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BALYA AVSTHA ME VIKAS , BALYA AVSTHA KI VISHESHTAYE , BALYA AVSTHA ME SHIKSHA | बाल्यावस्था में विकास , विशेषता , शिक्षा | Childhood Development Education



बाल्यावस्था में विकास

Development During Childhood

 

बाल्यावस्था जन्मोपरान्त मानव विकास की दूसरी अवस्था है जो शैशवावस्था की समाप्ति के उपरान्त प्रारम्भ होती है। बाल्यावस्था में प्रवेश करते समय बालक अपने वातावरण से काफी सीमा तक परिचित हो जाता है। इस अवस्था में वह व्यक्तिगत तथा सामाजिक व्यवहार करना सीखना प्रारम्भ करता है तथा उसकी औपचारिक शिक्षा का प्रारम्भ भी इसी अवस्था में होता है। शैक्षिक दृष्टि से बाल्यावस्था जीवन की एक सर्वाधिक महत्वपूर्ण अवस्था है। इस अवस्था में बालक अपनी आदतों, व्यवहार, रुचियों, इच्छाओं आदि प्रतिरूपों (Patterns) का निर्माण कर लेता है, जिन्हें बाद में रुपान्तरित (Modify) करना अत्यंत कठिन होता है । सामान्यतः 6 वर्ष से 12 वर्ष की आयु के बीच की अवधि को बाल्यावस्था कहा जाता है । क्योंकि इस अवधि में बालक प्राथमिक विद्यालय की शिक्षा प्रारम्भ करता है इसलिए शिक्षाशास्त्री इसे प्रारम्भिक विद्यालय आयु (Elementry School Age) भी कहते हैं । इस अवधि में बालक में स्फूर्ति अधिक होने के कारण कुछ लोग इसे स्फूर्ति अवस्था (Smart-Age)भी कहते हैं। कुछ लोग इसे गन्दी अवस्था (Dirty Age) भी कहते हैं क्योंकि इस अवस्था में बालक खेल-कूद, भाग-दौड़, उछल-कूद में लगे होने के कारण प्रायः गन्दा और लापरवाह रहता है। 


बाल्यावस्था की विकासात्मक विशेषताएँ

Developmental Characteristics of Childhood


शारीरिक, मानसिक, सामाजिक, संवेगात्मक, तथा  नैतिक विकास की दृष्टि से बाल्यावस्था की कुछ प्रमुख विशेषताएँ अंग्रांकित प्रस्तुत की गई हैं 


1. शारीरिक तथा मानसिक विकास में स्थिरता 

Stability in Physical and Mental Growth


बाल्यावस्था में शारीरिक तथा मानसिक विकास में स्थिरता आ जाती है अर्थात् विकास की गति मन्थर (slow) हो जाती है। विकास की स्थिरता बालक की मानसिक तथा शारीरिक शक्तियों को दृढ़ता प्रदान करती है, उसकी चंचलता कम होने लगती है, उसका मस्तिष्क परिपक्व सा दिखाई पड़ता है तथा वह व्यस्कों के समान व्यवहार करना चाहता है। रॉस (Ross ने बाल्यावस्था को मिथ्या परिपक्वता (Pseudo Maturity) का काल कहा है। 


2. मानसिक योग्यताओं में वृद्धि 

Increase in Mental Abilities

 

बाल्यावस्था के दौरान बालक की मानसिक योग्यताओं में उत्तरोत्तर वद्धि होती रहती  है। वालक की संवेदनशीलता, प्रत्यक्षीकरण, स्मरणशक्ति तथा तर्कशक्ति आदि में पर्याप्त वृद्धि होती है। 


3. जिज्ञासा की प्रबलता 

(Forceful Curiosity) 

बाल्यावस्था में बालक में जिज्ञासा प्रवत्ति अत्यधिक प्रबल होती है। वह जिन वस्तुओं के सम्पर्क में आता है उनके सम्बन्ध में तरह-तरह की जानकारी प्राप्त करना चाहता है। शैशवावस्था में बालक के द्वारा पूछे जाने वाले जिज्ञासा प्रश्न साधारण होते हैं जिनके द्वारा वह विभिन्न वस्तुऐं क्या हैं, इसकी जानकारी प्राप्त करता है। इसके विपरीत बाल्यावस्था में बालक "क्यों" तथा "कैसे" के प्रश्न पूछता है तथा विभिन्न विषयों से सम्बन्धित विस्तृत सूचनाएँ प्राप्त करना चाहता है। 


4. आत्मनिर्भरता की भावना 

Feeling of Self Dependence

 

बाल्यावस्था में बालक शैशवावस्था के समान अन्यों पर आश्रित नहीं रहता हैं, वह अपने व्यक्तिगत कार्य जैसे स्नान करना, वस्त्र पहनना, स्कूल के लिए तैयार होना इत्यादि स्वयं करना प्रारम्भ कर देता है। इस अवस्था में बालकों में आत्मनिर्भरता की भावना विकसित होती जाती है। 


5. रचनात्मक कार्यों में रुचि 

Interest in Constructive Work

 

बाल्यावस्था में बालक रचनात्मक कार्यों में रुचि लेने लगता है। लड़के बगीचे में काम करने अथवा लकड़ी, कागज या अन्य किसी वस्तु से कुछ खेल आदि बनाने जैसे कार्यों में आनन्द की प्राप्ति अनुभव करते हैं। लड़कियाँ सिलाई, बुनाई, कढ़ाई या रसोई से सम्बन्धित कार्यों को करने में रुचि लेने लगती हैं।


6. सामाजिक तथा नैतिक गुणों का विकास 

Development of Social and Moral Qualities


बाल्यावस्था में बालक घर या पड़ोस के अन्य बालकों तथा विद्यालय के छात्रों के साथ काफी समय व्यतीत करता है। उसका व्यवहार दूसरों की प्रशंसा तथा निंदा पर आधारित रहता है जिसके फलस्वरूप उसमें अनेक सामाजिक तथा नैतिक गुणों जैसे आज्ञापालन, सहयोग, सहनशीलता, ईमानदारी, सत्यता, सद्भावना, सहानभति. आत्मनियन्त्रण, अनुशासन आदि का विकास होने लगता है। 


7. सामूहिक प्रवृत्ति की प्रबलता

Intensity of Gregariousness


इस अवस्था में बालक में सामूहिक प्रवृत्ति प्रबल होती है। वह अपना अधिक से अधिक समय दूसरे बालकों के साथ व्यतीत करना चाहता है। उसकी रुचि सामहिक खेलों में अधिक होती है। बालक किसी न किसी समूह का सदस्य बन जाता है तथा उस समूह के सभी सदस्य मिल कर खेल खेलते हैं अथवा अन्य कार्य करते हैं। 


8. बहिर्मुखी व्यक्तित्व का विकास 

Development of Extrovert Personality


शैशवावस्था में शिशु अन्तर्मुखी होता है वह एकान्तप्रिय तथा केवल अपने में ही रुचि रखता है परंतु बाल्यावस्था में बालक बहिर्मुखी होने लगता है। वह बाह्य जगत में रुचि लेता है। बालक अन्य व्यक्तियों, वस्तुओं व कार्यों के सम्बन्ध में अधिक से अधिक जानकारी प्राप्त करना चाहता है।


 9. संग्रह प्रवृत्ति 

Acquisition Tendency


बाल्यावस्था में बालक तथा बालिकाओं में संग्रह करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। बालक काँच की गोलियों, टिकटों, मशीन के कलपुर्जो, पत्थर के टुकड़ों, खिलौनों आदि का संग्रह करने में विशेष रुचि लेते हैं। बालिकाएं चित्रों, खिलौनों, गुड़ियों, कपड़े के छोटे-छोटे टुकड़ों आदि का संग्रह करती देखी जा सकती हैं।


10. काम प्रवृत्ति की न्यूनता

Lesser Sense of Sex


मनोविश्लेषणवादियों के अनुसार यद्यपि शैशवावस्था में काम प्रवृत्ति होती है परंतु बाल्यावस्था में स्वप्रेम तथा पिता व मातृ विरोधी काम ग्रंथियाँ समाप्त हो जाती है। बालक-बालिकाएं अपना अधिकांश समय पढ़ने, लिखने व खेलने कूदने में व्यतीत करते है।


11. रुचियों में परिवर्तन

Change in Interests


बाल्यावस्था में बालक-बालिकाओं की रुचियों में स्थायित्व का अभाव होता है। इस अवस्था के दौरान बालक की रुचियों में निरन्तर परिवर्तन होता रहता है। वातावरण तथा समूह में परिवर्तन के साथ-साथ बालक बालिकाओं की रुचियाँ परिवर्तित होती रहती हैं।

 


बाल्यावस्था में शिक्षा 

Education During Childhood


 बाल्यावस्था को मानव के सम्पूर्ण जीवन की आधारशिला स्वीकार किया जाता है। वाल्यावस्था के दौरान ही व्यक्ति के आधारभूत दृष्टिकोणों, मूल्यों तथा आदर्शो का  काफी सीमा तक निर्धारण हो जाता है । अतः यह आवश्यक है कि वाल्यावस्था में बालक की विकासात्मक विशेषताओं (Developmental Characteristics) को ध्यान में रखकर ही उसकी शिक्षा व्यवस्था की जाए। बाल्यावस्था के दौरान बालक-बालिकाओं की शिक्षा व्यवस्था करते समय निम्नलिखित बातों पर ध्यान देना महत्वपर्ण होगा 

(1) शारीरिक विकास पर ध्यान 

Attention on Physical Development 

स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिस्क का विकास होता है | इसलिए मानसिक विकास के लिए बालक के शारीरिक विकास पर उचित ध्यान देना आवश्यक है |बच्चो के उचित विकास के लिए विद्यालय में खेलकूद, व्यायाम आदि में भाग लेने के लिए व्यवस्था होनी चाहिए | 


2. बाल मनोविज्ञान पर आधारित शिक्षा 

(Education based on Child Psychology) 

बालक-बालिकाऐं कठोर अनुशासन पसंद नहीं करते हैं। शारारिक दंड बल का प्रयोग, डाँट-डपट आदि से वे घणा करते हैं। अतः बालकों के लिए प्रेम व सहानुभूति  आधारित शिक्षा की व्यवस्था करनी चाहिए। 


3. खेल तथा क्रिया द्वारा शिक्षा 

Education through Play and Activity


खेल तथा क्रियाशीलता बालकों की सहज तथा स्वाभाविक प्रवृत्तियाँ है। आधुनिक शिक्षा मनोवैज्ञानिक बालकों की शिक्षा में खेल तथा क्रियाशीलता को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान करते हैं। खेल तथा क्रिया द्वारा बालक सरलता, सहजता, उत्साह तथा प्रसन्नता से नवीनं बातों को सीख लेते हैं। अतः बालकों की शिक्षा का स्वरूप ऐसा होना चाहिए कि वालक स्वाभाविक क्रियाशीलता तथा खेल द्वारा नवीन ज्ञान का अर्जन कर सके। 


4. भाषा विकास पर बल 

Emphasis on Language Development

 

बाल्यावस्था में भाषा विकास पर ध्यान दिया जाना अत्यंत आवश्यक है। वालकों के भाषा ज्ञान की वृद्धि के लिए उन्हें वार्तालाप करने, कहानियाँ सुनाने, पत्र-पत्रिकाएं पढ़ने, वाद-विवाद प्रतियोगिताओं में भाग लेने, भाषण देने, कविता पाठ करने जैसी क्रियाओं में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए।


5. रोचक पाठ्यसामग्री 

Interesting Content 


बालकों की पाठ्यसामग्री उनकी आवश्यकताओं के अनुरूप तथा रोचक होनी  चाहिए। बाल्यावस्था में बालकों की रुचि में विभिन्नता तथा परिवर्तनशीलता पर रूप से परिलक्षित होती है। इसलिए शिक्षा की पाठ्यसामग्री में रोचकता तथा विभिन्नता का पुट होना ही चाहिए।



6. जिज्ञासा प्रवृत्ति को संतुष्टि 

Satisfaction of Curiosity


शिक्षा के द्वारा बालकों की प्रबल जिज्ञासा प्रवृत्ति को संतुष्ट करने तथा: प्रोत्साहित करने का प्रयास किया जाना चाहिए। माता-पिता तथा अध्यापकों बालकों के प्रश्नों का समुचित उत्तर देकर उसे नई-नई लाभप्रद बातें सिखाना चाहिए।


 7. सामूहिक प्रवृत्ति की तुष्टि 

Satisfaction of Gregariousness


बालकों की सामूहिक प्रवृत्ति की तुष्टि के लिए विद्यालयों में सामूहिक कार्य खलकूद की व्यवस्था की जानी चाहिए। बाल सभा, स्काऊट-गाइड, पर्यटन नाम सरस्वती यात्राऐं, सांस्कृतिक कार्यक्रमों आदि के द्वारा बालक-बालिकाओं की सामाजिक प्रवृत्ति की संतुष्टि की जा सकती है। 


8. रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था 

(Arrangement of Constructive Work


घर तथा विद्यालय में बालक बालिकाओं के लिए विभिन्न प्रकार के रचनात्मक कार्यों की व्यवस्था की जाती है। मिट्टी, लकड़ी, कागज, दफ्ती आदि के द्वारा तरह-तरह की वस्तुएं बनवाकर बालक-बालिकाओं की रचनात्मक प्रवृत्ति का विकास किया जा सकता है।


 9. संचय प्रवृत्ति का प्रोत्साहन 

Promotion of Acquisitiveness


बालक की संचयी प्रवृत्ति को शैक्षिक दृष्टि से अभिमुख बनाया जा सकता है। माता-पिता तथा अध्यापक शिक्षाप्रद वस्तुओं को एकत्रित करने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। डाक टिकट, माचिस, सिक्के, चित्र, प्राकृतिक वस्तुएं आदि को एकत्रित कराकर उन्हें शैक्षिक दृष्टि से सार्थक रूप में व्यवस्थित किया जा सकता है।


10. सामाजिक गुण का विकास 

Development of Social Qualities


बाल्यावस्था में बालक का समाजीकरण होता है । बालक घर से निकल कर स्कूल में जाता है जहाँ वह अन्य छात्रों तथा अध्यापकों से सामाजिक अन्तक्रिया करता है । अतः विद्यालय में ऐसी क्रियाओं का आयोजन किया जाना चाहिए जो बालक के सामाजिक विकास की गति को तेज कर सके । कक्षा, विद्यालय तथा खेल के मैदान में इस प्रकार का वातावरण होना चाहिए कि छात्रों में अनुशासन, आत्मसंयम, उत्तरदायित्व, आज्ञापालन, सहयोग, सहानुभूति आदि सामाजिक गुणों का अधिकतम विकास हो सके।


11. नैतिक शिक्षा 

Moral Education

 

बाल्यावस्था के दौरान बालकों में नैतिक मूल्यों का विकास होने लगता है। वह समाज की नैतिक मान्यताओं तथा नियमों में विश्वास करने लगता है। अतः बालकों में नैतिक मल्यों के उचित निर्माण तथा सामाजिक मान्यताओं व नियमों में विश्वास बढ़ाने  के लिए उन्हें विद्यालय में नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए । बालकों को आनन्द देने वाली, सरल, धार्मिक तथा नैतिक कहानियों के द्वारा उन्हें नैतिक शिक्षा दी जा सकती है |


12. मानसिक विकास पर बल 

Emphasis on Mental Development


मानसिक विकास के लिए उपयुक्त वातावरण आवश्यक है । अतः बाल्यावस्था में मानसिक विकास के लिए बालकों को यथासम्भव उचित वातावरण प्रदान करना चाहिए। घर तथा विद्यालय में उन्हें ऐसा बौद्धिक वातावरण मिलना चाहिए जिससे उनकी विभिन्न मानसिक योग्यताएं जैसे प्रत्यक्षीकरण, स्मृति, कल्पना, चिन्तन, तर्क इत्यादि का अधिकतम विकास हो सके। 


बालक की शिक्षा का उत्तरदायित्व माता-पिता, अध्यापक तथा समाज पर होता है। बाल्यावस्था में यदि उपरोक्त बिन्दुओं के अनुरूप शिक्षा प्रदान की जायेगी तो बालकों का सर्वागीण विकास हो सकेगा। 

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