शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास
Emotional Development During Infancy
शैशवावस्था में संवेगात्मक विकास
Emotional Development During Infancy
मानव जीवन में संवेगों का महत्वपूर्ण स्थान होता है । मनोवैज्ञानिकों के अनुसार सभी संवेग जन्मजात नहीं होते हैं वरन् उनका विकास धीरे-धीरे होता है। प्रारम्भ में शिशु की संवेगात्मक प्रतिक्रियायें सामान्य उत्तेजना मात्र होती है। धीरे-धीरे उसमें भय, क्रोध, हर्ष आदि संवेगों का उदय होने लगता है। शैशवावस्था में शिशु के संवेगात्मक विकास के सम्बध में निम्नांकित बाते उल्लेखनीय हैं
(1) शिशु जन्म के समय से ही संवेगात्मक व्यवहार की अभिव्यक्ति करता है। शिशु का रोना, चिल्लाना तथा हाथ-पैर पटकना आदि शिशु के संवेगात्मक व्यवहार को परिलक्षित करते हैं।शिशु का संवेगात्मक व्यवहार अत्यधिक अस्थिर होता है। इच्छापूर्ति में व्यवधान उत्पन्न होने पर उसमें संवेगात्मक उत्तेजना होती है तथा इच्छा के पूर्ति के साथ ही उसकी उत्तेजना समाप्त हो जाती है । रोता हुआ शिशू खिलौने, दूध अथवा खिलौना मिलते ही रोना बंद करके हँसना प्रारम्भ कर देता है। आयु के बढ़ने के साथ संवेगात्मक व्यवहार में स्थिरता आने लगती है।
(3) शिशु की संवेगात्मक अभिव्यक्ति धीरे-धीरे परिवर्तित होती जाती के के बढ़ने के साथ ऋणात्मक संवेगो की तीव्रता में कमी आती है, जबकि धनात्मक की तीव्रता में बढ़ोत्तरी होती है।
(4) प्रारम्भ में शिशु के संवेग अस्पष्ट होते हैं परंतु धीरे-धीरे उसके संवेगों में स्पष्टता आने लगती है।
(5) लगभग दो वर्ष की आयु तक शिशु में लगभग सभी संवेगों का विकाश हो जाता है
(6) फायड के अनुसार छोटे शिशु में आत्मप्रेम अर्थात् नारीसिज्म (Naricissim) की भावना होती है । उसके अनुसार चार-पाँच वर्ष के बालक में मातृ प्रेम या पितृ विरोधी भावना पंथि (Oedipus Complexiका विकास हो जाता है, जबकि चार-पाँच वर्ष की बालिका में पित प्रेम या मातृ विरोधी भावना Complex) विकसित हो जाती है।
शैशवावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास के अवलोकन से स्पष्ट है कि शिशु का संवेगात्मक व्यवहार उसकी आयु बढ़ने के साथ-साथ निश्चित तथा स्पस्ट होता जाता है |
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