मान्तेसरी
MONTESSORI
मान्तेसरी जीवन तथा कार्य
(LIFE AND WORK Of Montessori )
डाक्टर मेरिया मान्तेसरी का जन्म इटली में सन् 1870 ई० में हुआ था। उनके माता-पिता बुद्धिमान् एवं सम्पत्तिशाली थे। मान्तेसरी की शिक्षा-दीक्षा विधिवत् हुई। 24 वर्ष की अवस्था में सन् 1894 में उन्होंने रोम के विश्वविद्यालय से एम० डी० (M. D.) उपाधि प्राप्त की। डाक्टरी की परीक्षा पास करने के पश्चात् उसी विश्वविद्यालय में उन्हें पिछड़े हुए तथा मन्द बुद्धि बालकों की शिक्षा का भार सौंपा गया। इस उत्तरदायित्व को उन्होंने सफलतापूर्वक निभाया और पिछड़े हुए बालकों की शिक्षा के सम्बन्ध में अनेक अन्वेषण किये। अपनी शिक्षा की समाप्ति के पश्चात् मान्तेसरी संसार के समक्ष प्रारम्भ में एक चिकित्सक के रूप में आयीं और लोगों ने अनुमान लगाया कि यह महिला मन्द बुद्धि बालकों की चिकित्सा से सम्बन्धित कुछ बातें ज्ञात करेगी। किन्तु मन्द बुद्धि बालकों के साथ काम करते-करते उनकी रुचि शिक्षण-पद्धति में जाग्रत हुई और उन्होंने देखा कि पिछड़े हुए बालकों के पिछड़ने का कारण ज्ञानेन्द्रियों की हीनता है। उन्होंने निष्कर्ष निकाला कि तत्कालीन शिक्षा पद्धति में अनेक दोष हैं, क्योंकि इस पद्धति से सभी बालकों को समान रूप से शिक्षा दी जाती थी। ऐसी दशा में मन्द बुद्धि बालक स्वभावतः पिछड जाते थे। बालकों के पिछड़ जाने पर फिर उनके लिए शिक्षा-जगत् में कोई उपाय नहीं था। इन दोषों को दूर करने के लिए उन्होंने पिछड़े हुए बालकों की शिक्षा के लिए कई प्रयोग किये। उन्होंने ऐसे बालकों के मनोवैज्ञानिक विकास पर विशेष बल दिया। उन्होंने अपने प्रयोगों के आधार पर निष्कर्ष निकाला कि मन्द बुद्धि बालकों को भी उचित शिक्षा देकर बुद्धि के बालक के समकक्ष लाया जा सकता है। अपने प्रयोगों में उन्होंने डाक्टर इटार्ड (Dr. Itard) से काफी प्रेरणा ली। डॉ० इटार्ड उस समय फ्रान्स म बन्द बुद्धि बालकों की शिक्षा के प्रबन्ध में लगे हुए थे और मन्द बुद्धि बालकों की शिक्षा के सम्बन्ध में उन्होंने कई लेख लिखे थे। मान्तेसरी पर एनवर्ड सेगुइन (Edward Seguine) का भी प्रभाव पड़ा था।
मान्तेसरी ने पिछड़े हुए बालकों की शिक्षा के लिए एक विशिष्ट पद्धति को जन्म दिया, जिसे 'मान्तेसरी पद्धति' (Montessori Method) कहा जाता है। उन्होंने शिक्षकों के एक सम्मेलन में पहले अपने विचार प्रकट किये। बाद में पिछड़े हुए बालकों का एक विद्यालय स्थापित किया और उन्हें नई पद्धति से शिक्षा देने लगीं। उन्होंने देखा कि नई पद्धति से पिछड़े हुए बालकों का आश्चर्यजनक विकास होता है। उनकी इस सफलता से प्रभावित होकर इटली की सरकार ने उन्हें बाल-गृह (Children's House) का अध्यक्ष बना दिया। वे कई बाल-गृह की अधीक्षक (Superintendent) बनी और अपनी पद्धति के व्यावहारिक रूप का विकास करने लगीं। अपनी पद्धति को श्रेष्ठ बनाने के लिए उन्होंने प्रयोग मनोविज्ञान का अध्ययन किया। लोम्बोसो और सर्गी (Lombroso and Sergi) द्वारा प्रयुक्त कि विधियों का भी उन्होंने गम्भीर अध्ययन किया। बाल-गृह में रहकर उन्होंने अपनी शिक्षण-पाठ अधिकाधिक वैज्ञानिक बनाया। अपनी पद्धति की सफलता से प्रभावित होकर उन्होंने सोचा कि यार पद्धति को साधारण बुद्धि वाले शिशुओं पर भी प्रयोग किया जाय तो अच्छा है। उन्होंने साधारण पनि बालकों पर जब अपनी पद्धति का प्रयोग किया तो उन्हें इसमें भी सफलता मिली। उन्होंने यह निष्कर्ष निकला कि जो पद्धति 6 वर्ष के मंद बुद्धि के बालक के लिए उपयुक्त है वही पद्धति 3 वर्ष के बुद्धि के बालक के लिए उपयोगी है। इस प्रकार उन्होंने अपनी पद्धति के सहारे सामान्य एवं मन्द र प्रकार की बुद्धि के बालकों को शिक्षित करना प्रारम्भ किया।
मान्तेसरी ने अपना सम्पूर्ण जीवन शिशुओं की शिक्षा के पुण्य कार्य में बिता दिया। वे अपनी पहली को अधिकाधिक वैज्ञानिक बनाने में संलग्न रहीं। 3 से 6 वर्ष के बच्चों की शिक्षा की ओर ही उनका सबसे अधिक ध्यान था। उन्होंने 'मान्तेसरी पद्धति' (Montessori Method) नाम से एक पुस्तक भी प्रकाशित कराई। मान्तेसरी पद्धति धीरे-धीरे लोकप्रिय होती गई और यूरोप के अनेक देशों ने इस पद्धति को अपना लिया। इस पद्धति का प्रचार करने के लिए मैडम मेरिया मान्तेसरी ने यूरोप के कई देशों का भ्रमण किया। सन् 1939 ई० में वे भारतवर्ष भी आईं और थियोसॉफिकल सोसायटी के तत्वावधान में उन्होंने अपनी पद्धति पर भाषण दिये। मद्रास में उन्होंने मान्तेसरी संघ की एक शाखा भी स्थापित की। इण्डियन ट्रेनिंग कोचर्स इन्स्टीट्यूट, अदियार (मद्रास) की निर्देशिका का पद भी उन्होंने सुशोभित किया और अहमदाबाद में लगभग एक हजार व्यक्तियों को उन्होंने मान्तेसरी पद्धति में दीक्षित किया। तब से भारतवर्ष में उनकी पद्धति का बहुत प्रचार किया गया।
मेरिया मान्तेसरी के शिक्षा सिद्धान्त
(PRINCIPLES OF EDUCATION OF ACCORDING TO MARIA MONTESSORI)
शिक्षा के मनोवैज्ञानिक आधार का महत्त्व मान्तेसरी से पहले के शिक्षाशास्त्रियों ने भी स्वीकार किया है। रूसो ने इस बात पर बल दिया था कि शिक्षक को बालक का अध्ययन अवश्य करना चाहिए; किन्तु उसके सिद्धान्त में हम अतिवाद का दर्शन करते हैं। पेस्तालात्सी ने भी शिक्षा को मनोविज्ञानानुकूल बनाना चाहा था और उसने आनशांग का सिद्धान्त प्रतिपादित किया था। हरबार्ट ने पूर्व-प्रत्यक्ष तथा प्रत्यय के सिद्धान्तों को देकर शिक्षा-जगत का बड़ा उपकार किया था। मान्तेसरी रूसो के प्रकृतिवाद से प्रभावित थीं और पेस्तालात्सी के मनोविज्ञान के प्रति भी उनका आकर्षण था। उन्होंने पेस्तालात्सी के काम को आगे बढ़ाया और शिक्षण-पद्धति को नवीन मनोविज्ञान पर आधारित किया। मान्तेसरी के शिक्षा-सिद्धान्तों का संक्षेप में नीचे वर्णन किया जा रहा है
(1) स्वतन्त्रता-
रूसो की भाँति मान्तेसरी भी बालकों की पूर्ण स्वतन्त्रता के पक्ष में है। बालक क. व्यक्तित्व का विकास करने के लिए उसे अत्यधिक नियन्त्रण में नहीं रखा जा सकता। बालक को अपनी रुचि के अनुसार विकास करने की स्वतन्त्रता दी जानी चाहिए। सही शिक्षा प्राकतिक एवं स्वतन्त्र वातावरण में होती है। बालक की रुचि में अवरोध उत्पन्न करने से उसके विकास में बाधा पड़ती है। मान्तेसरी ने बालक की मूलप्रवृत्तियों एवं रुचियों को ही शिक्षा का आधार माना है। उसके अनुसार स्वतन्त्र वातावरण में शिक्षा देने का उद्देश्य-बालक में स्वावलम्बन, आत्मसम्मान आत्मविश्वास आदि गुणों को उत्पन्न करना है।
(2) वैयक्तिकता का विकास-.
मान्तेसरी के अनुसार शिक्षा विकास की एक प्रक्रिया है किन्तु यह विकास आन्तरिक होता है। उनके अनुसार शिक्षा का उद्देश्य बालक की वैयक्तिकता का विकास (Development of Individuality) करना है। मान्तेसरी ने बालक के प्राकृतिक विकास पर बल दिया। उनके अनुसार बालक जो कुछ आगे बनेगा, वह उसमें जन्म के समय ही बीज-रूप में निहित है। अतः शिक्षक का कार्य जन्म के समय उपस्थित शक्तियों के विकास का वातावरण प्रदान करना है।
(3) आत्म-शिक्षा-
डॉ० मान्तेसरी का कथन है कि सच्ची शिक्षा वह है जिसमें बालक अपनी आवश्यकता के अनुसार स्वयं सीखता है। अपने आप ज्ञान की खोज करने से ज्ञान का सच्चा रूप सामने आता है। इस सिद्धान्त द्वारा स्वानुभव के सिद्धान्त के महत्त्व को स्वीकार किया गया है। शिक्षक को अपनी ओर से कोई आज्ञा या निर्देश नहीं देना चाहिए। बालक जब अपने आप कुछ सीखता है आर अपनी उन्नति देखता है तो वह बहुत प्रसन्न होता है।
आत्म-शिक्षा के लिए मान्तेसरी ने कछ शैक्षिक यन्त्रों (DidacticApparatus) का निर्माण किया हा बालक को ये शैक्षिक यन्त्र दे दिये जाते हैं और वह उनसे खेलने लगता है। इन यन्त्रों को प्रबोधन यन्त्र कहा जा सकता है। जब बालक एक प्रकार के यन्त्र से खेलते-खेलते थक जाता है, तो उस छाड़ दता है। फिर वह दूसरे यन्त्र की ओर प्रेरित होता है। यह प्रेरणा उसकी आत्मा से ही मिलती है। अतः बालक बड़ी रुचि के साथ खेल खेलता है और आनन्दमय हो जाता है।
(4) ज्ञानेन्द्रिय प्रशिक्षण द्वारा शिक्षा-
मैडम मान्तेसरी के अनुसार ज्ञानेन्द्रिय की शिक्षा का अत्यधिक महत्त्व है। ज्ञान वस्तुतः ज्ञानेन्द्रियों पर ही आधारित होता है। यदि ज्ञानेन्द्रिय निर्बल हुई तो उस इन्द्रिय से प्राप्त ज्ञान भी सदोष होगा। इसलिए वे ज्ञानेन्द्रिय की शिक्षा पर विशेष बल देती हैं। मान्तेसरी के अनुसार तीन से सात वर्ष की अवस्था के बीच बालक की ज्ञानेन्द्रियाँ विशेष रूप में क्रियाशील रहती है। अतः इस अवस्था में ज्ञानेन्द्रियों के विकास पर अवश्य ध्यान देना चाहिए। यदि इस अवस्था में ज्ञानेन्द्रिय के विकास पर ध्यान न दिया गया तो साधारण बुद्धि बालक भी मन्द बुद्धि बालक बन जायेगा।
(5) कर्मेन्द्रियों की शिक्षा-
ज्ञानेन्द्रियों की भाँति कर्मेन्द्रियाँ भी मानव-जीवन के लिए आवश्यक हैं। शरीर के अंग सबल बनें, इसलिए यह आवश्यक है कि अंगों के सही संचालन की शिक्षा दी जाय। जब तक माँसपेशियों को नियन्त्रित नहीं किया जाता तब तक उसे अंग-संचालन में कठिनाई का अनुभव होगा। यदि माँसपेशियों को साधा न गया तो लिखना-पढ़ना, चलना-दौड़ना कठिन हो जायेगा । अतः प्रारम्भ में बालक की माँसपेशियों को साध लिया जाय । यदि बालक माँसपेशियों पर नियन्त्रण की क्षमता प्राप्त कर लेता है तो उसमें आत्म-निर्भरता आ जाती है।
(6) खेल द्वारा शिक्षा-
यह पहले ही कहा जा चुका है कि मान्तेसरी के अनुसार शिक्षा बालक की प्रकृति के अनुकूल होनी चाहिए। बालक की रुचि खेल में स्वभाव से होती है। बालक की सबसे प्रिय वस्तु खेल है, अतः प्रारम्भ में खेल द्वारा ही शिक्षा देना ठीक है। बालक को शैक्षिक यन्त्र दे दिये जायँ
और वह उनसे खेलने लगेगा। बालक के खेल में किसी प्रकार का हस्तक्षेप करना ठीक नहीं है। बालक शिक्षा-यन्त्रों से खेलता रहता है और खेल में ही वर्णमाला, गणित आदि विषय सीख जाता है। इन
उपकरणों की सहायता से उसकी ज्ञानेन्द्रियाँ भी विकसित होती चलती हैं।
(7)व्यक्तिगत आधार द्वारा शिक्षा-
मान्तेसरी व्यक्ति की वैयक्तिकता को शिक्षा का उद्देश्य बताती हैं। अतः वह शिक्षा को व्यक्तिगत आधार द्वारा देना चाहती हैं। प्रत्येक बालक को उसके स्वभाव के अनुसार शिक्षा देनी है। अतः समूह को शिक्षा देने से काम नहीं चलेगा। कुछ पाठ ऐसे अवश्य होते हैं जिनका सामूहिक शिक्षण लाभप्रद हो सकता है। सामूहिकता की भावना के उदय के लिए ऐसे पाठों का सामूहिक शिक्षण किया जा सकता है, किन्तु ऐसे समय में भी व्यक्तिगत ध्यान की उपेक्षा नहीं की जानी चाहिए।
(8) तार्किक अनुशासन का सिद्धान्त-
यदि बालक को स्वतन्त्रता दी जाय और उन्हें आत्म-शिक्षा के लिए प्रेरित किया जाय तो छात्रों में अनुशासनहीनता का प्रश्न ही नहीं उठेगा। अनुशासन बाहर से नहीं लाया जा सकता है। वह तो अन्तःप्रेरणा की वस्तु है। अतः छात्रों में उत्तरदायित्व की भावना भर देनी चाहिए जिससे वे अनुशासन के प्रति सजग हो जायें। बालक स्वयं ही अनुशासन स्थापित कर लेंगे। ऐसा अनुशासन तर्क पर आधारित होने के कारण अच्छा रहेगा।
(9) उपयुक्त वातावरण-अभीष्ट विकास के लिए शिक्षाप्रद वातावरण बहुत आवश्यक है। डॉ० मान्तेसरी ने बाल-गृहों (Children's Houses) को वास्तविक विद्यालय बताया है क्योंकि वहाँ पर बालक रचनात्मक कार्यों में जुटे रहते हैं और रचनात्मक कार्यों में आनन्द लेते हुए वे बहुत-सी बातें सीखना हैं। मान्तेसरी विद्यालयों में उपयुक्त वातावरण के निर्माण पर बहुत बल दिया जाता है।
मान्तेसरी शिक्षा-पद्धति
(MONTESSORI METHOD OF TEACHING)
मान्तसरी शिक्षा-पद्धति को हम निम्नलिखित तीन भागों में विभक्त कर सकते हैं
1. कर्मेन्द्रियों की शिक्षा,
2. ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा, और
3. भाषा की शिक्षा। इन्हें इसी क्रम में लें
(1) कर्मेन्द्रियों की शिक्षा-बाल-
गृह में सर्वप्रथम बालक की कर्मेन्द्रियों को प्रशिक्षित किया जा तानस सात वर्ष की आय के बालकों को अपना कार्य अपने आप करने के लिए प्रोत्साल जाता है। बाल-गृह का वातावरण ऐसा बना दिया जाता है कि बालक सभी काम अपने आप करता चलना-फिरना, उठना, हाथ-मुँह धोना, कपड़े पहनना व उतारना, मेज कुर्सी ठीक स्थान पर रख कमरा साफ करना व सजाना, वस्तुओं को सँभाल कर ठीक से रखना, भोजन बनाना, भोजन परोस बतन माजना आदि कार्य छात्र स्वयं करते हैं। इन कार्यों मंा बालक आनन्द लेता है और इस पर उसका कमेन्द्रियों का विकास हो जाता है। वह सभ्य बनता चलता है और बातचीत करना सीख जाता ह। बालकों के स्वास्थ्य एवं आयु के अनुसार व्यायाम भी कराया जाता है।
(2) ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा-
यह पहले ही कहा जा चुका है कि डॉ० मान्तेसरी ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा पर बड़ा बल देती थीं। उन्होंने ज्ञानेन्द्रियों की शिक्षा के लिए शैक्षिक उपकरणों का सहारा लिया है। बालक की चक्षु-इन्द्रिय को प्रशिक्षित करने के लिए उसे भिन्न-भिन्न रंगों की टिकिया दी जाती हैं और उससे एक बार में एक रंग की टिकियों को निकालने के लिए कहा जाता है। इस प्रकार उसको रंगों की पहचान हो जाती है। इसी प्रकार श्रवण-इन्द्रिय को प्रशिक्षित करने के लिए विभिन्न प्रकार की घन्टियाँ बजाई जाती हैं। स्पर्शेन्द्रिय के विकास के लिए रूमालों से भरा एक डिब्बा दिया जाता है। रूमाल चिकने, खुरदरे, मखमली, ऊनी होते हैं। इसी प्रकार घ्राणेन्द्रिय के विकास के लिए बोतलें दी जाती हैं, जिनमें गन्धयुक्त द्रव होता है। स्वादेन्द्रिय को प्रशिक्षित करने के लिए नमक, चीनी, चाय आदि की शीशियाँ दी जाती हैं। ज्ञानेन्द्रियों के विकास के लिए मान्तेसरी ने अनेक प्रकार के उपकरणों का प्रयोग किया है, उदाहरणार्थ, कुछ का नाम नीचे दिया जा रहा है
1. छेदों वाला तख्ता-एक बक्स में भीतर के तख्ते पर भिन्न-भिन्न माप के छेद बने होते हैं। इसी बक्स में भिन्न नाप के गुटके भी होते हैं। बालक गुटकों को छेदों में बैठाने की कोशिश करता है।
2.बेलनाकार-छोटे-बड़े कई बेलन (सिलेण्डर) होते हैं और बालक इन्हें क्रम से लगाता है।
3 घन (Cubes)-छोटे-बड़े घन होते हैं और बालक इनसे खेलता है तथा इन्हें सजाता है।
4. आयताकार टुकड़े-बालक इनसे सीढ़ी बनाता है।
5. भिन्न रंगों की टिकियाँ-बालक इनसे रंगों की पहचान करता है।
6. लकड़ी के अक्षर-इन पर हाथ फेरकर बालक लिखना सीखता है। सहारे बालक स्पर्शेन्द्रिय का विकास करता है।
7 लकड़ियाँ तथा टिकियाँ-चिकनी, खुरदरी, भारी, हल्की लकड़ियाँ व टिकियाँ होती हैं जिनके इसी प्रकार के अनेक उपकरण है जिनसे बालक की ज्ञानेन्द्रियों का विकास किया जाता है। एक समय में एक ही ज्ञानेन्द्रिय के विकास पर ध्यान केन्द्रित करने को अच्छा बताती हैं।
(3) भाषा की शिक्षा-
इस सन्दर्भ में मान्तेसरी के सिद्धान्त का निष्कर्ष यह है कि बालक को पहले सीखना चाहिए उसके बाद पढ़ना। लिखते -लिखते बालक पढ़ना तो अपने आप सीख जाता है। लिखना पहले बालक की मांसपेशियों का साधना आवश्यक है। अतः शैक्षिक उपकरणों की सहायता लक हाथ और आँख में समन्वय करना और अंगों का उचित संचालन करना सीखता है। इस
म या पेंसिल पकड़ना सीख जाता है। लिखना सीखने के लिए बालक लकड़ी अथवाग प्रकार वह कलम या पेंसिल पकड़ना सीख जाता है। लिखना अधरों पर उँगली फेरता है। उगला फरने के समय अध्यापिका अक्षर का उच्चारण करता कार बालक उस अक्षर का उच्चारण करना भी सीख जाता है।
मान्तेसरी विद्यालय
MONTESSORI SCHOOL
मान्तेसरी विद्यालय में 3 वर्ष से 7 वर्ष तक के बालक शिक्षा ग्रहण करते हैं। इसमें बालकों को खेल द्वारा शिक्षा दी जाती है। इसलिए खेल के लिए विद्यालय में काफी बड़ा मैदान होता है जिसमें बालक खुले वातावरण में खेल सकते हैं। बच्चों के बैठने के लिए छोटी-छोटी कुर्सियाँ तथा मेजें होती हैं जिन पर बालक बैठकर कभी कभी खेल भी खेलते हैं। मैदान में कुछ कम्बल बिछा दिये जाते हैं जिन पर बैठकर बालक खेलते हैं। चाय पीने के लिए छोटे-छोटे कप तथा प्लेटें होती हैं। 'टी पॉट' से बच्चे चाय परोसते हैं और इतनी सावधानी बरतते हैं कि जरा भी चाय नहीं गिरती है। कोई खाद्य या पेय पदार्थ मेजपोश पर भी नहीं गिरता है। विद्यालय में एक बड़ा कमरा और कई छोटे-छोटे कमरे होते हैं। बड़े कमरे में पढ़ाई होती है और छोटे कमरों में खाना बनाना, व्यायाम आदि होते हैं। विद्यालय में सभी सामान बच्चों की सुविधा के अनुसार एकत्र किया जाता है। सभी चीजें छोटी-छोटी रहती हैं ताकि बच्चे वरपर सामान का उठाकर ले जा सकें। बड़े कमरे में कई छोटे सन्दक होते हैं जिनमें शिक्षा के उपकरण रखे होते हैं। श्यामपट पर छात्र चित्र भी बनाया करते हैं। इस विद्यालय की कुछ अन्य प्रमुख बातें निम्नलिखित हैं
1. शिक्षक एक योग्य निर्देशक होता है। शिक्षक को यह जानकारी होती है या होनी चाहिए कि उसे कब हस्तक्षेप करना है और कब नहीं करना।
2. बालक को किसी समय किसी आवश्यकता की चेतना तीव्र रूप में होती है। ऐसे क्षण को मान्तसरा न मनोवैज्ञानिक क्षण' (Psychological Moment) कहा है। इस क्षण का उपयोग करना बहुत आवश्यक है। मान्तेसरी विद्यालय में इस मनोवैज्ञानिक क्षण का उपयोग किया जाता है।
3. मान्तेसरी विद्यालय में बालक को पूर्ण स्वतन्त्रता रहती है।
4. बुद्धि से अधिक इन्द्रियों पर ध्यान दिया जाता है।
5. बच्चों को व्यक्तिगत रूप से प्रशिक्षित किया जाता है।
6. स्पर्श की संवेदना मौलिक संवेदना है अतः इसका सर्वाधिक ध्यान रखा जाता है।
7. कोई कठोर समय विभाग-चक्र (Time-table) नहीं होता।
8. कोई पुरस्कार नहीं दिया जाता। विकास ही पुरस्कार है।
9. शैक्षिक उपकरणों के सहारे शिक्षा दी जाती है।
10. रूसो और स्पेन्सर की आत्म-शिक्षा पर अनुगमन होता है।
शिक्षक का स्थान
(PLACE OF TEACHER)
(PLACE OF TEACHER)
जैसा पहले कहा जा चुका है कि मांटेसरी पद्धति के अनुसार बालक को इकाई माना गया है। उसके व्यक्तित्व के विकास के लिये उसे पूर्ण स्वतन्त्रता दी जाती है। बालक अपने समयानुसार अपनी रुचि तथा योग्यतानसार काम करता है। इस पद्धति में स्वःशिक्षा में बल दिया जाता है। सम्भवतः इस बात से किसी को यह भ्रम हो सकता है कि इस प्रकार की पद्धति में शिक्षक का क्या कार्य रह जाता है। वह तो केवल एक निरीक्षक की भाँति कार्य करती होंगी ? नहीं। यह विचार सर्वथा निर्मल है। वास्तव में, मांटेसरी पद्धति में शिक्षक का स्थान बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चाहे हम कितना ही प्रयत्न करें विद्यालय में सर्वथा एक कृत्रिम वातावरण रहेगा। शिक्षक का काम इस कत्रिम वातावरण में अच्छी तथा बुरी बातों का चुनाव करना सदा ही रहेगा। इसलिए मांटेसरी पद्धति में शिक्षक के महत्त्व को कम नहीं किया जा सकता है।
दूसरी बात यह है कि मांटेसरी पद्धति में बालक को शिक्षा के लिए स्वतन्त्रता अवश्य दी जाती है परन्तु इसके साथ-साथ उसकी स्वतन्त्रता नियन्त्रण से मुक्त नहीं होती। उदाहरण के रूप में वह लकड़ी के तख्ते में बने हुए छेदों में अपनी इच्छानुसार गुटके बैठाता है परन्तु यहाँ उसकी स्वतन्त्रता में नियन्त्रण इस प्रकार लगा है कि उसे एक छेद में उसके उपयुक्त ही गुटका बैठाना होता है। निश्चय ही
-शास्त्री ऐसा करने में बालक को कठिनाइयाँ होती हैं और उसे सहायता की आवश्यकता होती है। शिक्षा अथवा डाइरैक्ट्रिस ऐसी परिस्थिति में एक सक्रिय निरीक्षक का कार्य करती है। जहाँ तक बालक अपनी इच्छानुसार सही कार्य करता जाता है वहाँ तक डाइरैक्ट्रिस व्यर्थ का हस्तक्षेप नहीं करती परन्तर बालक की सहायता की आवश्यकता होती है वह सहायता प्रदान करने में विलम्ब नहीं करती। प्रकार एक सक्रिय निरीक्षक की भाँति वह बालक के लिए पथ-प्रदर्शक का कार्य करती रहती है।
डाइरैक्ट्रिस का कार्य विद्यालय में ऐसा वातावरण उत्पन्न करना होता है जिससे बालकों को नवीन ज्ञान ग्रहण करने के लिए प्रेरणा मिल सके और उनकी प्रवृत्तियाँ कला तथा विज्ञान की ओर जागति हो सकें। यही नहीं डाइरैक्ट्सि को वातावरण उत्पन्न करने के पश्चात् उनकी प्रवृत्तियों को उचित दिशा में माड़ने के लिये पथ-प्रदर्शन भी करना होता है। उसे बालकों के सम्मुख ऐसी परम्परा का उदाहरण प्रस्तत करना होता है जिसके अनुकरण से बालकों में श्रम तथा अध्यवसाय के प्रति श्रद्धा उत्पन्न हो सके।
डाइरेक्ट्रिस का कार्य न केवल बालक का बौद्धिक विकास ही करना है बल्कि उसका चारित्रिक तथा नैतिक विकास भी करना है। यह ठीक है कि बालक में अच्छे गुण स्वाभाविक रूप से होते हैं। परन्तु वातावरण की बुराइयों से उसमें नैतिक पतन होने की भी सम्भावना रहती है। ऐसी परिस्थिति में शिक्षक की सहायता नितान्त आवश्यक है।
मान्तेसरी एवं किण्डरगार्टन पद्धतियों की तुलना
(COMPARISON BETWEEN MONTESSORI AND KINDERGARTEN METHODS)
फ्रोबेल के शिक्षा-सिद्धान्तों पर हम पीछे विचार कर चुके हैं। फ्रोबेल ने रहस्यवाद का सहारा लिया है। उसके गिफ्ट' और 'आकूपेशन्स' में प्रतीकवाद का बोलबाला है। उसने किण्डरगार्टन पद्धति को जन्म दिया है। किण्डरगार्टन पद्धति छोटे बच्चों के लिए है तथा मान्तेसरी पद्धति भी छोटे बच्चों के लिए है। अतः दोनों पद्धतियों की तुलना की जिज्ञासा स्वाभाविक ही है। यहाँ पर हम संक्षेप में कुछ समान एवं असमान बातों की ओर संकेत करेंगे। पहले समानता को लें और उसके बाद भिन्नता को
समानता
1. दोनों पद्धतियों में जिन बालकों को शिक्षा दी जाती है उनकी आयु 3 से 7 वर्ष के बीच में होती है।
2. दोनों में बालक की इन्द्रियों के विकास को प्रधानता दी गई है।
4 दोनों में बालक की आन्तरिक शक्तियों के विकास का ध्यान रखा जाता है।
4 दोनों में दृश्य-श्रव्य साधन का प्रयोग किया जाता है। एक में शैक्षिक उपकरण हैं तो दूसरे में उपहार ।
5. दोनों में बालकों को स्वतन्त्र वातावरण प्रदान किया जाता है।
6. दोनों में शिक्षक का स्थान निर्देशक का होता है, न कि अधिनायक का।
भिन्नता-
1. मान्तेसरी पद्धति वैयक्तिक है जबकि किण्डरगार्टन पद्धति सामाजिक है।
2. किण्डरगार्टन में कभी-कभी उपहार के बिना भी शिक्षा हो सकती है किन्तु मान्तेसरी विधि में शैक्षिक उपकरणों के बिना कार्य नहीं चल सकता।
3 फ्राबल क उपहार सरलता स मिल जाते है जबकि मान्तेसरी के यलों किया जाता है।
किण्डरगार्टन में खेल, गति तथा संगीत के विकास के अधिक अवसर हैं किन्त मान्तेसरी पद्धति में नहीं।
5. मान्तेसरी पद्धति में पहले लिखना सिखाया जाता है किन्तु किण्डरगार्टन पद्धति में सिखाया जाता है।
मान्तेसरी पद्धति का मूल्यांकन
(EVALUATION OF MONTESSORI METHOD)
मान्तेसरी पद्धति का मूल्यांकन
अब मान्तेसरी पद्धति के गुण-दोषों पर भी विचार कर लेना उपयुक्त होगा। इस विचार में पहले गुणों की ओर देखें।
गुण-
1. डॉ० मान्तेसरी की पद्धति वैज्ञानिक है। वे अनुभव और निरीक्षण पर बल देती हैं।
2 उपकरणों द्वारा शिक्षा देने का उनका विचार सराहनीय है।
3. छोटी उम्र के बच्चों के लिए यह विधि बड़ी उपयुक्त है क्योंकि बच्चों को वस्तुओं के प्रयोग में आनन्द मिलता है।
4. डॉ० मान्तेसरी व्यक्ति की महानता में विश्वास करती थीं और उनकी पद्धति में व्यक्तित्व के पर्ण विकास पर ध्यान दिया जाता है।
5. वे ज्ञानन्द्रियों की शिक्षा पर अधिक बल देती हैं। निस्सन्देह ज्ञानेन्द्रियों के मस्तिष्क का विकास होता है।
6. उनका अनुशासन का विचार भी श्रेष्ठ है। उनके अनुसार बाहर से नहीं लादा जाता वरन् अन्दर से विकसित किया जाता है।
7. मान्तेसरी आत्म-शिक्षा पर बल देती हैं। बालक स्वयं की सीखी हुई बातों में रुचि लेता है। 8. लिखने की शिक्षा देने का उनका ढंग बालकों के विकास के स्वरूप के अनुकूल है। 9. बालकों को खेल बड़ा प्रिय होता है। मान्तेसरी पद्धति में खेल द्वारा शिक्षा दी जाती है।
दोष-
1. विलियम किलपैट्रिक (Kilpatrick) का कहना है कि इस पद्धति में बालक के व्यक्तित्व के विकास पर बल दिया जाता है, किन्तु उसके सामाजिक विकास पर यथोचित ध्यान नहीं दिया जाता अतः विकास एकांगी होगा।
2. स्टर्न (Stern) महोदय का कहना है कि शैक्षिक उपकरणों से बुद्धि का एकांगी विकास होता है। रंग, रूप, ध्वनि पर अलग-अलग बल देने से मस्तिष्क के स्वाभाविक विकास में बाधा पड़ती है।
3. स्प्रंगर (Spranger) महोदय का कहना है कि मान्तेसरी पद्धति में काल्पनिक खेलों की उपेक्षा की गई है। बालकों की असन्तुष्ट मूलप्रवृत्तियों का रेचन (Catharsis) इन्हीं काल्पनिक खेलों से होता है। इस रेचन के अभाव में भावना-ग्रन्थियों के बनने का भय होता है।
4. हेसन (Hessen) का कहना है कि मान्तेसरी पद्धति में खेल के वास्तविक सिद्धान्त का अभाव है। खेल, खेल के लिए हो, तभी वह खेल होगा, अन्यथा कार्य हो जायगा।
5. मान्तेसरी पहले लिखना सिखाना चाहती हैं। यह प्रश्न विवादास्पद है।
6. जिस विधि से लिखना सिखाने के कार्य की योजना मान्तेसरी पद्धति में होती है, वह वैज्ञानिक होते हुए भी मनोवैज्ञानिक नहीं कही जा सकती है। वर्ण तथा अक्षरों से न चलकर वाक्य से चलना गेस्टाल्ट मनोविज्ञान के अनुसार अधिक उपयुक्त है।
7. इस पद्धति में केवल एक ही ज्ञानेन्द्रिय की एक बार शिक्षा दी जाती है। ज्ञानेन्द्रियों की पथक शिक्षा 'शक्ति-मनोविज्ञान' (Faculty Psychology) पर आधारित समझ पड़ती है। किन्तु शक्ति-सिद्धान्त का मनोविज्ञान में अब परित्याग हो चुका है।
8. कहने को तो इस पद्धति में पूर्ण स्वतन्त्रता है किन्तु एक समय में एक उपकरण को लेकर बालक की स्वतन्त्रता को हम सीमित कर देते हैं।
9. इस पद्धति द्वारा बालक में सामाजिक गुणों का विकास नहीं हो पाता है।
10. इस पद्धति में समय बहुत नष्ट होता है।
11. यह पद्धति अधिक खर्चीली है अतः गरीब समाज में कठिनता से लाग हो पाती है।
12. इस पद्धति में बालक से कुछ तो ऐसे कार्य कराये जाते हैं जो उसकी अवस्था के अनक नहीं कहे जा सकते।
इन दोषों के होते हए भी मान्तेसरी की देनों को शिक्षा-जगत् भुला नहीं सकता है। पर्व-प्राथमिक स्तर पर बच्चों की शिक्षा की एक स्पष्ट एवं वैज्ञानिक पद्धति प्रदान करके डॉ० मेरिया मान्तेसरी ने शिक्षा-संसार पर बड़ा उपकार किया है। भारत में आकर उन्होंने स्वय कुछ भारतीय शिक्षकों को अपनी विधि में दीक्षित किया। इसलिए भारत में पूर्व-प्राथमिक स्तर पर किण्डरगार्टन से अधिक मान्तेसरी विद्यालय हैं।