राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 के विशेष सन्दर्भ में हिन्दी भाषा शिक्षण के उद्देश्य
TOPIC | राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 के विशेष सन्दर्भ में हिन्दी भाषा शिक्षण के उद्देश् |
विषय | हिन्दी भाषा शिक्षण -1 |
YEAR | 1ST YEAR |
COURSE | D.El.Ed |
PAPER CODE | F - 8 |
प्रश्न 1. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 के विशेष सन्दर्भ में हिन्दी भाषा शिक्षण के उद्देश्य पर प्रकाश डालें।
उत्तर- प्रत्येक बच्चे के व्यक्तित्व निर्माण में उसकी मातृभाषा की अमूल्य और आध रभूत भूमिका होती है। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 विशेष रूप से इसे मानती है। साथ ही हिंदी भाषा के उद्देश्यों के समझ भाषाई कौशलों (सुनना, बोलना, पढ़ना, लिखना) के समुचित विकास के लिए प्रयत्नशील है।
राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा, 2005 के विशेष सन्दर्भ में हिन्दी भाषा शिक्षण के उद्देश्य
1.भाषा शिक्षण बहुभाषी होना चाहिए। केवल कई भाषाओं के शिक्षण के अर्थ में ही नहीं बल्कि रणनीति तैयार करने के लिहाज से भी ताकि बहुभाषी कक्षा को एक संसाधन के तौर पर प्रयोग में लाया जाए। इससे उच्च स्तरीय भाषा कौशल का हिंदी में सरलतापूर्वक स्थानांतरण किया जा सकता है। बस आवश्यकता इस बात की है कि हम विद्यालय स्तर पर यथासंभव प्रयास करें जिससे भाषा में सतत् शिक्षा को पूर्णत: विकसित किया जा सके।
2. राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान और प्रशिक्षण परिषद (NCERT) ने माना है कि विद्यालय आने से पूर्व बच्चे अपनी भाषाई ज्ञान को आरंभ में विद्यालय परिवार के साथ थोड़ी झिझक के साथ रखते हैं। इसका कारण है विद्यालय और उनके परिवेश की भाषा के बीच का मानक स्तर। इस भाषाई विविधता और बहुभाषिकता का उपयोग एक भाषा शिक्षक विभिन्न क्रियाकलापों एवं कार्यक्रमों की मदद से बच्चों के भाषाई कौशलों को विकसित करने के संदर्भ में कर सकता है।
3. गैर हिंदी भाषी राज्यों में बच्चे हिंदी सीखते हैं। हिंदी प्रदेशों के मामले में बच्चे वह भाषा सीखें जो उस इलाके में नहीं बोली जाती है।
4. राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 के आलोक में हिंदी शिक्षण का उद्देश्य तनाव से मुक्त, सुरक्षित और भयहीन होना चाहिए। जिससे बच्चे की अधिगम प्रक्रिया उसके स्वतंत्र अभिव्यक्ति को बाधित ना कर सके। बच्चे की भाषा कौशलों का विकास इस स्तर पर समृद्ध होना चाहिए जिससे कि वे अपने परिवेश को आसानी से समझ सकें, आदि ।
विचारों के आदान-प्रदान के लिए मनुष्य निम्न चार प्रकार की क्रियाएँ करता हैं सुनना, बोलना,और लिखना। आदान अर्थात् ग्रहण करना, सीखना। प्रदान अर्थात् अभिव्यक्ति करना। आदान में सुनना व पढ़ना क्रिया होती है।
प्रदान में—बोलना तथा लिखना क्रिया होती है।
इन चारों क्रियाओं में (सुनना, पढ़ना, बोलना, लिखना) कुशलता अर्जित करना ही भाषा शिक्षण का प्रमुख उद्देश्य है। ये ही भाषा के मूल उद्देश्य कहलाते हैं।
A. सुनना:
1. भाषा के सभी ध्वनि-रूपों के शुद्ध उच्चारण को समझना ।
2. विषय-वस्तु में आए विचारों, भावों, घटनाओं, तथ्यों आदि में प्रसंगानुसार सम्बन्ध स्थापित करने हुए समझना ।
3. विषय-वस्तु, केन्द्रीय भावों, प्रमुख विचारों और निष्कर्षों को समझना।
4. सुनने के शिष्टाचार का पालन करने की क्षमता का विकास करना।
शिष्टाचारपूर्वक सुनने में बालक की निम्न प्रकार की शारीरिक, मानसिक स्थिति होती है—
1. श्रोता बालक वक्ता की ओर मुँह करके बैठे।
2.श्रोता चुपचाप ध्यानपूर्वक अर्थग्रहण करते हुए सुनें।
3. सुनते समय मुँह फेरकर बैठना, साथी से वार्तालाप, वाद-विवाद नहीं करें।
4. श्रोता वक्ता के सम्मान का ध्यान रखें।
5. वक्ता को अनावश्यक परेशान न करे।
B. बोलना :
1. शुद्धता, स्पष्टता, उतार-चढ़ाव व उचित हाव-भाव का निर्वाह करते हुए समूह में अलग से सहज रूप में प्रभावी ढंग से बोलने की क्षमता का विकास करना।
2. परिचित विषय, घटना तथा परिस्थिति का अपने ढंग से वर्णन/विवरण करने की क्षमता का विकास करना।
3.समय-समय पर प्रसंगानुसार बोलने के शिष्टाचार का पालन करते हुए मौलिक रूप से तर्कपूर्ण विचार प्रकट करने की क्षमता का विकास करना।
4. अभिनय अथवा भूमिका निर्वाह करते हुए पात्रानुसार संवाद बोलने के कौशल का विकास करना।
C. पढ़ना:
1.भाषा तत्वों को प्रसंगानुसार विश्लेषण करते हुए समझना।
2. विषय-वस्तु में आए विचरों, भावों, घटनाओं, तथ्यों आदि में प्रसंगानुसार सम्बन्ध स्थापित करते हुए सझना।
3. विषय-वस्तु के सारांश, केन्द्रीय भावों और निष्कर्षों को समझना ।
4. मुद्रित व हस्तलिखित सामग्री को शुद्ध उच्चारण, उचित यति-गति, आरोह-अवरोह, विराम-चिह्नों के अनुसार अर्थ ग्रहण करते हुए स्वाभाविक रूप से वाचन करने की क्षमता का विकास करना ।
5.बाल शब्दकोश को समझने की क्षमता का विकास करना।
6. स्तरानुकूल पाठ्येत्तर कहानियाँ, सचित्र पुस्तकें आदि साहित्य को समझकर पढ़ने की क्षमता का विकास करना।
D. लिखना:
1. अक्षरों व शब्दों के सही आकार, उचित क्रम, पर्याप्त अन्तर को समझने-लिखने की क्षमता का विकास करना।
2. देखकर और सुनकर सुस्पष्ट सुन्दर, शुद्ध रूप में उचित विराम चिह्नों का ध्यान रखते हुए लिखने की क्षमता का विकास करना ।
3. सरल प्रारूपों, प्रार्थना-पत्रों, निबन्ध, वर्णन, विवरण आदि को सरल अनुच्छेदों में रचना करते हुए लिखने की क्षमता का विकास करना।
4. मौलिक रूप से तथा तर्कपूर्ण ढंग से सरल वर्णन, विवरण, निबन्ध, प्रश्नोत्तर, सारांश, कहानी, कविता, आदि को लिखने की क्षमता का विकास करना।