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VRIDHI AEVM VIKAS KE SIDHANT NOTES | वृद्धि तथा विकास के सिद्धान्त नोट्स Principles of Growth and Development Notes


वृद्धि तथा विकास के सिद्धान्त 
Principles of Growth and Development


वृद्धि तथा विकास के सम्बन्ध में मनौवैज्ञानिकों के द्वारा अनेक अध्ययन किए गए हैं। इन अध्ययनों से सिद्ध हो गया है कि वृद्धि तथा विकास के फलस्वरूप आने वाले परिवर्तनों में पर्याप्त निश्चित सिद्धान्तों का अनुकरण करने की प्रवृत्ति पाई जाती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि वृद्धि तथा विकास की प्रक्रिया कुछ निश्चित सिद्धान्तों का अनुपालन करती है। इन सिद्धान्तों को वद्धि तथा विकास के सामान्य सिद्धान्तों के नाम से पुकारा जाता है। शिक्षा मनोविज्ञान के अध्ययनकर्ता के लिए वृद्धि तथा विकास की प्रक्रिया को संचालित करने वाले सिद्धान्तों को जानना अत्यंत आवश्यक तथा महत्वपूर्ण होगा। वृद्धि तथा विकास के कुछ प्रमुख सिद्धान्त निम्नवत् हैं 


1. निरन्तरता का सिद्धान्त (Principle of Continuity) 


2. व्यक्तिगतता का सिद्धान्त (Principle of Individuality)


3.परिमार्जितता का सिद्धान्त (Principle of Modifyability) 


4. निश्चित तथा पूर्वकथनीय प्रतिरूप का सिद्धान्त (Principle of Definite and Predictable Pattern


5. समान-प्रतिमान का सिद्धान्त (Principle of Uniform Pattern) 


6. समन्वय का सिद्धान्त (Principle of Integration)


7. वंशानुक्रम तथा वातावरण की अंतःक्रिया का सिद्धान्


त (Principle of Interaction between Heredity and Enviornment)



1. निरन्तरता का सिद्धान्त 

(Principle of Continuity) 


निरन्तर विकास के सिद्धान्त के अनुसार वृद्धि तथा विकास की प्रक्रिया निरन्तर अविराम गति से चलती रहती है। कभी यह मन्द गति से चलती है तथा कभी तीव्र गति से चलती है । वृद्धि तथा विकास की प्रक्रिया में समग्रता का भाव निहित रहता है। वृद्धि तथा विकास को अलग-अलग सोपानों में नहीं बाँटा जा सकता है। उदाहरणार्थ, प्रारम्भिक वर्षों में वृद्धि तथा विकास की प्रक्रिया अत्यंत तीव्र रहती है और उसके बाद के वर्षों में धीमी हो जाती है, परंतु विकास प्रक्रिया अनवरत लगातार चलती रहती है। निरन्तर विकास के सिद्धान्त से यह निष्कर्ष निकलता है कि वद्धि तथा विकास में कोई आकस्मिक परिवर्तन नहीं होता है। 


2. व्यक्तिगतता का सिद्धान्त

 (Principle of Individuality)-


विकास की व्यक्तिगतता का सिद्धान्त बताता है कि भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के विकास की गति भिन्न-भिन्न होती है। दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपनी गति से विकास करता है। एक ही आयु के दो बालकों में शारीरिक, मानसिक, सामाजिक अथवा चारित्रिक आदि विभिन्नताओं का होना विकास की व्यक्तिगतता को इंगित करता है। यही कारण है कि आयु के समान होने पर भी बालक परस्पर भिन्न होते है |



3.परिमार्जितता का सिद्धान्त 

(Principle of Modifyability) 


विकास की परिमार्जित का सिद्धान्त यह बताता है कि विकास की गति तथा दिशा में परिमार्जन सम्भव होता है । दूसरे शब्दों में कहा जा सकता है कि प्रयासों के द्वारा विकास की गति को वांछित दिशा की ओर तथा तीव्र गति से उन्मुख किया जा सकता है। विकास का यह सिद्धान्त शैक्षिक दृष्टि से अत्यंत उपयोगी माना जाता है । शिक्षा प्रक्रिया के द्वारा बालक के विकास को वांछित दिशा में अधिक तीव्र गति से अग्रसर करने का प्रयास किया जाता है |


4. निश्चित तथा पूर्वकथनीय प्रतिरूप का सिद्धान्त (Principle of Definite and Predictable Pattern)


 प्रत्येक प्रजाति, चाहे वह पशु प्रजाति हो अथवा मानव प्रजाति, के विकास का एक निश्चित प्रतिरूप होता है जो उस प्रजाति के समस्त सदस्यों के लिए सामान्य होता है तथा उस प्रजाति के समस्त सदस्य उस प्रतिरूप का अनुसरण करते है । यद्यपि किसी भी प्रजाति के सदस्यों में परस्पर व्यक्तिगत भिन्नताएँ पाई जाती परन्तु  ये भिन्नताएँ बहुत कम होती हैं तथा उस प्रजाति की सामान्य प्रवृत्ति (General Trend) को प्रभावित नहीं कर पाती हैं। व्यक्तियों के किसी समूह के विकास का अनेक वर्षों तक अवलोकन करने पर विकास के विभिन्न पक्षों के विकासात्मक प्रतिमानों को जाना जा सकता है। विकास के इन प्रतिमानों के आधार पर अन्य व्यक्तियों के विकास का पूर्वकथन (Prediction) किया जा सकता है। इस सिद्धान्त को विकास क्रम या विकास दिशा का सिद्धान्त (Principle of Developmental Direction) के नाम से भी सम्बोधित किया जाता है। उदाहरणार्थ, शारीरिक विकास के क्षेत्र में वृद्धि व विकास के क्रमबद्ध व पूर्वकथनीय प्रतिरूप के होने के अनेक प्रमाण उपलब्ध हैं । जन्म पूर्व जीवन (Prenatal Life) में शारीरिक वृद्धि मस्तकोधमुखी क्रम (CEPHALOCAUDAL SEQUENCE) का अनुसरण करती है। जिसका अर्थ है कि सबसे पहले मस्तिष्क क्षेत्र (Head Region), फिर धड़ क्षेत्र (Trunk Region), तथा सबसे अन्त में पैर क्षेत्र (Leg Region) में शरीर की वृद्धि तथा शरीर के विभिन्न अंगों का नियन्त्रण होता है। जन्म के उपरान्त भी शारीरिक विकास में यह क्रम बना रहता है। बालक शरीर के ऊपरी अंगों अर्थात सिर का नियन्त्रण सबसे पहले सीखता है. फिर हाथो का नियन्त्रण सीखता है, फिर धड़ का नियन्त्रण सीखता है तथा सबसे अन्त में शरीर के निम्न भाग अर्थात् पैरों का नियन्त्रण करना सीख पाता है। मानसिक, सामाजिक, नैतिक आदि पक्षों में भी विकास के निश्चित प्रतिमानों को देखा जा सकता है |


5. समान-प्रतिमान का सिद्धान्त

(Principle of Uniform Pattern) 


समान-प्रतिमान के सिद्धान्त के अनुसार समान प्रजाति (Race) के विकास के प्रतिमानों में समानता पाई जाती है। प्रत्येक प्रजाति, चाहे वह पशु प्रजाति हो चाहे अथवा मानव प्रजाति, अपनी प्रजाति के अनुरूप विकास के प्रतिमान का अनुसरण करती है । उदाहरणार्थ, संसार के समस्त भागों में मानव प्रजाति के शिशुओं के विकास का प्रतिमान एक ही है तथा मानव शिशुओं के विकास के प्रतिमानों में किसी प्रकार का अंतर नहीं पाया जाता है। 


6. समन्वय का सिद्धान्त (Principle of Integration)—


इस सिद्धान्त के अनुसार विभिन्न अंगों के विकास में परस्पर समन्वय रहता है.। बालक पहले सम्पूर्ण अंगों को तथा फिर उस अंग के विभिन्न भागों को चलाना सीखता है । तत्पश्चात् वह इन समस्त भागों में समन्वय स्थापित करना सीखता है। जब तक शरीर के विभिन्न अंगों तथा उनके भागों के बीच समन्वय स्थापित नहीं होता है तब तक उचित विकास नहीं हो पाता है। विभिन्न अंगों का एकीकरण ही गतियों को सरल व सहज बनाता है। 



7. वंशानुक्रम तथा वातावरण की अंतःक्रिया का सिद्धान्त 

(Principle of Interaction between Heredity and Enviornment)


 इस सिद्धान्त के अनुसार बालक का विकास वंशानुक्रम तथा वातावरण की परस्पर अन्तक्रिया का परिणाम होता है। केवल वंशानुक्रम अथवा केवल वातावरण बालक के विकास की दिशा व गति को निर्धारित नहीं करते हैं वरन् दोनों की अन्तःक्रिया के द्वारा विकास की दिशा व गति का नियंत्रण होता है । वास्तव में, वंशानुक्रम उन सीमाओं को निर्धारित करता है जिससे आगे बालक का विकास करना सम्भव नहीं होता, जबकि वातावरण उन सीमाओं के बीच विकास के अवसर व सम्भावनाओं को निर्धारित करता है। अच्छे वंशानक्रम के अभाव में अच्छा वातावरण निष्फल हो सकता है तथा अच्छे वंशानुक्रम के बावजद दुषित वातावरण बालक को कुपोषण या गम्भीर रोगों का शिकार बना सकता है अथवा उसकी जन्मजात योग्यताओं को कुंठित कर सकता है। 


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