सामाजिक- भावात्मक वातावरण का सृजन किया जाता है।
(iv) इन पद्धतियों से छात्रों के व्यवहारों में अपेक्षित परिवर्तन किये जाते हैं।
प्रश्न 6 (i) सूचना एवं संचार तकनीकी का महत्त्व लिखिए।
उत्तर -
सूचना एवं संचार तकनीकी का महत्त्व निम्नांकित है-
(i) शिक्षण की क्रिया का संचालन सम्प्रेषण प्रवाह से किया जाता है।
(ii) सूचना एवं संचार तकनीक द्वारा पठन-पाठन सुगम होता है।
(ii) सूचना एवं संचार तकनीक द्वारा कक्षा में सामाजिक- भावात्मक वातावरण का सृजन किया जाता है।
(iv) इन पद्धतियों से छात्रों के व्यवहारों में अपेक्षित परिवर्तन किये जाते हैं।
(73)
(73) |