कोहलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धान्त
(Kohlberg's Theory of Moral Development)
कोहलबर्ग(KOHLBERG) की संछिप्त जीवनी -
लारेन्स कोहलबर्ग का जन्म ब्रोंक्सविले, न्यूयॉर्क (संयुक्त राज्य अमेरिका) में 25 अक्टूबर, 1927 को एवं मृत्यु 19 जनवरी, 1987 को हुई थी | ये अमेरिका के एक मनोवैज्ञानिक थे जिनका नैतिक विकास के चरण बहुत प्रसिद्ध है। वे शिकागो विश्वविद्यालय के मनोविज्ञान विभाग में तथा हारवर्ड विश्वविद्यालय के ग्रजुएट स्कूल में प्रोफेसर थे।
कोहलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धान्त-लारेंस कोहलबर्ग (Lawrence Kohlberg) ने पियाजे के द्वारा प्रस्तूत नैतिक विकास से संबंधित विचारो को विस्तृत करके तार्किक चिन्तन के तीन स्तरों, जिनमें से प्रत्येक के कुछ सोपान हैं, के रूप में नैतिक विकास के सिद्धान्त को प्रस्तुत किया। दस वर्ष से सोलह वर्ष की आयु के बालकों के सम्मुख कहानियों के रूप में नैतिक दुविधाओं (Moral Dilemmas) को प्रस्तुत किया तथा इन दुविधाओं पर आधारित साक्षात्कार लिये। इन कहानियों में नियमों या बड़ों के निर्देश पालन से संबंधित अनेक नैतिक दुविधायें प्रस्तुत की गई थीं। इन साक्षात्कारों से प्राप्त सूचनाओं के विश्लेषण से कोहलबर्ग ने नैतिक विकास के तीन प्रमख स्तर तथा सात सोपान बताये हैं जिन्हें सारणी 17 में प्रस्तुत किया गया है। इन तीनो स्तरों में उनसे सम्बन्धित सोपानों में होने वाले नैतिक विकास की आगे चर्चा की जा रही है।
स्तर (Stage) | सोपान (Levels) |
(1) पूर्व परम्परागत स्तर (Pre-Conventional Level) | 0. आत्मकेन्द्रित निर्णय | (Ego Centric Judgement) 1. दंड तथा आज्ञा पालन अभिमुखता (Punishment and Obediance Orientation) 2. यांत्रिक सापेक्षिक अभिमुखता (Instrument Relativist Orientation) |
(2) परम्परागत स्तर (Conventional Level) | 3. परस्पर एकरूप अभिमुखता (Interpersonal Concordance Orientation) 4. अधिकार-संरक्षण अभिमुखता (Authority-Maintaining Orientation) |
(3) उत्तर परम्परागत स्तर (Post-Conventional Level) | 5. सामाजिक अनुबंध विधि सम्मत अभिमुखता (Social Contract Legalistic Orientation) 6. सार्वभौमिक नैतिक सिद्धान्त अभिमुखता (Universal Ethical Principle Orientation) |
पूर्व-परम्परागत स्तर (Pre-Conventional Level)
इस स्तर पर बालक अपनी आवश्यकताओं के संदर्भ में चिन्तन करते हैं। नैतिक दुविधाओं से युक्त प्रश्नों पर उनके उत्तर प्रायः उनको होने वाले लाभ या हानि पर आधारित होते हैं। नैतिक कार्य अच्छे या बुरे कार्यो में निहित होते हैं न कि अच्छे या बुरे व्यक्तियों में। सामाजिक व सांस्कृतिक नियमों जैसे अच्छा या बुरा, सही या गलत आदि की व्याख्या मिलने वाले दंड, पुरस्कार अथवा नियमों का समर्थन करने वाले व्यक्तियों की शारीरिक सामर्थ्य अथवा होने वाले स्थूल परिणामों से आंकी जाती है। इस स्तर पर होने वाले नैतिक विकास को निम्नांकित तीन उपसोपानों में बांटा जा सकता है|
1. आत्मकेन्द्रित निर्णय (Ego Centric Judgement)-
इस सोपान में बालक प्रत्येक उस कार्य को जिसे वे करना पसंद करते हैं अथवा उस वस्तु को जिसे वे प्राप्त करना चाहते हैं अथवा उस व्यक्ति को जो उनकी सहायता करता है अच्छा समझते हैं। इसके विपरीत कोई भी ऐसा कार्य, वस्तु या व्यक्ति, जिसे वे नापसंद करते हैं, जिसे वे प्राप्त करना नहीं चाहते हैं अथवा व्यक्ति जो उन्हें हानि पहुँचाता है, उसे खराब समझते हैं। इस स्तर पर बालकों में अपनी इच्छा-अनिच्छा अथवा पसंद-नापसंद से अलग हटकर नियमों अथवा दायित्वों का कोई विचार नहीं होता है।
2. दंड तथा आज्ञापालन अभिमुखता (Punishment and Obediance Orientation) -
इस सोपान में बालक बड़े व्यक्तियों अथवा अधिकार सम्पन्न व्यक्तियों के द्वारा दिये जाने वाले दंड से बचने के प्रति चिन्तित रहते हैं। वे नियमों तथा उनको तोड़ने से होने वाले दुष्परिणामों को समझते हैं। किसी कार्य के करने पर होने वाले स्थूल परिणाम उस कार्य को अच्छा बुरा निर्धारित करते हैं। अधिकार अथवा शक्ति ही कार्य को उचित अथवा अनुचित ठहराते हैं।
परम्परागत स्तर (Conventional Level)
कोहलबर्ग के अनुसार नैतिक विकास के परम्परागत स्तर पर नैतिक मूल्य अच्छे या बुरे कार्यों को करने में निहित रहते हैं। बालक बाह्य सामाजिक अपेक्षाओं को पूरा करने में रुचि लेते हैं। वे अपने परीवार अपने समूह अथवा अपने राष्ट्र की अपेक्षाओं को पूरा करने को महत्व देते है तथा महत्वपूर्ण व्यक्तियों तथा सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप कार्य करते हैं। उनमें परम्परागत नियमों तथा दायित्वों के प्रति समर्थन तथा औचित्य का भाव रहता है। इस स्तर पर होने वाले नैतिक विकास को निम्नांकित दो उपसोपानों में बाँटा जा सकता है -
1. परस्पर एकरूप अभिमुखता (Inter-personal Concordance Orientation)-
इस सोपान में बालक अच्छा बनकर अन्य व्यक्तियों से प्रशंसा प्राप्त करना चाहते हैं। वे अच्छे बालक अथवा अच्छी बालिका जैसा व्यवहार करने में रुचि लेते हैं। जो कुछ अन्यों को अच्छा लगे या अन्यों की सहायता करे या अन्यों के द्वारा स्वीकृत हों, वहीं उत्तम माना जाता है। बालक दूसरे व्यक्तियों के भावों तथा इरादों (Intentions) का ध्यान रखने की आवश्यकता के प्रति सजग रहते हैं। इस सोपान पर सहयोग को सर्वोत्तम आचरण के रूप में स्वीकार किया जाता है।
2. अधिकार संरक्षण अभिमुखता (Authority Maintaining Orientation)-
इस सोपान में बालक सामाजिक दृष्टि से स्वीकृत नियमों तथा दायित्वों के अनुरूप कार्य करने की भावना से प्रोत्साहित रहते हैं। वे सर्वहित दृष्टि से विद्यमान सामाजिक व्यवस्था को बनाये रखना चाहते हैं। वे समझते हैं कि समाज में एक व्यापक सामाजिक प्रणाली है जो उसमें रहने वाले व्यक्तियों के व्यवहार को नियंत्रित करती है। उनके विचार में नैतिकता का आधार सामाजिक व्यवस्था है तथा व्यक्तिगत हानि होने की स्थिति में भी नियमों का पालन किया जाना चाहिए।
नैतिक विकास के इस तृतीय तथा सर्वोच्च स्तर पर बालक उन नैतिक मूल्यों तथा नैतिक सिद्धान्तों को पारिभाषित करने के स्पष्ट प्रयास करने लगते हैं जिनकी सामाजिक दृष्टि से वैधता या उपयोगिता होती है तथा जो परम्परागत मूल्यों, नियमों या सिद्धान्तों से भिन्न हो सकते हैं। उनमें स्वनिर्धारित नैतिक सिद्धान्तों के प्रति निष्ठा तथा अनुसरण करने की भावना होती है। नैतिक मूल्य वस्तुतः उभयनिष्ठ मानदण्डों, अधिकारों तथा कर्त्तव्यों की पूर्ति में निहित माने जाते हैं। इस स्तर पर होने वाले नैतिक विकास को निम्नांकित दो सोपानों में बांटा जा सकता हैं -
इस सोपान के अंतर्गत उचित कार्यों को आलोचनात्मक ढंग से परखकर समस्त समुदाय के द्वारा स्वीकृत किये गये सामान्य व्यक्तिगत अधिकारों व मानदण्डों के रूप में परिभाषित करने की प्रवृत्ति आ जाती है। व्यक्तिगत मूल्यों तथा विचारों के सापेक्षवाद के प्रति जागरूकता के फलस्वरूप आम सहमति पर पहुँचने के लिए कार्यरत नियमों (Procedural Rules) पर बल दिया जाने लगता है। समाज की आम सहमति क्या है. के अलावा नियमों को सामाजिक उपयोगिता के तार्किक विचार विमर्श (RetionalConsiderations) के आधार पर परिवर्तित करने की सम्भावना रहती है। विधिसम्मत नियमों के अतिरिक्त स्वतंत्र स्वीकारोक्ति या समर्पण भाव व्यक्ति को अपने दायित्वों का पालन करने के लिए प्रेरित करता है।
2. सार्वभौमिक नैतिक सिद्धान्त अभिमुखता (Universal Ethical Principles Orientation) -
इस सोपान में व्यक्ति उचित-अनुचित का निर्णय ऐसे स्वनिर्धारित नैतिक सिद्धान्तों के आधार पर करता है जो तार्किक व्यापकता (Logical Comprehensivness), सार्वभौमिकता (Universality) तथा एकरूपता (Consistancy) से युक्त होते हैं। ये सिद्धान्त अमूर्त तथा नैतिक बोध से युक्त होते हैं। वे न्याय के सर्वमान्य प्राकृतिक सिद्धान्त होने के साथ-साथ मानव अधिकारों की समानता, परस्परता तथा मानव जाति के प्रति सम्मान की भावना से युक्त होते हैं।
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कोहलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धान्त से सम्बन्धित सामान्य प्रश्न - उत्तर
(1)प्रश्न -कोहलबर्ग कहां के निवासी थे ?
उत्तर -लॉरेंस कोहलबर्ग का जन्म ब्रोंक्सविले, न्यूयॉर्क में हुआ था |
(2) प्रश्न -कोहलबर्ग का जन्म कब हुआ?
उत्तर -25 अक्तूबर 1927, Bronxville, न्यू यॉर्क, संयुक्त राज्य अमेरिका
(3) प्रश्न -कोहलबर्ग का पूरा नाम क्या है?
उत्तर -कोहलबर्ग का पूरा नाम लॉरेंस कोहलबर्ग है। कोहलबर्ग (1927-1987) एक अमेरिकन मनोवैज्ञानिक कोहलबर्ग थे। जीन पियाजे के नैतिक मुद्दों के सिद्धांत से प्रभावित होकर उन्होंने “नैतिक न्याय” को अपने अध्ययन के रूप में चुना।
(४) प्रश्न -नैतिक विकास के जनक कौन है?
उत्तर -कोहलबर्ग
NOTE- इस प्रश्न को निम्नलिखित प्रकार से भी पूछा जा सकता है -
कोहलबर्ग का नैतिक विकास सिद्धान्त
Kohlberg's Theory of Moral Development
KOHLBERG THEORY IN HINDI
कोहलबर्ग का सिद्धांत
कोहलबर्ग के नैतिक विकास की कितनी अवस्थाएं हैं
कोहलबर्ग थ्योरी इन हिंदी pdf
KOHLBERG THEORY PDF IN HINDI