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ब्रूनर के सिद्धान्त के शैक्षिक निहितार्थ | Bruner Ke Siddhant Shaikshik Nihitarth | Bruner’s Cognitive Development Theory

 ब्रूनर के सिद्धान्त के शैक्षिक निहितार्थ 

Bruner Ke Siddhant Shaikshik Nihitarth 


ब्रूनर के द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास का सिद्धान्त शिक्षा और मनोविज्ञान के क्षेत्र में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। इस सिद्धान्त के शैक्षिक परिस्थितियों में अग्र निहितार्थ हैं 


 ब्रूनर का यह मानना था कि विद्यार्थियों से यह कभी भी आशा नहीं की जानी चाहिए  कि वे किसी सुनी हुई, पढ़ी हुई या अवलोकित की सामग्री को हूबहू दोहराने या प्रस्तुत  करने का प्रयत्न करें अपित विद्यार्थियों के सामने ऐसी परिस्थितियाँ सृजित की जानी  चाहिए कि विद्यार्थी उनमें स्वायत्त पूर्ण ढंग से क्रिया करने हेतु प्रोत्साहित एवं अभिप्रेरित हो सकें। विद्यार्थी में इस प्रवृत्ति को विकसित किया जाना चाहिए कि वे ज्ञान प्राप्ति की उपलब्धि को प्राप्त करने की अपेक्षा ज्ञान प्राप्ति हेतु प्रयुक्त की गई प्रक्रिया को जानने और समझने पर अधिक ध्यान दें। इस सन्दर्भ में ब्रूनर ने कहा है कि बच्चों को ज्ञान प्रदान करने की अपेक्षा ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया तथा उसमें भाग लेने के प्रयत्नों और चीजों को जानने और समझने के प्रयत्नों आदि पर शिक्षा प्रक्रिया को अधिक केन्द्रित होना चाहिए। विद्यार्थियों में यह भावना भी जाग्रत की जानी चाहिए कि ज्ञान एक प्रक्रिया है. परिणाम नहीं। 


 ब्रूनर ने अपने संज्ञानात्मक सिद्धान्त में खोजपूर्ण अधिगम पर विशेष बल दिया। खोजपूर्ण अधिगम के संप्रत्यय से आशय यह था कि विद्यार्थी को कुछ बताने या अधिगम कराने की अपेक्षा उसे स्वयं के लिए खोजपूर्ण अधिगम द्वारा ज्ञान संरचना के अवसर दिए जाने से है। ब्रूनर के अनुसार शिक्षक को अधिगम प्रक्रिया को सहज बनाना चाहिए । इसमें विद्यार्थी को अधिगम या पाठ विकास हेतु आवश्यक सूचनाओं को बिना व्यवस्थित स्वरूप के प्रदान किया जाना चाहिए। जिससे उन्हें स्वयं करने व सीखने तथा ज्ञान संरचना निर्माण के अवसर प्राप्त हो सकें तथा अधिगम प्रक्रिया में उनकी सक्रिय भूमिका बनी रहे। 


 ब्रूनर ने अपने संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त में शिक्षकों के माध्यम से अनुदेशन प्रक्रिया को प्रभावशाली, ग्रहणशील एवं रुचिपूर्ण बनाने हेतु चार अपेक्षाएँ रखते हैं -

(i) अधिगम के लिए विद्यार्थियों को तत्पर करना-

(ii) ज्ञान को व्यवस्थित या संरचित करना-

(iii) विषय या अधिगम सामग्री का क्रमबद्ध प्रस्तुतीकरण-

(iv) उचित पुनर्बलन प्रदान करना-


(i) अधिगम के लिए विद्यार्थियों को तत्पर करना-

शिक्षक को किसी भी विषय या प्रकरण का शिक्षण आरम्भ करने से पूर्व विद्यार्थियों में शिक्षण पाठ या प्रकरण के प्रति रुचि, इच्छा तथा उसे ग्रहण करने या समझने के लिए अभिप्रेरणा प्रदान करने से है जिससे विद्यार्थियों में अधिगम हेतु तत्परता विकसित की जा सकें। 

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(ii) ज्ञान को व्यवस्थित या संरचित करना-

शिक्षण विषयवस्तु या सामग्री के फलस्वरूप प्रदान किए जाने वाले ज्ञान या अनुभव को प्रभावशाली प्रकार से व्यवस्थित या संरचित होना चाहिए ताकि विद्यार्थी ज्ञान या अनुभव को भली-भाँति समझ या ग्रहण कर सके तथा उन्हें अनुप्रयोग में लाने के लिए सुविधाजनक हो। यह अपने आप में यथार्थ सत्य है कि विद्यार्थी को किसी विषय विशेष से सम्बन्धित सभी पक्षों का ज्ञान एक साथ नहीं हो सकता है। शिक्षक का प्रयास इतना होना चाहिए कि विद्यार्थी अपने स्तर व अवस्था के अनुकूल विषय या प्रकरण से सम्बन्धित आधारभूत ज्ञान या अनुभव सरचना जान व समझ सके। शिक्षक से यह अपेक्षा रहती है कि वह प्रकरण या पाठ का व्यवस्थापन या संरचना इस प्रकार करे कि विद्यार्थी सहजतापूर्वक अपनी समझ आर अनुभव संरचनाओं को विकसित कर सकें। 


(iii) विषय या अधिगम सामग्री का क्रमबद्ध प्रस्तुतीकरण-

कोई भी नया पाठ या प्रकरण तभी विद्यार्थी के लिए प्रभावशाली तथा रुचिपूर्ण हो सकता है जब वह विद्यार्थी पूर्ववर्ती ज्ञान व अनुभव संरचनाओं के संज्ञानात्मक विकास के परिप्रेक्ष्य में या ध्यान में रखते हुए विकसित किया गया हो। इसलिए शिक्षक से यह अपेक्षा की जाती है कि वह किसी विषय या अधिगम सामग्री का क्रमबद्ध प्रस्तुतीकरण इस प्रकार नियोजित करे कि वह विद्यार्थी के पूर्ववर्ती संज्ञानात्मक विकास से सम्बन्धित रहे। विषयवस्तु या अधिगम प्रस्तुतीकरण क्रमिक रूप से  ब्रूनर के तीन स्तरों के अनुरूप हो अर्थात् पहले स्तर पर स्थूल वस्तुओं व अनुभव के रूप में, दूसरे स्तर में मानसिक बिम्बों के रूप में और तीसरे स्तर पर प्रतीकों या संकेतों के माध्यम से चिन्तन प्रवृत्ति विकसित करने वाला होना चाहिए। 


(iv) उचित पुनर्बलन प्रदान करना-


 ब्रूनर ने अपने संज्ञानात्मक सिद्धान्त द्वारा यह विचार रखा कि विद्यार्थियों के अधिगम सफलता के प्रतिफलस्वरूप पुनर्बलन प्रदान करने सम्बन्धी तकनीकी में शिक्षक को प्रवीण एवं दक्ष होना चाहिए । पुनर्बलन प्रदान करते समय बाह्य पुनर्बलन की अपेक्षा आन्तरिक पुनर्बलन प्रदान करने की चेष्टा करनी चाहिए । ब्रूनर का मानना था कि पारितोषिक एवं सजा या दण्ड के रूप में प्रदान किए जाने वाले बाह्य पुनर्बलक विद्यार्थियों में स्वतन्त्र रूप से चिन्तन करने, कार्य करने एवं समस्या समाधान करने की प्रवृत्ति के समुचित विकास तथा प्रकटन में बाधा डालने का कार्य करते हैं क्योंकि इनके माध्यम से शिक्षक निश्चित परिपाटी में अधिगम को करवाना चाहते हैं या उनकी पुनरावृत्ति अपेक्षित रखते हैं। इससे विद्यार्थियों की सृजनात्मक योग्यताओं के विकास के अवसर समाप्त हो जाते हैं।


 ब्रूनर के द्वारा प्रतिपादित संज्ञानात्मक विकास के सिद्धान्त ने शिक्षण एवं अनुदेशन के विषय में व्यापक दृष्टिकोण का विकास किया । इनके सिद्धान्त के विषय में कहा जाता है कि यह वर्णनात्मक या उपचारात्मक होने के साथ-साथ नियामक या मानक भी है। इसे वर्णनात्मक या उपचारात्मक इसलिए कहा जाता है क्योंकि यह अनुदेशन उद्देश्यों की प्रभावपूर्ण सम्प्राप्ति के लिए विभिन्न नियमों एवं मान्यताओं का वर्णन कर इन्हें उपचारात्मक तरीके से प्रयोग में लाने के अवसर उपलब्ध कराता है और नियामक या मानक इसलिए स्वीकार किया जाता है क्योंकि यह शिक्षकों के लिए शिक्षण-अधिगम परिस्थितियों में परिमार्जन हेतु मानक एवं मानदंड स्थापित करने का प्रयास करता है जिनके अनुपालन से शिक्षण-अधिगम प्रक्रिया को उद्देश्यपूर्ण एवं सहज बनाया जाता है। इन्होंने अपने सिद्धान्त में प्रमुख रूप से विद्यार्थियों को स्वतन्त्र अध्ययन, कार्य व क्रिया करने, खोज करने तथा समस्या समाधान करने सम्बन्धी योग्यताओं और क्षमताओं के विकास को प्राथमिकता दी है। 


 ब्रूनर के सिद्धान्त
 के विश्लेषण से शिक्षकों के मार्गदर्शन के लिए निम्न दिशा-निर्देश ग्रहण किए जा सकते हैं |


(1) विद्यार्थियों की स्वाभाविक रुचियों एवं जिज्ञासा शैली को उपयोग में लेते हुए शिक्षण नियोजित करने का प्रयास किया जाए। 


(ii) परम्परागत शिक्षण प्रवृत्तियों के स्थान पर नूतन शिक्षण प्रवृत्तियों को अधिक प्रयोग में लाया जाए। इसमें यह ध्यान रखा जाए कि विद्यार्थियों को स्वतन्त्र रूप से कार्य करने, खोज करने, चिन्तन करने, अधिगम करने तथा ज्ञान व अनुभव प्राप्त करने के अवसर उपलब्ध हों। 


(ii) शिक्षण-अधिगम परिस्थितियों तथा संसाधनों का आयोजन एवं नियोजन इस प्रकार का होना चाहिए कि अधिगम उद्देश्यों की पूर्णता की सार्थकता के साथ साथ विद्यार्थियों में अधिगम हेतु तत्परता, उत्सुकता, जिज्ञासा तथा अभिप्रेरणा बनी रहे। 


(iv) शिक्षक को शिक्षण द्वारा सब कुछ बता देने या ज्ञान परोसने या रटाने या सुनाये गए या पढाए गए विचारों तक सीमित रहने की परिपाटियों से मुक्त होना होगा तभी वह विद्यार्थियों के लिए संज्ञानात्मक विकास का आधार प्रदान कर पाएगा। 


(v) शिक्षकों को ज्ञान प्रदान करने की अपेक्षा ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया के सम्बन्ध में उचित मार्गदर्शन विद्यार्थियों को दिया जाना चाहिए। 


(vi) शिक्षकों को विद्यार्थी को अधिगम समाप्ति या वांछित परिणाम प्राप्त होने पर पुनर्बलन अवश्य देना चाहिए । बाह्य पुनर्बलन की अपेक्षा आन्तरिक पुनर्बलन अधिक प्रयोग में लाया जाना चाहिए। 

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