संस्सकृति और पर्यावरण
Culture and Environment
पर्यावरण के प्रारम्भिक ज्ञान एवं सांस्कृतिक गतिविधियो के साथ सम्बन्ध
बी.एड सेकेण्ड ईयर पेपर (पर्यावरण शिक्षा ) पर्यावरण के प्रारम्भिक ज्ञान एवं सांस्कृतिक गतिविधियो के साथ सम्बन्ध
पृथ्वी का जन्म लगभग 4 अरब वर्ष पूर्व हआ था, लेकिन मानव सभ्यता का इतिहास 50000 वर्ष पूर्व से ही आंका जाता है। आज यह कल्पना भी नहीं की जा सकती कि तब लोग कहाँ और कैसे रहते थे? क्या खाते थे और कहाँ सोते थे ? खाने के लिए सामग्री क्या थी ? लेकिन आज जब पृथ्वी के निवासियों की ओर दृष्टिपात करते हैं, तब लगता है कि पूरे विश्व के लोग पृथ्वी के बनावट के अनुरूप अलग-अलग टुकड़ों में बँट गये हैं और प्रकृति द्वारा उपलब्ध सुविधाओं और संसाधनों का अपने-अपने स्तर पर उपभोग कर रहे है |
प्रत्येक देश के रीति-रिवाज, रहन-सहन, वेश-भूषा त्यौहार, ऐतिहासिक इमारतें, स्मारक, इमारत आदि मिलकर उस देश की संस्कति का निर्माण करती हैं। निश्चय ही इस सस्कति की वहाँ के निवासियों पर गहरी छाप रहती है और इसी से उनके पर्यावरण पर भी उनका प्रभाव पड़ता है। यह संस्कृति ही उन्हें प्रकति के साथ प्रेम और सहयोग पशु -पक्षियों के साथ सदव्यवहार प्राकृतिक संसाधनों की सुरक्षा के साथ-साथ सुखी जीवन , मैत्रीभाव और जीवन की गुणवत्ता की ओर प्रेरित करती है।
भारत देश के परिप्रेक्ष्य में देखें कि यह देश ऋषि-मुनियों का देश रहा है, जहाँ प्रकृति के ऊपर ही लोग पूर्णतया आश्रित थे। कन्द-मूल-फल का भोजन, झरनों का विशुद्ध जल, पेड़ अथवा पहाड़ों की कन्दराओं में आश्रय और योग तथा तपस्या में मग्न लोग प्रकृतिमय थे। समय के साथ परिवर्तन तो हुआ लेकिन मूल संस्कृति-पर्यावरण और प्रकृति की संस्कृति की छाप बनी रही।भारतीय संस्कृति में प्रकृति को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। इसी कारण भारत में प्रकृति के विभिन्न अंगों को देवता तुल्य मानकर उनकी पूजा-अर्चना की जाती है। भूमि को माता माना जाता है। आकाश को भी उच्च स्थान प्राप्त है। वृक्षों ,नदियों , अग्नि , वायु ,सूर्य इत्यादी की पूजा की जाती है। पीपल को पूजा जाता है। पंचवटी की पूजा होती है। घरों में तुलसी को पूजने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है। नदियों को माता मानकर पूजा जाता है। कुंआ पूजन होता है। आवला पूजन होता है | नीम के पेड़ को भी माँ कलि का स्थान मानकर पूजते है | अग्नि और वायु के प्रति भी लोगों के मन में श्रद्धा है। वेदों के अनुसार ब्रह्मांड का निर्माण पंचतत्व के योग से हुआ है, जिनमें पृथ्वी, वायु, आकाश, जल एवं अग्नि सम्मिलित है।
पेड़ों की पूजा, जल का सूर्य के समक्ष अर्घ्य, जीवों की सुरक्षा और धार्मिक स्थल के रूप में पवित्रता का वातावरण निरन्तर चलता रहा। जितने भी कार्य यहाँ सम्पन्न हुए उनके पीछे यहाँ की मूल भावना अरण्य संस्कति ही रही। जितने भी पुराने शिक्षा के क्षेत्र विश्व प्रसिद्ध संस्थान (नालन्दा विश्वविद्यालय, शांतिनिकेतन आदि) स्थापित किये गये उन्हें सघन जंगलों की छाया में ही बसाया गया; बड़े तीर्थ (रामेश्वरम गया. द्वारका और प्रयाग आदि) नदियों अथवा सागर के किनारे रहे: महान विचारकों (विवेकानन्द, स्वामी परमहंस, योगी अरबिन्द, महर्षि दयानन्द और रबिन्द्रनाथ ठाकुर आदि ) की कर्मभमि प्रकृति प्रधान ही रही और यही नहीं बल्कि अनेक नदियाँ (गंगा, यमुना,कृष्णा ,गोदावरी , नर्मदा - ताप्ती , सतलज ,चिनाव, व्यास और झेलम आदि) राष्ट्रीय सांस्कृतिक धरोहर के रूप में स्वीकार्य की गयी |इनकी अपनी महत्ता ने इन्हें भारतीय संस्कृति का रूप ही प्रदान नहीं किया है बल्कि देश के पर्यावरण संरक्षण के परिप्रेक्ष्य में एक अनोखी और अलौकिक पहचान भी दी है।
हमारी संस्कृति में नीम को पूर्ण चिकित्सक, आंवले को पूर्ण भोजन, पीपल को शुद्ध वायुदात्री, पाकड़ और वट के युग्म वृक्षों को जल संग्राहक एवं वट को पूर्ण घर माना गया है। भारतीय संस्कृति में त्योहारों का विशेष महत्व है। अपनी प्राचीन एवं पारंपरिक संस्कृति को जानने के साथ-साथ विभिन्न त्योहारों में वट, पीपल, नीम, आम के पेड़ों, केला एवं तुलसी के पौधे की पूजा तथा गाय, कुत्ता, चिड़ियों यहां तक कि कौवों आदि को भोजन खिलाना हमारी संस्कृति का अंग है। यह हमारी प्रकृति एवं मनुष्य के विभिन्न सहभागियों के प्रति जागरूकता का द्योतक है। नदियों एवं पहाड़ों का मानवीयकरण करके हमने उसमें जीवंतता ही नहीं पैदा की वरन् उन्हें अपना हिस्सा बनाया।
विज्ञान के विभिन्न महत्वपूर्ण ज्ञान को जीवन में उतारना भी हमारे दर्शन एवं सांस्कृति का मुख्य उद्देश्य रहा है। दक्षिण एवं पूर्व की ओर सिर करके सोना, सूर्य नमस्कार, ध्यान, योग और पूजा द्वारा अपनी मानसिक शक्ति को दृढ़ करना आदि ऐसे तमाम क्रियाकलापों को जीवन का अंग बनाया गया, जिससे लोग कम-से-कम बीमारी का शिकार हो और समाज स्वस्थ हो। भगवान् दत्तात्रेय के 24 गुरुओं में 11 पशु-पक्षी, 5 मनुष्य, 5 प्रकृति के पंचतत्व तथा समुद्र, सूर्य और चंद्रमा थे, इसी कारण ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ हिंदू दर्शन का महत्वपूर्ण अंग है।