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SUKRATKi Jivni | सुकरात का शिक्षा दर्शन ,शिक्षण पद्धति, विधि| SOCRATES

सुकरात 
SOCRATES 



जन्म : 469 ई० पू० 
मृत्यु : 399 ई० पू० 

जीवन तथा कार्य 

(LIFE AND WORK) 


सुकरात का जन्म यूनान के प्रसिद्ध नगर एथेन्स में 469 ई० पू० में हुआ था। उसके माता-पिता निर्धन थे और किसी प्रकार अपनी गुजर-बसर करते थे। माता दाई का काम करके कुछ कमा लेती थी और पिता मूर्तिकार था; किन्तु उसकी आय बहुत कम थी। निर्धन परिवार में जन्म लेने के कारण सुकरात को उचित शिक्षा-दीक्षा से वंचित होना पड़ा। थोड़ा-सा पढ़ना-लिखना उसने सीख लिया; किन्तु उसे संगीत की शिक्षा न मिल सकी। उस समय एथेन्स में साधारणतः बालकों को संगीत एवं नृत्य की शिक्षा अवश्य दी जाती थी। प्रकृति की गोद में रहकर सुकरात ने प्राकृतिक विज्ञान की भी कुछ बातें अवश्य सीख ली होंगी। पिता मूर्तिकार का पेशा करता था और उसने चाहा कि सुकरात भी जीविकोपार्जन के लिए यही व्यवसाय चुने। पिता की इच्छा की पूर्ति करते हुए सुकरात ने मूर्तिकार का काम आरम्भ किया। किन्तु सुकरात असाधारण प्रतिभा का व्यक्ति था । अतः उसे इस व्यवसाय में सन्तोष न मिला। फलतः उसने इस काम को छोड़ दिया। मूर्तिकार के काम को छोड़ने के पश्चात् सुकरात को तीन बार एथेन्स की सेना में बाहर जाना पड़ा। इसके अतिरिक्त उसने सारा समय शिक्षण को भेंट कर दिया। अब उसका नया व्यवसाय शिक्षण हो गया और वह व्यवसाय मृत्यु-पर्यन्त बना रहा। सुकरात ने स्वयं यह अनुभव किया कि उसके लिए जीवन का यही कार्य निश्चित किया गया है। यहाँ पर इस बात का ध्यान रखना है कि 'शिक्षण' शब्द विस्तृत अर्थ में प्रयुक्त हो रहा है, क्योंकि सुकरात किसी स्कुल  में मास्टर नहीं था। वह तो सार्वजनिक शिक्षक के रूप में जहाँ-तहाँ घूमता रहता था और यूवकों से वाद-विवाद करता रहता था। सुकरात को पिता का पेशा रुचिकर प्रतीत नहीं हुआ; किन्तु बाद के इस कार्य में उनका मन लग गया। बाद का यह कार्य उसके पिता के व्यवसाय से दूर किन्तु किन्त माता के व्यवसाय के निकट था। सुकरात स्वयं कहता था कि पिता के व्यवसाय से मुझे माता का व्यवसाय अधिक पसन्द आया। उसकी माता दाई थी। दाई का काम यह नहीं है कि वह बच्चे को जन्म दे वरन यह है कि वह भावी माता को बच्चा पैदा करने में सहायता दे। सुकरात भी युवकों से वाद-विवाद करके ज्ञान उत्पन्न करने में सहायता करता था। 

सुकरात का विवाह 50 वर्ष की आयु के बाद हुआ। विवाह के समय उसकी पत्नी जाँतिपी की आयु लगभग 25 वर्ष की रही होगी। प्लेटो के ग्रन्थ 'फायडो' से विदित होता है कि सुकरात ने जब मृत्युदंड पाया तो उसका सबसे बड़ा पुत्र लेम्प्रोकल्स अवयस्क था और छोटा पुत्र मेनेजेनस तो गोद में खेलने वाला शिशु था। उसके तीन पुत्र थे और तीनों ही बुद्धिहीन निकले। उसकी पत्नी जांतिपी सुन्दर और बुद्धिमान थी तथा वह सुकरात की सुख-सुविधा का सदा ध्यान रखती थी। परिवार के भरण-पोषण का दायित्व उसने अपने ऊपर लेकर सुकरात को दैनिक जीवन के झंझटों से मुक्त कर दिया था। उसने क्रोध भी किया तो इसलिए नहीं कि सुकरात परिवार का भरण-पोषण क्यों नहीं करता वरन इसलिए कि वह स्वयं अपना ध्यान नहीं रखता था। जांतिपी अधिक दिन जीवित नहीं रह सकी और सुकरात की मृत्यु के कुछ समय बाद ही उसका देहावसान हो गया। 

सुकरात ने कोई लेख नहीं छोड़ा है। वह मौखिक रूप से शिक्षा देता था। सुकरात स्वयं इसे शिक्षा नहीं मानता था और न ही वह अपने को शिक्षक मानने को तैयार था। वह कई नवयुवकों को संवाद में लगा देता था और स्वयं भी संवाद में सक्रिय रूप से भाग लेने लगता था। उसकी धारणा थी कि इस प्रकार की बातचीत से विषय के विविध पहलू प्रकट हो जायेंगे और सही ज्ञान प्रकाशित हो उठेगा। एक सच्चे शिक्षक एवं तत्त्वान्वेषी की भाँति सुकरात इस प्रकार की परिचर्या में न्याय, सद्गुण, संयम आदि पदों की जाँच करता था। वह अपने को अबोध जिज्ञासू समझ कर संवाद प्रारम्भ करता था और दूसरों से ज्ञान, न्याय आदि पदों को समझने को कहता था । थोड़ी ही देर में दूसरे व्यक्तियों को पता लग जाता था कि उनके विचार भी स्पष्ट नहीं हैं और सुकरात को वे सन्तुष्ट नहीं कर सकते हैं। सुकरात प्रतिदिन सबेरे ही घर से निकल जाता था और चौराहे पर या मण्डी में या किसी अन्य स्थान पर जहाँ मनुष्यों की भीड़ होती थी, खड़ा हो जाता था और वहीं पर आसन जमा लेता था । वहाँ पर जो कोई भी चाहता था, वह सुकरात से बात कर सकता था। कोई रोक-टोक नहीं, कोई फीस नहीं, विद्या का कोई अहंकार नहीं। यही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति सुकरात को सदा वार्ता के लिए उत्सुक व तैयार पाता था। इसी प्रकार का उसका विद्यालय था और इसी प्रकार के उसके शिष्य थे और इसी प्रकार से वह महान् शिक्षक ज्ञान के पट उठाकर सबको ज्ञान का दर्शन कराता था। कुछ लोग तो मण्डी या चौराहे पर प्रतिदिन सुकरात की प्रतीक्षा किया करते थे। अनेक नवयुवक उसके प्रति श्रद्धा रखते थे जिन नवयुवकों के साथ सुकरात वार्तालाप करता था, उनमें सत्यान्वेषण की प्रवृत्ति प्रबुद्ध हो उठती थी। ये युवक ज्ञान की छानबीन करने में रुचि लेते थे। वे युवक समझते थे कि उनमें ही नहीं, एथेन्स की अधिकांश जनता में भी अज्ञान की मात्रा है। पढ़े-लिखे लोग भी अज्ञान से मुक्त नहीं थे। अतः सुकरात के सम्पर्क में आने वाले युवक सुकरात के तर्कों का प्रयोग करते थे और पढ़े-लिखे लोगों से वाद-विवाद करने में रुचि लेते थे। इसका परिणाम यह हुआ कि सुकरात के मित्र तो कम हुए, शत्रु अनेक हो गये।


 

अपने नवीन विचारों के कारण और अपने श्रद्धालू युवकों के संवादों के कारण सुकरात रूढ़िवादियों को खटकने लगा। सुकरात सोफिस्ट नहीं था; किन्तु बहुत-से लोग उसे सोफिस्ट ही मानते थे। सोफिस्ट एथेन्स के चलते-फिरते शिक्षक थे, जो पास-पड़ौस के देशों से एथेन्स में आये थे और एथेन्स के युवकों को शिक्षा देते थे। ये सोफिस्ट एक स्थान पर नहीं रहते थे। उन्हें जहाँ अच्छी फीस मिल जाती थी, वहीं चले जाते थे। लोगों की दृष्टि में वे विद्या को बेचते थे, किन्तु सोफिस्टों की प्रतिभा ने उन्हें लोकप्रिय बना दिया था। उनकी शिक्षा किसी विशेष सिद्धान्त के लिए नहीं होती थी और न ही कोई निश्चित विषय होता था। उनका काम छात्रों को वाक्पटुता प्रदान करना ही था। आज एक छात्र एक सोफिस्ट के पास आता और कहता-'मद्य-निषेध' पर कुछ बतलाइए तो सोफिस्ट शिक्षक उसे मद्य-निषेध के तर्क बताते, बातचीत में जो पक्ष शिष्य लेता, उसका विरोधी पक्ष शिक्षक ले लेता और इस प्रकार उसे ट्रेनिंग देता और कल यदि कोई छात्र ‘मद्यपान' पर बातचीत करना चाहता तो सोफिस्ट शिक्षक उसे उसी प्रकार की शिक्षा देने लगते थे। सोफिस्ट बातचीत में बड़े कुशल थे और मनष्य को ही सब चीजों का माप मानते थे। उनके लिए सार्वजनिक सत्य का कोई स्थान नहीं था। वे धार्मिक परम्पराओं एवं देवी-देवताओं की भी आलोचना करते थे पेलोपोन्नेसियन युद्ध में दुर्भाग्यवश एथेन्स की हार हुई और आम जनता ने इस हार का कारण सोफिस्टों की शिक्षा को माना। इस युद्ध के बाद सोफिस्टों का प्रभुत्व ही नहीं कम हो गया वरन् एथेन्स की जनता का कोपभाजन भी उन्हें बनना पड़ा। स्पष्ट है कि सुकरात इन सोफिस्टों के विचारों से बहुत दूर था किन्तु बहुत-से एथेन्सवासी उसे सोफिस्ट ही मानते थे। सकरात ने इसकी परवाह नहीं की और उसने अन्ध-विश्वास की डटकर आलोचना की। जिन सुकरात 25 देवी-देवताओं को एथेन्सवासी पूजते थे, उनमें सुकरात की भक्ति न थी। वह विपत्तियों के समय कहा करता था कि कठिनाई पर विजय पाने के लिए उसे किसी दैवी शक्ति से सहायता मिलती है। उसकी इस प्रकार की बातें सुनकर लोग कहने लगे थे कि सुकरात ने अपने लिए नये देवता बना लिये हैं। 

इन सब बातों का परिणाम यह हुआ कि सुकरात पर देशद्रोह का अभियोग लगाया गया। उस पर स्पष्ट रूप से तीन आरोप लगाए गये। ये आरोप निम्नलिखित थे 

1. सुकरात एथेन्स राष्ट्र के देवताओं का अपमान करता है।

2. उसने अपने लिए नये देवता गढ़ लिए हैं और वह उन्हीं नये देवताओं को मानता है।

3. उसने एथेन्स राष्ट्र के नवयुवकों को बिगाड़ दिया है। 


मुकदमा सुनने के लिए अदालत बैठी। वह अदालत भी अभूतपूर्व थी। एथेन्स राष्ट्र के 501 व्यक्ति मुकदमा सुनने के लिए बैठे। तीन व्यक्तियों ने अदालत के समक्ष उपर्युक्त तीन आरोप लगाए और प्रस्ताव रखा कि सुकरात को मृत्यु दण्ड दिया जाय। उस समय मृत्यु-दण्ड बहुत प्रचलित दण्ड था। सुकरात को सफाई पेश करने का मौका दिया गया; किन्तु उसकी सफाई का मूल्य तो तब होता जब एथेन्सवासी सफाई पर ध्यान देने की मनोदशा में होते। अदालत ने फैसला सुनाया कि सुकरात अपना शिक्षण छोड़ दे या वह एथेन्स छोड़कर कहीं और चला जाय या फिर वह मृत्यु-दण्ड स्वीकार करे। प्रथम दो शर्ते सुकरात को स्वीकार्य नहीं थीं, फलतः अदालत ने उसे मृत्यु-दण्ड दिया। मृत्यु-दण्ड के आदेश को शान्तिपूर्वक सुनकर सुकरात ने मान्य न्यायाधीशों से कहा


 "निर्णायकों ! तुम्हें भी मृत्यु का साहस के साथ वरण करना चाहिए और समझ लेना चाहिए कि निर्दोश व्यक्ति पर आजन्म तथा मृत्यु के उपरान्त भी कोई विपत्ति नहीं आ सकती है। मेरे लिए अब मरना और दुःख से निवृत्त होना ही श्रेष्ठ है।मैं आरोप लगाने वालों पर कुपित नहीं हूँ।  अब समय आ गया है कि हम अब इस स्थान से चल दें, ..."मैं मरने हेतु और तुम जीने के निमित्त; परन्तु ईश्वर ही जानता है कि जीवन और मृत्यु में कौन श्रेष्ठ है।" 

अदालत ने आदेश दिया था कि सुकरात को विष देकर समाप्त किया जाय। नियत समय पर विष का प्याला आया और सुकरात ने उसे पी लिया। थोड़ी ही देर में संसार एक महापुरुष से वंचित हो गया। मृत्यु के समय सुकरात की आयु 70 वर्ष की थी।

 

सुकरात का शिक्षा-दर्शन

 (EDUCATIONAL PHILOSOPHY OF SOCRATES) 


सोफिस्टों ने मनुष्य को दार्शनिक विवेचन का केन्द्र माना था। सुकरात का भी विचार ऐसा ही था। वह भी नैतिक प्रश्नों को बड़ा महत्त्व देता था। फिर भी दोनों के विचारों में अन्तर था। सोफिस्टों ने सत्यम् एवं शिवम् को व्यक्ति की प्रतीति तक ही सीमित कर दिया था और सार्वजनिक सत्य का तिरस्कार किया था, जबकि सुकरात ने सत्यम् एवं शिवम् को यथार्थ की नींव पर स्थापित किया । सुकरात ने विशेषों' पर अधिक ध्यान केन्द्रित न कर 'सामान्य' को ही अपने चिन्तन का केन्द्र बनाया। उसने प्रत्ययों के स्पष्टीकरण की ओर विशेष रूप से ध्यान दिया। सदाचार क्या है ? न्याय क्या है ? दूरदर्शिता क्या है ? इस प्रकार के प्रश्नों का वह उत्तर ढूँढा करता था। सुकरात को प्रत्यय या लक्षण का जन्मदाता कहा जाता है ? चिन्तन में प्रत्यय का बड़ा महत्त्व है। प्रत्यय का निर्माण विशेषों' से होता है। मनुष्य कई प्रकार के हैं उनके आधारों में भिन्नता है। उनके रंग भी भिन्न होते हैं। किन्तु जब हम 'मनुष्य' कहते हैं तो हमें इस या उस मनुष्य का बोध न होकर सामान्य मनुष्य का बोध होता है। सामान्य मनुष्य का बोध ही 'प्रत्यय' है। 'मनुष्य' का चिन्तन मनुष्य के प्रत्यय या लक्षण को निश्चित करने के लिए किया जाता है। प्रत्यय या लक्षण को निश्चित करने के लिए हम अनेक 'विशेषों' को देखते हैं और फिर असमान गुणों को अलग करके समान गुणों पर ध्यान देते हैं । इसी प्रकार न्याय, सदाचार, आदि का भी लक्षण करने के लिए हम ऐसे विविध कर्मों का चिन्तन करते हैं, जिन्हें न्यायमुक्त अथवा सदाचारयुक्त स्वीकार किया जाता है। तत्पश्चात् न्याय की परिभाषा करते हैं। तर्कशास्त्र में इस विधि को 'आगमन' कहते हैं। सुकरात को लक्षण और आगमन-दोनों का ही जनक कहा जाता है। इस दृष्टि से सुकरात का स्थान उच्च कोटि के दार्शनिकों में है। 


सुकरात ने भद्र (अच्छाई) और अभद्र (बुराई) की नींव बुद्धि पर रखी। जो भद्र अथवा अच्छा है वह सबके लिए भद्र है, और जो अभद्र है वह सभी के लिए अभद्र है। सोफिस्टों के अनुसार भद्र  व्यक्तिगत था। सुकरात के अनुसार भद्र और अभद्र में व्यक्तिगत पसन्द का कोई स्थान नहीं। सुकरात  के अनुसार सदाचार ज्ञान पर आधारित है। कोई मनुष्य अपनी इच्छा से गलती नहीं करता। मनुष्य गलती उसके अज्ञान का परिणाम है। मनुष्य गलती इसलिए करता है, क्योंकि वह यह जान नहीं पाता है  कि वह गलती कर रहा है। यदि वह भद्र और अभद्र का ज्ञान प्राप्त कर ले तो वह वही करेगा जो है। सुकरात ने केवल यही नहीं कहा कि भद्र का आधार ज्ञान है वरन् यह भी कहा कि ज्ञान ही भद्र है |

 इस धारणा में दो बातें सम्मिलित हैं-

(1) भद्र वही कर सकता है जिसे भद्र का ज्ञान हो; 

(2) जो व्यकि भद्र जानता है, उसके लिए भद्र न करना असम्भव है। सुकरात के पहले विचार से प्रायः सभी लोग सहमत होंगे; किन्तु दूसरे विचार को मानने में कठिनाई है-तथापि इतना तो निश्चित ही है कि ज्ञानी व्यक्ति भद्र की ओर उन्मुख होता है। 

अब प्रश्न उठता है कि ऐसा ज्ञान प्राप्त कैसे हो सकता है ? सुकरात के अनुसार इस ज्ञान की प्राप्ति आत्म-परीक्षण से होती है। सुकरात कहा करता था-'अपने को जानो' (Know thyself) | जीवन का रहस्य व्यक्ति के बाहर नहीं, अपितु अन्दर ही छिपा है। व्यक्ति आत्म-निरीक्षण के द्वारा इस रहस्य को जानने का प्रयत्न कर सकता है। सुकरात का यह सिद्धान्त एथेन्स के तत्कालीन सिद्धान्तों के विपरीत पड़ता था। एथेन्सवासी संसार की बाह्य क्रियाओं में आनन्द लेते थे और उनकी समझ में सुख सांसारिक वस्तुओं में ही था। सुकरात के अनुसार बाह्य पदार्थों में सुख की मात्रा ही नहीं है। एथेन्सवासी सौन्दर्य के उपासक अवश्य थे, किन्तु वे बाह्य सौन्दर्य पर ही मुग्ध हो जाते थे; सुकरात के लिए आत्मा का सौन्दर्य ही मुख्य था। सुकरात के अनुसार व्यक्ति की अन्तरात्मा में नैतिक नियमों को खोजना चाहिए। सत्य, न्याय, ईमानदारी आदि नैतिक नियम किसी व्यक्ति की सम्पत्ति पर आश्रित नहीं हैं। ये तो शाश्वत नियम हैं जो सदाचार एवं सर्वत्र सत्य है। इनकी नित्यता ही इनकी व्यापकता का आधार है। वे व्यक्तिगत व्यवहार से निश्चित नहीं होते वरन् व्यक्तियों के व्यवहार को स्वयं ही निश्चित करते हैं। इन नियमों को खोजने के लिए व्यक्ति को अपने अन्दर की ओर निगाह फेरनी होगी। 

सुकरात के अनुसार शिक्षा का उद्देश्य ज्ञान की प्राप्ति होना चाहिए। सुकरात की दृष्टि में जीवन का उद्देश्य-भद्र आचरण करना है। भद्र आचरण तब तक सम्भव नहीं, जब तक ज्ञान न हो-अतः ज्ञान प्राप्त करना आवश्यक है। यह ज्ञान आत्म-परीक्षण से सम्भव होगा, अतः हर व्यक्ति में सोचने-विचारने की शक्ति का विकास करना होगा। शिक्षक का कार्य यह है कि वह बालकों में सोचने-समझने की शक्ति का विकास करने का प्रयत्न करें। शिक्षा का उद्देश्य यह नहीं है कि बालकों को निश्चित सूचनाएँ दे दी जायँ वरन् यह है कि उनमें विचार करने की शक्ति उत्पन्न कर दी जाय ताकि वे सच्चे ज्ञान की उपलब्धि कर सकें। 

सुकरात की शिक्षण-पद्धति 

(SOCRATIC METHOD OF TEACHING) 


सुकरात की शिक्षण-पद्धति भी निराली थी। उसकी पद्धति का उद्देश्य सत्य को प्रस्तुत करना न होकर, सत्य का अन्वेषण करना था। सुकरात की शिक्षण-पद्धति वार्तालाप पर आधारित थी। सुकराती शिक्षण-विधि में यह बात स्पष्ट हो जाती है कि सभी अच्छे कार्यों के मूल में ज्ञान है। सुकरात ने अपने शिष्यों को सोचने एवं तर्क करने की प्रेरणा दी। वह एक परिकल्पना से प्रारम्भ करता था और उस परिकल्पना को अच्छी तरह छान-बीन कर ही आगे बढ़ता था। उसके वार्तालाप का कोई निश्चित विषय नहीं था। बातचीत में न्याय, सदाचार, सत्य आदि जैसे ही प्रयुक्त होते. सुकरात तुरंत पूछता न्याय क्या है ? और बस उस विषय पर तर्क-वितर्क प्रारम्भ हो जाता । वार्तालाप का कोई निश्चित स्थान नहीं होता था। किसी भी सार्वजनिक स्थान पर सुकरात पहँच जाता था और वहा पर शिक्षण प्रारम्भ हो जाता था। इस वार्तालाप में भाग लेने वाले व्यक्ति भी कोई निश्चित नहीं होते थे, किन्त नवयुवकों के मन को सुकरात ने अधिक आकर्षित किया था। इस वार्तालाप से ज्ञान का मार्ग  प्रशस्त हो जाता था। अपने अनुभवों के विश्लेषण एवं परीक्षण के सहारे सुकरात किसी निष्कर्ष पर पहुँचने के लिए शिष्यों को प्रेरणा देता था। जब एक स्थिति का समाधान हो जाता था तो सुकरात दूसरी स्थिति प्रस्तुत कर देता था। इन सभी स्थितियों में से जो धारणा समस्याओं के समाधान करने में समर्थ होती, उसे ही सामान्य परिभाषा का रूप दे दिया जाता था। इस विधि को 'डाइलेक्टिक' (Dialectic) कहा जाता है। सामान्य प्रत्ययों के आधार पर एक सामान्य धारणा के निरूपण की प्रक्रिया को डायलेक्टिक' कहा जाता है। सुकरात अपने शिष्यों को डाइलेक्टिक का अभ्यास कराता था। यह चिन्तन की ऐसी विधि है, जिसके द्वारा ज्ञान की प्राप्ति होती है। इस विधि में तर्क-वितर्क खूब खुलकर होता  था और आगमन' (Inductive) विधि से लोग किसी व्यापक सत्य पर पहुँचने का प्रयत्न करते थे। 

सुकराती विधि 
(SOCRATIC METHOD) 


आधुनिक शिक्षाशास्त्र में प्रश्नोत्तर विधि को सुकराती विधि कहते हैं। सुकराती विधि के जन्मदाता सुकरात हैं जो कि ऐथन्स के निवासी थे और एक महान दार्शनिक के नाम से प्रसिद्ध हैं। लगभग ढाई हजार वर्ष पूर्व इन्होंने एक ऐसी बात पर विचार किया जो कि वर्तमान युग के लिये भी एक विचारणीय बात मालूम होती है। सुकरात ने देखा कि प्रत्येक व्यक्ति परीक्षण अथवा अनुभव द्वारा कुछ न कुछ ज्ञान अवश्य प्राप्त करता है परन्तु उसका ज्ञान व्यवस्थित नहीं होता। उनकी धारणा थी कि ज्ञान को व्यवस्थित करने हेतु प्रत्येक व्यक्ति को अपने प्राप्त ज्ञान को सत्य की कसौटी में कसकर ग्रहण करना चाहिये। ऐसा करने के लिये उन्होंने 'प्रश्न विधि' का निर्माण किया। इसी 'प्रश्न विधि' को 'सुकराती विधि' भी कहा जाता है। 

सुकरात ने अपने जीवनपर्यन्त व्यक्तियों के ज्ञान को व्यवस्थित करने का प्रयत्न किया। वह यह नहीं चाहते थे कि किसी व्यक्ति को बाध्य करके बाह्य ज्ञान दिया जाय और उसके मस्तिष्क में उस ज्ञान को ठूस  दिया जाय। व्यक्तियों के ज्ञान को सुव्यवस्थित करने के लिये वे उनसे वैज्ञानिक प्रश्न पूछा करते थे और उन प्रश्नों के उत्तरों की सहायता से उनके ज्ञान को सुव्यवस्थित किया करते थे। उन्होंने शिक्षण के लिये वैज्ञानिक प्रश्नों को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया। उनका विचार था कि वैज्ञानिक शिक्षण के क्रम में पहले ऐसे प्रश्न पूछे जाने चाहिये जिससे व्यक्ति के पूर्व प्राप्त ज्ञान के सम्बन्ध में जाँच की जा सके, तत्पश्चात् इस प्रकार के प्रश्न होने चाहिये जिनसे व्यक्ति को ज्ञात से अज्ञात की ओर ले जाया जा सके और अन्त में ऐसे प्रश्न होने चाहिये जिनके उत्तरों से व्यक्ति स्वयं नवीन ज्ञान प्राप्त कर सके। सुकरात ने स्वःशिक्षा में बल दिया। सुकरात ने अपने दार्शनिक विचारों को कार्य रूप में परिणत करने का भरसक प्रयत्न किया। उनके पास वे जिज्ञासु आया करते थे जो कुछ नवीन ज्ञान प्राप्त करना चाहते थे। सुकरात आरम्भ में उन जिज्ञासुओं से ऐसे प्रश्न पूछते थे जिनसे उनके पूर्व ज्ञान का परीक्षण हो जाता था और जिज्ञासुओं को अपनी अव्यवस्थित तथा अशुद्ध धारणाओं में विश्वास हो जाता था। तब उनसे ऐसे प्रश्न पूछे जाते थे जिनसे उनमें नवीन तथा सुव्यवस्थित ज्ञान के लिये जिज्ञासा उत्पन्न की जाती थी। अन्त में सुकरात ऐसे प्रश्न पूछते थे जिनका उत्तर जिज्ञासु स्वयं सोचते थे और उन्हीं उत्तरों के आधार पर उन्हें स्वःशिक्षा मिलती थी। इस प्रकार जिज्ञासुओं को सुव्यवस्थित ज्ञान का बोध होता था। सुकरात अपने को एक मस्तिष्क रूपी शिशु जनाने वाला पुरुष दाई समझा करते थे। उनका कहना था कि एक शिक्षक के नाते उनका कार्य यह है कि वे प्रत्येक व्यक्ति में एक नवीन मस्तिष्क का निर्माण करने में सहायता दें। जिस प्रकार दाई पेट से बालक को बाहर निकालने में सहायक होती है उसी प्रकार शिक्षक भी मस्तिष्क के ज्ञान को सुव्यवस्थित कर एक नये मस्तिष्क का निर्माण करने में सहायक होता है। जिस प्रकार दाई बाहर से बच्चे को पेट में नहीं डालती है बल्कि उसे बाहर निकालने में सहायक होती है उसी प्रकार शिक्षक भी मस्तिष्क में बाहर से कोई नया ज्ञान नहीं ठूस  सकता है बल्कि मस्तिष्क के अन्दर के ज्ञान को सुव्यवस्थित करने में सहायक हो सकता है। 

सुकराती विधि के गुण

 
(CHARACTERISTICS OF SOCRATIC METHOD)


यदि ध्यानपूर्वक देखा जाय तो हमें ज्ञात होगा कि सुकराती विधि मनोवैज्ञानिक सिद्धान्तों पर आधारित है। 

प्रत्येक बालक में जिज्ञासा की सामान्य प्रवृत्ति विद्यमान रहती है। हो सकता है किसी वस्तु  का ज्ञान प्राप्त करने के लिये उनमें कम जिज्ञासा हो और किसी के लिए अधिक। जिस वस्तु के ज्ञान के लिये बालक में जिज्ञासा होती है उसका ज्ञान वह सार्थक तथा स्थायी रूप से प्राप्त करता है। इसलिये प्रत्येक शिक्षक का कर्त्तव्य है कि बालक को कोई भी नवीन ज्ञान देने के लिये उसमें उसके प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करे। हम अपने शिक्षण कार्य में प्रस्तावना के प्रश्न इसीलिये करते हैं ताकि बालकों के पर्व ज्ञान की जाँच हो सके और नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिये उनमें जिज्ञासा उत्पन्न हो सके। पाठ्यो-प्रस्थान की अवस्था में भी अब हम बालक की जिज्ञासा का दमन नहीं होने देते। निश्चय ही ऐसा करने के लिये वैज्ञानिक प्रश्नों की आवश्यकता होती है। 

चूँकि सुकराती विधि में नवीन ज्ञान की उत्पत्ति के लिए प्रश्नों का प्रयोग किया जाता है इसलिये बालक सक्रिय रूप से ज्ञान प्राप्त करते हैं। वे निष्क्रिय श्रोता की भाँति बाहर से दिये गये ज्ञान को ग्रहण नहीं करते। प्रश्नों का उत्तर सोचने के लिये उन्हें निरन्तर विचार तथा तर्क करना होता है। इससे उनकी विचार-शक्ति तथा तर्क-शक्ति का विकास होता है। 

इस विधि के अनुसार ज्ञात से अज्ञात की ओर बढ़ा जाता है और यह एक महत्त्वपूर्ण शिक्षण सिद्धान्त है। इसलिये इस विधि द्वारा नवीन ज्ञान प्राप्त करने में बालकों को सुविधा होती है। उनका प्राप्त ज्ञान सुव्यवस्थित हो जाता है। 

सबसे सराहनीय बात तो यह है कि इस विधि द्वारा प्राप्त किया गया ज्ञान बालक का स्वयं अपना होता है। वह बाहर से उसके मस्तिष्क में लूंसा गया नहीं होता। स्वयं प्राप्त किया गया ज्ञान ही स्थायी रह सकता है। 


सुकराती विधि के दोष 
(DEMERITS OF SOCRATIC METHOD) 

इस विधि के कुछ दोष भी हैं। हमें यह कदापि नहीं सोचना चाहिये कि हम सदा बालक के मस्तिष्क के अन्दर के ज्ञान को प्रश्नों द्वारा बाहर निकालकर उसको सुव्यवस्थित कर सकते हैं। हमारे शिक्षण में अनेक ऐसे अवसर आते हैं जबकि हमें बालकों को बाहर से ज्ञान देना आवश्यक हो जाता है। उदाहरण के रूप में जिस बालक को मराठा लड़ाई के सम्बन्ध में कुछ नहीं बतलाया गया है उसके मस्तिष्क में इसका ज्ञान कहाँ से हो सकता है। विशेषकर नैतिक चरित्र की शिक्षा के लिये प्रश्न-विधि का उपयोग सन्तोषजनक नहीं है। 

सुकराती विधि के लिये वैज्ञानिक ढंग के प्रश्नों की आवश्यकता होती है। ऐसे प्रश्नों का निर्माण करने के लिये अधिक प्रयत्न करने की आवश्यकता होती है। यदि प्रश्नों से बालक में जिज्ञासा उत्पन्न न हो तो उनसे कोई लाभ नहीं होता और समय व्यर्थ नष्ट होता है। आवश्यकता से अधिक प्रश्न पूछने पर भी पाठ में नीरसता आ जाती है और विद्यार्थियों को अभिरोचन नहीं मिलता। 


निष्कर्ष 

(CONCLUSION)


 'सुकराती विधि' का प्रयोग लगभग सभी शिक्षक अपने शिक्षण में करते हैं। यद्यपि अधिकांश शिक्षक 'सुकराती विधि' के नाम से परिचित नहीं हैं फिर भी वे अपने शिक्षण में जाने या अनजाने रूप में प्रश्नों का उपयोग करते हैं। शिक्षकों को चाहिये कि 'सुकराती विधि' को शिक्षण की अन्य विधियों के साथ मिलाकर प्रयोग करें। आवश्यकता से अधिक प्रश्न पूछने पर पाठ में नीरसता आ जाती है और उनसे कोई लाभ नहीं होगा। प्रश्न पाठ में यथास्थान पूछे जाने चाहिये तभी उनका कोई मूल्य होता है। प्रश्नों का मुख्य ध्येय बालक में नवीन ज्ञान प्राप्त करने के लिये जिज्ञासा उत्पन्न करना तथा उनके उत्तरों से स्वयं ज्ञान प्राप्त करने की चेष्टा करना होना चाहिये। 

सुकरात के शिक्षा-दर्शन और उसकी शिक्षण-पद्धति का तत्कालीन शिक्षा पर पर्याप्त प्रभाव पड़ा। लोग पाठय-वस्तु के रूप में ज्ञान के महत्त्व को समझने लगे थे। सोफिस्ट लोग भी ज्ञान देते थे, किन्तु वे व्यक्ति की आवश्यकताओं के आधार पर सांसारिक सफलता के लिए ही शिक्षा दे देते थे। सोफिस्टों को नैतिक मापदण्ड से कोई मतलब नहीं था। सुकरात ने नैतिक प्रत्ययों को केन्द्र-बिन्दु मानकर शिक्षा सुकरात " दी। सुकरात का प्रभाव यह हआ कि लोग अब नैतिक नियमों की व्यापकता को समझने लगे और नित्य नियमो का ज्ञान प्राप्त करने की ओर उन्मुख हो गये। शिक्षण-विधि में भी सुकरात का प्रभाव पड़ा और यूनानी नवयुवक अन्धविश्वास से ऊपर उठकर उन्मुक्त चिन्तन करने लगे। धार्मिक मान्यताओं के सम्बन्ध में भी लोग तर्क-वितर्क करने लगे। यह हम पहले ही देख चुके है कि सुकरात का अपन इस प्रभाव के लिए कितनी बड़ी कीमत चकानी पडी थी। जिस यनान ने सकरात को विष का प्याला दिया. उसा यूनान का सुकरात ने अपने महान विचारों का अमत प्रदान किया। शिक्षक-वर्ग-शिक्षण-पद्धति तथा शिक्षा दर्शन में सुकरात की देन को भूल नहीं सकता है। 

सुकरात की तुलना हिन्दी के प्रसिद्ध कवि सन्त कबीरदास से की जा सकती है जिन्होंने कहा था- " मसी  कागद छूयो नहीं, कलम गह्यो नहिं हाथ"। कबीर की भाँति सुकरात ने भी कुछ लिखा नहीं। अपनी सधुक्कड़ी शैली में सुकरात ने सत्य, सदाचार, न्याय इत्यादि की खोज बमे बड़े बडो के विचारो के खोखलेपन को उजागर कर दिया। पर इसमें भी कोई सन्देह नहीं कि सुकरात के वार्तालाप से  उस समय एथेंस  आन्दोलित हो उठा था। उसकी मौखिक शिक्षा का प्रभाव किसी भी प्रकार की लिखित व्यवस्थित और औपचारिक शिक्षा से कम नहीं ठहरता। 

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