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भाषा विकास का अर्थ , चरण , क्रम , प्रभावित करनेवाले कारक , बाधाये , साधन

 भाषा विकास का अर्थ , चरण , क्रम , प्रभावित करनेवाले कारक , बाधाये एवं  साधन

Meaning Steps Sequence Factors Influencing Hazard  of Language Development 
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AB JANKARIके इस पेज में डी.एल.एड , बी.एड एवं सीटेट से सम्बन्धित भाषा विकाश के अर्थ ,भाषा विकाश के चरण, भाषा विकाश के क्रम, भाषा विकाश को प्रभावित करनेवाले कारक, भाषा विकाश के बाधाये , भाषा विकाश के साधन इत्यादी को शामिल किया गया है |
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भाषा विकास का अर्थ


भाषा विकास का अर्थ (Meaning of Language Development)

एक नवजात शिशु की सबसे प्रमुख मजबूरी (helplessness) यह होती है कि वह अपनी इच्छाओं तथा जरूरतों को दूसरों तक भाषा द्वारा नहीं पहुँचा पाता है तथा दूसरों के शब्दों एवं हाव-भाव (gesture) को वह ठीक से नहीं समझ पाता है। परंतु, यह मजबूरी बहुत तेजी के साथ प्रारंभिक वर्षों में भाषा विकास (language development) के साथ समाप्त हो जाती है। व्यक्ति में भाषा विकास से तात्पर्य एक ऐसी क्षमता से होता है जिसके द्वारा व्यक्ति अपने भावों, विचारों तथा इच्छाओं को दूसरे तक सूचित करता है या पहुँचाता है तथा दूसरों के भावों एवं इच्छाओं को ग्रहण करता है। भाषा में कई तरह के संचार (communications) हो सकते हैं, जैसे मौखिक संचार (verbal communication), मुखाकृति संचार (facial communication), आंगिक संचार (gesture communication), लिखित संचार (written communication), कला (art), मूकाभिनय (pantomine) आदि। इन सबका उद्देश्य विचारों एवं भावों को दूसरों तक पहुँचाना होता है। भाषा विकास के लिए यह आवश्यक है कि बालक में श्रवण शक्ति अर्थात सुनकर भाषा को समझने की शक्ति विकसित हो तथा उसमें सार्थक ढंग से ध्वनि उत्पन्न कर भाषा बोलने की शक्ति हो ।





भाषा विकास के चरण


भाषा विकास के चरण

 (Steps of Language Development)

मनोवैज्ञानिकों ने बालकों के भाषा विकास के चरणों की व्याख्या मोटे तौर पर दो भागों में बाँटकर की है -

(01)  प्राक्-भाषा विकास की अवस्थाएँ  (pre-speech development stages) 

(02)  उत्तरकालीन भाषा-विकास की अवस्थाएँ (stages of later speech development)।


(01)  प्राक्-भाषा विकास की अवस्थाएँ  (pre-speech development stages) 


एक सामान्य बालक में प्रथम 15 महीनों की अवस्था को प्राक्-भाषा अवस्था (pre-speech stage) कहा जाता है। इस अवस्था में बालक अपनी कुछ इच्छाओं एवं आवश्यकताओं को हाव-भाव (gestures) के द्वारा तथा कुछ इच्छाओं एवं आवश्यकताओं को अभिव्यंजक स्पष्टीकरण (expressive vocalisation) के द्वारा अभिव्यक्त करता है। इन सबका अर्थ सिर्फ माता-पिता या वही व्यक्ति समझ पाते हैं जो शिशुओं के सम्पर्क में होते हैं।

प्राक्-भाषा की अवस्था में बालक अपनी संचार आवश्यकताओं की अभिव्यक्ति निम्नांकित चार प्रकार से करता है-

(1) रुदन (Crying)

रुदन नवजात शिशु का सबसे पहला स्पष्टीकरण (vocalisation) है जिसे रिबल (Ribble, 1943) ने आपात श्वसन (emergency respiration) कहा है। रुदन द्वारा बालक अपनी आवश्यकताओं (needs) की जानकारी दूसरों को देते हैं।


(2) विस्फोटक ध्वनियाँ जो बाद में बलबालाना में बदल जाती है

 (Explosive sounds which soon develop into babbling) -

बलबालाना (babbling) भाषा विकास की दूसरी अवस्था है। प्रथम दो महीनों में शिशु रोने के अलावा कुछ अस्पष्ट ध्वनियाँ भी पैदा करता है। इस समय शिशु स्वर (vowel) ध्वनियों का प्रयोग अधिक करता है। इन ध्वनियों का स्वरूप विस्फोटक (explosive) होता है। इन्हें शिशु अपनी इच्छा से पैदा नहीं करता बल्कि ये स्वर-यंत्रों (vocal mechanisms) की आकस्मिक क्रियाओं (chance movements) द्वारा खुद पैदा होते हैं। चूँकि ऐसी ध्वनियों का प्रयोग शिशु जान-बूझकर नहीं करता और न तो शिशु के लिए उनका कोई अर्थ ही होता है। वे इसका प्रयोग खेलने के रूप में करते हैं जिससे उन्हें काफी मजा मिलता है। इस तरह की ध्वनि को घुटकना (cooing) कहा जाता है। इनमें बहुत-सी घुटकनेवाली ध्वनियाँ (cooing sounds) कुछ महीनों के बाद अपने-आप समाप्त हो जाती हैं और कुछ बलबलाना (babbling) में बदल जाता है।


जब शिशु तीन-चार महीने का हो जाता है, तो उसका स्वर-यंत्र (vocal mechanism) इतना परिपक्व (mature) हो जाता हैं कि वह पहले से अधिक ध्वनियाँ (sounds) उत्पन्न करता है। अब वह स्वर (vowel) तथा व्यंजन (consonant) ध्वनि को एक साथ मिलाकर बोलता है। जैसे—'दा', 'ना', 'बा', 'मा', आदि। जब शिशु सात-आठ महीने का हो जाता है, तब वह इन ध्वनियों को तुरंत-तुरंत दुहराता है जिनको सुनने पर वे अर्थपूर्ण लगते हैं। जैसे– 'मा-मा', 'दा-दा', 'ना-ना' आदि । इसे ही बलबलाना (babbling or lalling) कहा जाता है। सामान्यतः 12 महीनों के बाद बलबलाने की ध्वनियाँ शब्द (words) का रूप ले लेती हैं और तब शिशु बलबलाना बंद कर देता है। काप्लान तथा काप्लान (Kaplan & Kaplan, 1971) के अध्ययनों के अनुसार कुछ बालक दो साल की उम्र तक बलबलाते ही रहते हैं।


कोई भी शिशु कितना बलबलाता है और कितने महीनों तक बलबलाता है, सामान्यतः यह इस बात पर निर्भर करता है कि उसे माता-पिता या परिवार के अन्य सदस्यों द्वारा बलबलाने का प्रशिक्षण दिया जाता है या नहीं। यदि माता-पिता वैसे ही बलबलाकर शिशु को प्राय: कुछ सुनाते रहते हैं तो इससे वे प्रोत्साहित हो जाते हैं और वे जल्दी-जल्दी बलबलाते हैं। इस प्रक्रिया से उनका स्वर-यंत्र (vocal mechanism) इतना मजबूत हो जाता है कि वह तुरंत ही शब्द को बोलना सीख लेता है।


(3) हाव-भाव (Gestures) -

हाव-भाव से तात्पर्य शरीर के अंगों द्वारा की गई वैसी क्रियाओं (movements) से होता है जिससे कुछ अर्थ निकलता है और फलतः वे भाषा के प्रतिस्थापित (substitute) तथा पूरक (supplement) रूप हैं। भाषा के प्रतिस्थापित रूप (substitute form) में हाव-भाव (gestures) एक तरह से शब्दों का स्थान लेते हैं और इसके द्वारा दूसरों को शिशु कुछ व्यक्त करने की कोशिश करता है। भाषा के पूरक के रूप में बोली गई ध्वनियों (spoken sounds) में शिशु हाव-भाव द्वारा विशेष अर्थ जोड़ने की कोशिश करता है। हाव-भाव का प्रयोग उस समय तक शिशु करता है जबतक कि वह सही-सही शब्दों का वाक्य के रूप में प्रयोग न कर ले।


(4) सांवेगिक अभिव्यक्ति

 (Emotional expression)

मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो जाता है कि सुखद संवेग (pleasant emotion) को शिशु सुखद स्पष्टीकरण (pleasant vocalisation) जैसे घुटकना (cooing), हँसना, अपनी बाँहों को फैलाना आदि द्वारा करता है तथा दुःखंद संवेग (unpleasant emotion) को शिशु रुदन (crying) तथा ठुनकना (whimpering) आदि द्वारा व्यक्त करता है। इस तरह सांवेगिक अभिव्यक्ति द्वारा भी शिशु अपनी आवश्यकताओं (needs) एवं इच्छाओं की अभिव्यक्ति करता है। 12-13 महीने के शिशुओं में इस तरह की सांवेगिक अभिव्यक्ति स्पष्ट रूप से देखने को मिलती है। हाव-भाव के समान ही सांवेगिक अभिव्यक्ति का प्रयोग बालकों द्वारा पूर्ण शब्दकोश (vocabularies) विकसित होने के बाद भी जारी रहता है।


(02) उत्तरकालीन भाषा विकास (later speech development) 

मनोवैज्ञानिकों ने बालकों में उत्तरकालीन भाषा विकास (later speech development) की पाँच अवस्थाएँ बताई हैं। भाषा विकास हो जाने पर बालक ध्वनियों (sounds) को दूसरों को समझने लायक शब्दों (recognizable words) में व्यक्त करता है तथा उसका सही-सही अर्थ स्वयं भी समझता है। इस तरह से भाषा के दो पहलू (aspects) होते हैं जिसका विकास यहाँ होता है—क्रियात्मक पहलू (motor aspects) तथा मानसिक पहलू (mental aspect)। ध्वनियों को संयोजित कर अर्थपूर्ण शब्द मुँह से निकालना भाषा का क्रियात्मक पहलू (motor aspect) है तथा उन शब्दों का सही-सही अर्थ समझना मानसिक पहलू (mental aspect) है।

उत्तरकालीन भाषा विकास (later speech development) की पाँच अवस्थाएँ बताई हैं। जो एस प्रकार है 

(1) दूसरों की भाषा को समझना (Comprehension of speech of others) –

भाषा विकास की यह सबसे पहली अवस्था है जिसमें शिशुओं को दूसरों की भाषा को समझना होता है। इसके लिए यह आवश्यक है कि शिशु परिवार के सदस्यों द्वारा बोले जानेवाले वाक्यों तथा शब्दों का अर्थ समझे। भाषा समझने के लिए यह आवश्यक है कि वह शब्दों का सही-सही प्रयोग करे। प्रायः शिशु हाव-भाव (gestures) तथा आनन-अभिव्यक्ति (facial expression) के आधार पर परिवार के सदस्यों की भाषा को समझने की कोशिश करता है।


(2) शब्दावली का निर्माण करना (Building a vocabulary) -

भाषा विकास का दूसरा महत्त्वपूर्ण चरण शब्दावली का निर्माण करना है। शब्दावली निर्माण में बालकों को शब्दों तथा उनके अर्थ को समझना आवश्यक होता है। सामान्यतः बालक वैसे शब्दों को पहले सीखते हैं जो उनकी भूख प्रेरणा से संबंधित होते हैं। इसके बाद अन्य साधारण शब्दों को सीखता है। जैसे-जैसे बालक नए-नए शब्दों को सीखता है तथा पुराने शब्दों के लिए नए-नए अर्थ समझता है उसकी शब्दावली बढ़ती जाती है। साधारणतः यह देखा गया है कि 18 महीने का बच्चा औसतन 10 शब्दों का प्रयोग करता है। 24 महीने का बालक औसतन 29 शब्दों का प्रयोग करता है। दो वर्ष के बालक का औसत शब्दकोश 200 से 300 शब्दों का होता है और इसी तरह बालक जब स्कूल में पहुँचता है तो उसका शब्दकोश और भी अधिक बढ़ जाता है।

(3) शब्दों का वाक्यों में संगठन (Combining words into sentences) –

शब्दों को मिलाकर वाक्य बनाना और इसे बोलना बालकों के लिए कठिन कार्य है। फिर भी 2 वर्ष की आयु से बालक शब्दों का वाक्यों में गठन करने का पहला प्रयास करते हैं। परंतु, ऐसा करने में उन्हें इस उम्र में आंशिक सफलता मिलती है। ऐसे शब्दों को बोलने के साथ-साथ वे उपयुक्त हाव-भाव भी दिखाते हैं जिनसे उन शब्दों का अर्थ स्पष्ट हो जाता है। 21⁄2 वर्ष की उम्र में बालक संज्ञा तथा क्रिया (noun and verb) शब्दों को मिलाकर एक छोटा वाक्य बनाने की कोशिश करता है परंतु अकसर छोटा वाक्य भी अधूरा ही रह जाता है। जब बालक 5 साल का हो जाता है, तो सभी शब्द-भेद (parts of speech) को मिलाकर छोटे-छोटे वाक्यों को बोल लेता है। प्रत्येक आनुक्रमिक वर्षों (successive years) में बालक वाक्यों का प्रयोग अधिक प्रवीणता (fluency) के साथ-साथ करता जाता है और वाक्यों में व्याकरण-संबंधी दोष घटता जाता है।


मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि जो बालक तीव्र बुद्धि के होते हैं या उच्च सामाजिक-आर्थिक स्तर वाले परिवारों से आते हैं वे लंबे तथा जटिल वाक्यों का प्रयोग वैसे बालकों की अपेक्षा, जो कम बुद्धि के होते हैं या निम्न सामाजिक-आर्थिक स्तर के होते हैं, अधिक करते हैं। बालकों द्वारा वाक्यों के प्रयोग में यौन (sex) का भी प्रभाव पड़ते देखा गया है। अकसर लड़कियाँ लड़कों की अपेक्षा अधिक लंबे तथा जटिल वाक्यों का प्रयोग करती हैं।


(4) उच्चारण (Pronunciation) – भाषा विकास का चौथा स्तर है—

शब्दों का सही-सही उच्चारण करना सीखना। शिशु अनुकरण (imitation) द्वारा शब्दों का उच्चारण करना सीखता है। माता-पिता तथा परिवार के अन्य सदस्यों की भाषा को वह ध्यानपूर्वक सुनता है और उसकी नकल करने की कोशिश करता है। एक वर्ष तक की आयु के बालकों का उच्चारण इतना अस्पष्ट तथा अबोध्य (incomprehensible) होता है कि उसका सही-सही अर्थ केवल उनके माता-पिता तथा परिवार के सदस्य ही समझ सकते हैं। 11⁄2 वर्ष की उम्र होने तक उनके उच्चारण में कुछ सुधार होता है और अब उसे अन्य व्यक्ति भी समझ सकते हैं। कुछ बालक ऐसे होते हैं जो 12-13 साल की उम्र हो जाने के बाद भी शब्दों का अशुद्ध उच्चारण करते हैं। ऐसे बालकों को फिर से उसका सही उच्चारण सिखाना बहुत कठिन हो जाता है क्योंकि उनमें अशुद्ध उच्चारण की एक आदत बन जाती है। 20-22 वर्ष की उम्र में स्वयं ही जब वे उच्चारण के प्रति काफी सचेत हो जाते हैं, तो उनमें कुछ सुधार लाते हैं।


(5) भाषा विकास का स्वामित्व (Mastery of language development) –

इस अंतिम अवस्था में व्यक्ति को शब्दों एवं वाक्यों का सही-सही प्रयोग, भाषा के व्याकरण तथा भाषा के वाक्य-विन्यास (syntax) आदि का पूर्ण ज्ञान हो जाता है। उसे लिखित भाषा (written language) तथा मौखिक भाषा (spoken language) पर अच्छा नियंत्रण हो जाता है।



इस तरह हम देखते हैं व्यक्तियों में भाषा विकास कई चरणों (steps) में पूरा होता है। भाषा विकास इन चरणों द्वारा निरंतर होता रहता है। यद्यपि विकास की गति में अवस्थाओं के अनुसार अन्तर पाया जाता है, फिर भी इन अवस्थाओं के बीच कोई स्पष्ट रेखा नहीं होती है।






भाषा विकास का क्रम


भाषा विकास का क्रम

 (Order or Sequence of Language Development)

भाषा विकास अंशतः वागींद्रियों (speech organs) की मांसपेशियों के परिपक्वन (maturation) तथा अंशतः पर्यावरण (environment) में मिलनेवाली उत्तेजनाओं (stimulations) पर निर्भर करता है। वागींद्रियों की पूर्ण परिपक्वता के बाद भाषा विकास मूलतः वातावरण द्वारा प्राप्त उत्तेजनाओं पर निर्भर करता है। इसलिए, इसका विकास अकसर एक क्रम (sequence) के अनुसार होता है। इन क्रमों (sequences) को इस प्रकार दिखाया जा सकता है-


(1) ध्वनि की पहचान (Recognition of sound) —

भाषा विकास में सबसे पहला क्रम ध्वनि की पहचान करना होता है। शिशु एक खास उम्र आने पर जैसे 6-7 महीने की उम्र हो जाने पर ध्वनि की पहचान आरंभ कर देते हैं तथा 8-9 महीने की उम्र से मधुर ध्वनि पर मुस्कुराते भी हैं।


(2) ध्वनि उत्पन्न करना (Production of sound) –

भाषा विकास के इस क्रम में बालक ध्वनि को पहचान कर उससे संबंधित कुछ अन्य ध्वनियों को उत्पन्न करना प्रारंभ कर देता है। जैसे 8-9 महीने की उम्र के बालक के सामने ताली बजाकर आवाज करने से या कुछ बोलने से वह भी कुछ ध्वनि उत्पन्न करने की कोशिश करना प्रारंभ कर देता है।


(3) शब्द एवं वाक्यों का निर्माण (Production of words and sentences) –

जब बालक 2 वर्ष का हो जाता है तो वह स्पष्ट रूप से शब्द बोलना प्रारंभ कर देता है तथा 21⁄2 से 3 साल की उम्र में स्पष्ट रूप से शब्दों को मिलाकर वाक्य (sentence) बोलना प्रारंभ कर देता है। शुरू-शुरू में वह शब्दों एवं वाक्यों को गलत ढंग से बोलता है परंतु बाद में वह अभ्यास से कुछ सुधार कर लेता है।


(4) लिखित भाषा का प्रयोग (Use of written language) –

जब बालक 4 या 41⁄2 साल का हो जाता है, वह शब्दों एवं वाक्यों को बोलकर प्रयोग करने के साथ-ही-साथ उसे लिखने भी लगता है। लिखना सीखने के लिए हाथ एवं आँख की क्रियाओं में सामंजस्य (coordination), खास ढंग से चिंतन एवं अभ्यास आदि करना पड़ता है।

(5) भाषा विकास की पूर्णावस्था (Final stage of language development)

इस अवस्था में बालकों में भाषा बोलने, लिखने तथा पढ़ने की पूर्ण शक्ति विकसित हो जाती है। जिस बालक में इन तीनों तरह की शक्तियों का जितना ही अधिक विकास होता है, उसमें भाषा विकास उतनी ही तीव्रता से होता है।


स्पष्ट है कि बालकों में विकास एक क्रम (sequence) के अनुसार होता है।



भाषा विकास को प्रभावित करने वाले कारक



भाषा विकास को प्रभावित करने वाले कारक

 BHASHA VIKASH KO PRBHAVIT KRNE WALE KARK


भाषा विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं -
  • 1.परिपक्वता -
  • 2.बुद्धि-
  • 3. स्वास्थ्य -
  • 4. यौन -
  • 5.सामाजिक अधिगम के अवसर
  • 6.निर्देशन
  • 7. प्रेरणा -
  • 8.सामाजिक आर्थिक स्थिति -
  • 9. शारीरिक स्वास्थ्य व शरीर रचना -
  • 10.बैयक्तिक विभिन्नताये -
  • 11.कई भाषाओं का प्रयोग-
  • 12. पारिवारिक संबंध -
भाषा विकास को प्रभावित करने वाले कारक निम्नलिखित हैं -

1.परिपक्वता -

जिस प्रकार क्रियात्मक विकास के लिए शरीर के विभिन्न अंगों की परिपक्वता आवश्यक है! उसी प्रकार भाषा विकास के लिए भी होठ, जीभ, दांत, फेफड़े, स्वर यंत्र और मस्तिष्क आदि की परिपक्वता आवश्यक है ! मस्तिष्क में बानी केंद्र का विशेष रूप से परिपक्व होना आवश्यक है ! इन विभिन्न अंगों के परिपक्व होने पर ही बालक भाषा सीख सकता है !

2.बुद्धि-

विभिन्न अध्ययन में यह देखा गया है कि जिस बच्चों की बुद्धि लब्धि उच्च होती है, उनका कम IQ. वाले बालकों की अपेक्षा शब्द भंडार अधिक होता है ! उच्च IQ. वाले बालक शुध्द और बड़े वाक्य भी बोलते हैं ! अधिक बुद्धि वाले बालकों में शब्द भंडार एवं वाक्य रचना की अधिक क्षमता और शुद्ध उच्चारण की क्षमता भी पाई जाती है !

3. स्वास्थ्य -

यदि बालक लंबी अवधि तक बीमार रहता है, विशेष रूप से 2 वर्ष की आयु की अवधि तक तो उसके भाषा का विकास कमजोर स्वास्थ्य और अभ्यास न कर सकने के कारण पिछड़ जाता है ! बीमार बालक में भाषा बोलने के लिए सीखने की प्रेरणा का अभाव भी पाया जाता है !

4. यौन -

माइक नील का विचार है कि प्रत्येक आयु के बालक भाषा विकास में बालिकाओं से पीछे रहते हैं ! लड़कियों का शब्द भंडार, वाक्य में शब्दों की संख्या, शब्द चयन और वाक्य प्रयोग आदि में बालको से अच्छा होता है! लड़कियां लड़कों की अपेक्षा जल्दी बोलना सकती है !

5.सामाजिक अधिगम के अवसर-

बालक को भाषा सीखने के लिए सामाजिक अवसर जीतने ही अधिक प्राप्त होते हैं या जिन परिवार में बच्चे अधिक होते हैं, उन परिवार के बच्चे भाषा बोलना जल्दी सीख जाते हैं, क्योकि दूसरे बच्चों को सुनकर उनका अनुकरण करने के अवसर अधिक प्राप्त होते हैं !
# जब परिवार में बच्चे ना हो तो माता-पिता को चाहिए कि वे अपने बालको को पड़ोस के बच्चों के साथ खेलने का अवसर दें जिससे कि बच्चा दूसरे बच्चों का अनुकरण करके भाषा जल्दी सीख जाए

6.निर्देशन -

बालकों की भाषा के विकास के लिए माता-पिता और अध्यापको आदि का निर्देशन भी आवश्यक है ! बालक की भाषा उतनी ही अधिक विकसित होती है जितने अच्छे उसके सामने मॉडल प्रस्तुत किए जाते हैं !

7. प्रेरणा -

अभिभावकों को चाहिए कि बालकों को हमेशा सीखने के लिए प्रेरित करते रहे ! अभिभावक को बालकों के रोने पर वह चीज उपलब्ध नहीं कराना चाहिए जिसके लिए वह रो रहा है तथा बालक यदि संकेत और हाव-भाव से में कोई चीज मांगे तो भी उपलब्ध ना कराएं, क्योकि इस प्रकार बालक शब्दों को सीखने के लिए प्रेरित होंगे !

8.सामाजिक आर्थिक स्थिति -

ऐसे बालक जिसका सामाजिक आर्थिक स्तर उच्च रहता है,निम्न सामाजिक आर्थिक स्तर वाले बालकों की अपेक्षा भाषा ज्ञान में आगे होता है ! उच्च सामाजिक स्तर वाले बालक पहले बोलना अधिक बोलना व अच्छा बोलना, अपेक्षाकृत शीघ्र सीखते हैं !

9. शारीरिक स्वास्थ्य व शरीर रचना -

जो बच्चे स्वास्थ्य, निरोगी होते हैं उनका भावात्मक विकास शीघ्र होता है ! शारीरिक रचना भी भाषा विकास को प्रभावित करती हैं ! शारीर रचना या शारीरिक रचना से अभिप्राय सवरयंत्र, तालु, जीभ, दांतो आदि की बनावट से है, क्योकि ये अंश बोलने की क्रिया में भाग लेता है !

10.बैयक्तिक विभिन्नताये -

जो बच्चे उत्साही होते हैं उनमे शांत प्रकृति के बच्चों की अपेक्षा भाषा शीघ्र विकसित होती है !

11.कई भाषाओं का प्रयोग-

छोटे बच्चों के माता-पिता की भाषा यदि अलग-अलग हो, तो बच्चों में भाषा का विकास अवरुद्ध होकर मंद गति से होता है!

12. पारिवारिक संबंध -

जिन बच्चों के परिवारिक संबंध अच्छे नहीं होते हैं उनमे अनेक भाषा संबंधी दोष उत्पन्न हो जाते हैं ! परिवार का आकार भी भाषा विकार को प्रभावित करता है ! जब परिवार का आकार छोटा होता है तब माता पिता बालकों की ओर अधिक ध्यान देते हैं ! फलसवरूप उनमे भाषा का विकास शीघ्र होता है ! परन्तु यदि माता-पिता ध्यान नहीं देते तो बच्चो में भाषा का विकास देर से होता है !


भाषा विकास के बाधाये



भाषा विकास में बाधाएँ 

|Hazards in Language Development



भाषा विकास एक जटिल प्रक्रिया है क्योंकि इसमें बालकों को दूसरे की बोली को समझना तथा साथ-ही-साथ ऐसे शब्दों में बोलना भी होता है कि दूसरे लोग उनकी बोली को समझ सकें। अतः, यह स्वाभाविक है कि इस जटिल प्रक्रिया के रास्ते में कुछ बाधाएँ (hazards) उत्पन्न हो जाएँ। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह पता चला है कि बालकों के भाषा विकास में कई तरह की बाधाएँ उत्पन्न होती हैं जिनसे उनका भाषा विकास काफी मंदित हो जाता है। इन बाधाओं में निम्नांकित प्रमुख हैं-

(1) अत्यधिक रुदन (Excessive crying )
(2) समझने में कठिनाइयाँ (Diefficulties in comprehension)
(3) विलंबी वाक् (Delayed speech)
(4) दोषपूर्ण वाक् (Defective speech)

(5) वाक् विकार (Speech disorder)
(i) तुतलाना (Hisping)
(ii) अस्पष्ट उच्चारण करना (Slurring )
(iii) हकलाना (Stuttering or stammering)
(iv) क्षिप्रोच्चारण दोष या संकुल ध्वनि (Cluttering)
(v) स्-स् करना (Hissings)

(6) बातचीत करने में कठिनाई (Difficulties in conversing)

(1) अत्यधिक रुदन (Excessive crying ) 

जब कोई बालक अपनी उम्र के हिसाब से सामान्य से ज्यादा रोता है, तब इसे अत्यधिक रुदन की संज्ञा दी जाती है। जिन बालकों का रुदन अत्यधिक न होकर सामान्य (normal) होता है, उनमें तो इस सामान्य रुदन से फायदा ही होता है; क्योंकि इससे उनकी मांसपेशियों (muscles) का व्यायाम (exercise) हो जाता है जो उनमें भूख जगाता है तथा गहरी नींद भी लाता है। लेकिन, यदि रुदन अधिक मात्रा में और अधिक समय तक होता है तो इससे बालकों में शारीरिक एवं मानसिक दोनों तरह की हानि होती है जो भाषा विकास को मंदित करता है। अत्यधिक रुदन से बालकों में शारीरिक शक्ति की कमी, पेट में गड़बड़ी, असंयत मूत्रता (enuresis or bed wetting) तथा मानसिक तनाव उत्पन्न हो जाता है। इतना ही नहीं, अत्यधिक रुदन करनेवाले बालकों के प्रति माता-पिता की मनोवृत्ति (attitude) ठीक नहीं रहती है और वे ऐसे बालकों का सामाजिक तिरस्कार (social rejection) करना प्रारंभ कर देते हैं। इन सबका परिणाम यह होता है कि बालकों में हीनता की भावना विकसित हो जाती है और उनमें सामाजिक निपुणता भी कम हो जाती है। फलतः, उनका भाषा विकास मंदित हो जाता है।

(2) समझने में कठिनाइयाँ -(Diefficulties in comprehension) 

भाषा विकास के लिए यह आवश्यक है कि बालक दूसरों की भाषा को ठीक ढंग से समझें। जो बालक दूसरों की भाषा को समझ नहीं पाते, उन्हें दूसरों से अलग-थलग रहना पड़ता है और इस तरह उनमें सामाजिक अकेलापन (social isolation) का गुण विकसित हो जाता है जिससे उनमें हीनता की भावना (feeling of inferiority) तथा अनुपयुक्तता की भावना (feeling of inadequacy) विकसित होती है जो बालकों के भाषा विकास को अवरुद्ध कर देती है। फ्रिडलैण्डर (Fridlander, 1970) के अनुसार जो बालक दूसरों की भाषा नहीं समझ पाते, उनमें सीमित शब्दावली (limited vocabulary) होती है तथा उनमें ध्यानपूर्वक दूसरों की आवाज न सुनने की भी प्रवृत्ति पाई जाती है।

(3) विलंबी वाक् (Delayed speech) –

कुछ ऐसे बालक होते हैं जिनका भाषा विकास अपनी उम्र के लिए बने मानक (norms) से काफी पीछे होता है। इस तरह के भाषा विकास को विलंबी भाषा विकास (delayed speech development) कहा जाता है। मनोवैज्ञानिकों ने विलंबी भाषा विकास के कई कारण बताए हैं जिनमें बालकों में कम बुद्धि का होना, उनमें शब्दों तथा वाक्यों को सीखने की प्रेरणा में कमी तथा माता-पिता द्वारा शब्दों को सीखने के लिए उपयुक्त प्रेरणा (stimulation) आदि प्रधान बताए गए हैं। बुक तथा टुकर (Bruck & Tucker, 1974) के अनुसार विलंबित भाषा विकास से सिर्फ बालकों का व्यक्तिगत तथा सामाजिक अभियोजन (social adjustment) ही नहीं बल्कि शैक्षिक समायोजन (educational adjustment) भी बुरी तरह प्रभावित हो जाता है। इससे बालकों में पढ़ने की क्षमता, शब्दों के हिज्जे (spelling) करने की क्षमता तथा उनका अर्थ याद रखने की क्षमता आदि काफी कम हो जाती है जो अपने-आपमें भाषा विकास के लिए एक प्रमुख समस्या बन जाती है।

(4) दोषपूर्ण वाक् (Defective speech) –

अयथार्थ वाक् (inaccurate speech) को दोषपूर्ण वाक् (defective speech) कहा जाता है। वाक् (speech) में दोष (defects) तीन तरह के हो सकते हैं- शब्दों के अर्थ में दोष (defects in word meanings), शब्दों के उच्चारण में दोष (defect in pronunciation) तथा वाक्यों की बनावट में दोष (defect in sentence structure)। शब्दों के अर्थ में दोष का कारण दो भिन्न अर्थवाले शब्दों का एक ही ढंग से बोला जाना होता है। जैसे पानी-पाणि तथा दिन-दीन ऐसे शब्द हैं जिन्हें लगभग एक ही ढंग से बोला तो जाता है परंतु इनके अर्थ भिन्न-भिन्न होते हैं। ऐसे शब्दों से बालकों को सही-सही संचार (communication) करने में दिक्कत होती है जिससे इनका भाषा विकास अवरुद्ध हो जाता है। शब्दों के उच्चारण (pronunciation) में दोष होने से भी भाषा विकास अवरुद्ध हो जाता है। कुछ बालक ऐसे होते हैं जो 4 साल की उम्र के बाद भी उच्चारण में त्रुटियाँ करते हैं। हरलॉक (Hurlock, 1978) के अनुसार ऐसे बालक शैक्षिक अवसर (educational opportunities) का पूरा-पूरा फायदा नहीं उठा पाते और वे अक्सर अवरस्तर के उपलब्धक (underachiever) बन जाते हैं जिनसे उनका आगे का भाषा विकास और भी अवरुद्ध हो जाता है। वाक्यों की बनावट में व्याकरण-संबंधी त्रुटियों (grammatical errors) से बालकों का भाषा विकास अवरुद्ध हो जाता है। सामान्यतः 3 साल से अधिक उम्र के बालकों को भाषा के व्याकरण पर नियंत्रण बढ़ जाता है तथा त्रुटियाँ कम हो जाती हैं। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह स्पष्ट हो गया है कि यदि ऐसी त्रुटियाँ बालकों में 5-6 साल या इससे अधिक उम्र होने पर होती है तो इससे बालकों के भाषा विकास पर बुरा असर पड़ता है।

(5) वाक् विकार (Speech disorder) –

शब्दों के उच्चारण में होनेवाले गंभीर दोष (serious defect) को वाक् विकार (speech disorder) कहा जाता है। वाक् विकार वैसे परिवार में अधिक पाया जाता है जिसमें माता या पिता या दोनों में ही तंत्रिकातापीय लक्षण (neurotic symptoms) होता है, जहाँ माता-पिता तथा बालकों का संबंध ठीक तथा घनिष्ठ नहीं होता है, जहाँ माँ अधिक प्रबल (dominant) तथा पिता अधिक दब्बू (submissive) होते हैं, जहाँ माँ बालकों पर ध्यान नहीं देती है या नहीं दे पाती है, जहाँ बालकों से माता-पिता काफी अधिक उम्मीद करते हैं। यही कारण है कि मनोवैज्ञानिकों ने वाक् विकार (speech disorder) को अपर्याप्त समायोजन का एक संलक्षण (syndrome of poor adjustment) माना है। ऐसे वाक् विकार (speech disorder) व्यक्ति की जिंदगी में कभी हो सकते हैं परंतु इस तरह का वाक् विकार प्राक् स्कूली अवस्था (pre school age) में, जब बालक बोलना सीखते हैं, अधिक होता है। इस तरह के वाक् विकार (speech disorder) में अग्रांकित प्रमुख हैं-

(i) तुतलाना (Hisping) –

बोलने की प्रक्रिया में किसी शब्द के सही अक्षर का किसी दूसरे अक्षर द्वारा प्रतिस्थापन (substitution) को तुतलाना कहा जाता है। ऐसे तो प्रतिस्थापन का कोई नियम नहीं है परंतु अकसर ऐसा देखा गया है कि हिन्दी बोलने वाले बालक ‘ल’ अक्षर का प्रतिस्थापन ‘र’ से करते हैं। जैसे वह ‘लाल’ को अकसर ‘राल’ या ‘लार’ बोलता है। ऐसी तुतलाहट का कारण प्रायः बालकों में जबड़े (jaws), दाँत, होंठ आदि में कुछ विकृतियाँ हैं ।

(ii) अस्पष्ट उच्चारण करना (Slurring ) 

किसी शब्द का अस्पष्ट उच्चारण करना भी एक प्रकार का प्रमुख भाषा विकार (speech disorder) है। प्रायः जबड़ों, होंठ या जीभ का आंशिक रूप से कार्य करना या पूर्ण रूप से कार्य करने की असमर्थता के कारण बालक शब्दों का उच्चारण अस्पष्ट ढंग से करते हैं। संवेगात्मक उत्तेजना (emotional stimulation) की स्थिति में भी बालक जल्दी-जल्दी बोलना प्रारंभ कर देते हैं और वे अकसर शब्दों का अस्पष्ट उच्चारण करते हैं।

(iii) हकलाना (Stuttering or stammering) –

हकलाना एक संकोचित (hesitant) तथा आवृत्तिपूर्ण (repetitious) बोली को कहा जाता है जो अकसर वाक् मांसपेशियों (speech muscles) के अंशत: एवं पूर्णतः असामंजस्य (incoordination) से उत्पन्न साँस लेने और छोड़ने में गड़बड़ी से पैदा होता है। इसमें बोलते समय एक शब्द को बालक रुक-रुककर उसे कई बार दुहराता है। हकलाना 21⁄2 से 32 वर्ष के बालकों में सामान्य रूप से देखा जाता है परंतु उम्र बढ़ने से यह अपने-आप समाप्त हो जाता है। परंतु, किसी-किसी बालक में हकलाने की क्रिया में उम्र बीतने के साथ कोई कमी नहीं दीखती है। कुछ मनोवैज्ञानिकों का मत है कि हकलाना एक आनुवंशिक प्रक्रिया (hereditary process) है परंतु कुछ मनोवैज्ञानिकों का यह कहना है कि हकलाने की प्रक्रिया उन बालकों में अधिक होती है जिनके माता-पिता द्वारा उन्हें अतिरक्षण (overprotection) मिलता है तथा माता-पिता स्वयं पूर्णतावाद (perfectionism) में विश्वास रखनेवाले होते हैं। माता-पिता के इस ढंग के व्यवहार के कारण ऐसे बालक अधिक चिंतित रहते हैं तथा दूसरों को गलत समझने की प्रवृत्ति रखनेवाले होते हैं।

(iv) क्षिप्रोच्चारण दोष या संकुल ध्वनि (Cluttering) –

वैसी बोली जो तीव्र (rapid), संभ्रांति (confused) तथा अव्यवस्थित (jumbled) होती है, उसे क्षिप्रोच्चारण दोष या संकुल ध्वनि कहा जाता है। यह दोष बहुत कुछ हकलाना (stuttering) से मिलता-जुलता है परंतु एक अर्थ में भिन्न है और वह यह है कि क्षिप्रोच्चारण दोष को बालक ध्यान देकर दूर कर सकता है लेकिन हकलाना को वह ध्यान देकर भी दूर नहीं कर सकता । क्षिप्रोच्चारण दोष से ग्रसित बालकों में कुछ क्रियात्मक व्यग्रता (motor awkwardness) तथा विलंबी भाषा विकास (delayed speech development) के लक्षण भी पाए जाते हैं।

(v) स्-स् करना (Hissings) –

कुछ बालकों में ‘श’ या ‘स’ प्रत्येक शब्द के साथ जोड़कर बोलने की एक आदत-सी बन जाती है। ऐसे भाषा विकार (speech disorder) का मूल कारण गले से निकलती हुई वायु पर अनियंत्रण का होना होता है। सारासन (Sarason, 1979) के अनुसार यह भाषा विकार उन बालकों में अधिक पाया जाता है जिनमें संवेगात्मक तनाव अधिक होता है।

(6) बातचीत करने में कठिनाई (Difficulties in conversing) –

अधिकतर बालक बातचीत करने में दो तरह की कठिनाई महसूस करते हैं। पहली कठिनाई बातचीत की मात्रा (amount of talk) से संबंधित होती है और दूसरी कठिनाई, किस चीज के बारे में बातचीत की जाए (what to talk about) से संबंधित है। पहली कठिनाई से संबंधित दो तरह के बालक होते हैं— कुछ बालक बहुत अधिक बोलते हैं और कुछ बालक बहुत कम बोलते हैं। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से यह पता चला है। कि इन दोनों तरह के बालकों का सामाजिक एवं आत्मगत समायोजन (social and personal (adjustment) अपर्याप्त (inadequate) होता है जो स्वस्थ वाक्-विकास (healthy speech development) के लिए एक बाधा सिद्ध होता है। अधिक बोलनेवाले बालकों को लोग आत्मकेंद्रित (egocentric) समझते हैं तथा कम बोलने वाले बालकों को लोग मूर्ख (stupid) समझते हैं। बालकों के प्रति इस तरह की मनोवृत्ति (attitude) उनमें भाषा विकास (language development) के लिए हानिकारक होती है। वेलकोविज (Welkowitz, 1976) ने एक अध्ययन किया है जिसमें यह दिखाया गया है कि कुछ बालक ऐसे होते हैं जो अपनी उपलब्धियों (achievements), अभिरुचियों के बारे में अधिक बातचीत करते हैं और ऐसे होते हैं जो यौन (sex) तथा अपने माता-पिता के अवगुणों के बारे में अधिक बातचीत करते हैं। पहले तरह के बालकों को लोग घमंडी एवं आत्मकेंन्द्रित (egocentric) समझने लगते हैं और दूसरे तरह के बालकों के प्रति लोग सामाजिक तिरस्कार (social rejection) दिखाते हैं। इन दोनों तरह की भावनाएँ (feelings) बालकों में स्वस्थ भाषा विकास के मार्ग में बाधाएँ (hazards) उत्पन्न करती हैं।

इस तरह हम देखते हैं कि बालकों के भाषा विकास में बाधाएँ (hazards) कई कारणों से उत्पन्न हो जाती हैं। इन कारकों में वाक् विकार (speech disorder) की समस्या शिक्षा मनोवैज्ञानिकों को सबसे अधिक चुनौती देनेवाली समस्या है।

भाषा विकास के साधन

08. भाषा विकास के साधन

भाषा विकास मनुष्य के संपूर्ण व्यक्तित्व और संप्रेषण क्षमता को प्रभावित करता है। भाषा सीखना केवल शब्दों का ज्ञान नहीं, बल्कि सोचने, समझने, और अभिव्यक्त करने की प्रक्रिया है। भाषा विकास के लिए विभिन्न साधन आवश्यक होते हैं जैसे – पर्यावरण, सामाजिक संपर्क, कहानी, खेल, दृश्य-श्रव्य माध्यम, और पाठ्य सामग्री। ये सभी साधन बच्चे की समझ, शब्द भंडार, उच्चारण, और व्याकरणिक ज्ञान को विकसित करने में सहायक होते हैं।


(1) अनुकरण (Imitation)
(2) खेल (Play)
(3) कहानी सुनना (Listening of stories)
(4) वार्तालाप तथा बातचीत (Talking)
(5) प्रश्नोत्तर (Question-answer)



(1) अनुकरण (Imitation)-

बालकों द्वारा भाषा सीखने का अनुकरण एक प्रमुख साधन है। अकसर बालक परिवार के सदस्यों जैसे भाई-बहन, माता-पिता, चाचा-चाची, दादा-दादी तथा साथियों को जैसा बोलते सुनता है, वैसा ही बोलने का अनुकरण करता है और कुछ प्रयासों के बाद वह वैसे ही बोलना प्रारंभ कर देता है। इसी तरह बालक अन्य लोगों को लिखते-पढ़ते देख स्वयं भी लिखना-पढ़ना प्रारंभ कर देता है। इस तरह से अनुकरण के माध्यम से बालकों में भाषा का विकास होता है। स्कीन्नर (Skinner, 1957) ने भाषा सीखने की इस विधि पर अधिक बल डाला है। उन्होंने भाषा सीखने के एक विशेष मॉडल (model) का भी निर्माण किया है जिसे अनुकरण-तथा सशोधन मॉडल (imitation-and-correction model) की संज्ञा दी गई है। इस मॉडल के अनुसार बालक वयस्कों के शब्दों, वाक्यों आदि को ध्यानपूर्वक सुनते हैं, तथा उनका अनुकरण करते हैं। अगर वे सही-सही अनुकरण करने में समर्थ हो जाते हैं, तो वयस्क उनके इस व्यवहार को उनकी प्रशंसा कर पुनर्बलित (reinforce) करते हैं। इससे बालक में उन शब्दों या वाक्यों को सीखने की प्रवृत्ति तीव्र हो जाती है। स्कीन्नर की इस विचारधारा को भाषा विकास का सीखना सिद्धांत (learning theory) भी कहा जाता है।

(2) खेल (Play)-

बालक अपनी प्राक्स्कूली अवस्था (pre school age) तथा स्कूली अवस्था (school age) के प्रारंभिक कुछ वर्षों में तरह-तरह के खेल खेलते हैं जिसमें वे काफी आनंद उठाते हैं। इन खेलों में टेढ़ी-मेढ़ी लकीरों को खींचना तथा खेल की सामग्रियों द्वारा अक्षर बनाना प्रधान है। मनोवैज्ञानिक अध्ययनों से पता चला है कि ऐसे खेलों में भाषा के अक्षरों को लिखना, पढ़ना तथा बोलना सीख लेता है।

(3) कहानी सुनना (Listening of stories)-

बालक वयस्कों, जैसे दादा-दादी, चाचा-चाची, माता-पिता तथा अन्य समकक्षी लोगों से कहानियाँ सुनना अधिक पसंद करते हैं। टिनकर (Tinker, 1990) के अनुसार यदि बालकों को ऐसी कहानियाँ सुनाई जाती हैं जिनमें पशु पात्र के रूप में हों और जिनमें नैतिक एवं शैक्षिक तथ्य भरे हों तो उनसे भाषा विकास अधिक तीव्रता से होती है।

(4) वार्तालाप तथा बातचीत (Talking)-

अपने साथियों एवं परिवार के सदस्यों के साथ बातचीत करके भी बालक भाषा को सीखते हैं। बातचीत में बालक विशेषकर उन बोलियों पर अधिक ध्यान देते हैं जो उनकी रुचि की होती हैं। इससे भाषा सीखने में सहूलियत होती है।

(5) प्रश्नोत्तर (Question-answer)-

बालक स्वभाव से ही जिज्ञासु (curious) होते हैं। अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए बालक घर में परिवार के सदस्यों तथा स्कूल में शिक्षकों तथा खेल के मैदान में साथियों से तरह-तरह के प्रश्न किया करते हैं। इन प्रश्नों का उत्तर पाकर वे वस्तु का अर्थ समझते हैं तथा साथ-ही-साथ उनमें वैसे शब्दों को बोलने, लिखने तथा पढ़ने की प्रवृत्ति अधिक प्रोत्साहित होती है।


इस तरह हम देखते हैं कि बालक भाषा सीखने में कई साधनों या विधियों का उपयोग करते हैं। इनमें अनुकरण (imitation) का प्रयोग सबसे अधिक किया जाता है।

समाप्त        

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