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Kishora Avstha Me Shiksha | किशोरावस्था में शिक्षा | Education During Adolescence


किशोरावस्था में शिक्षा

(Education During Adolescence)

प्रश्न किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप कैसा होना चाहिए |

या 

प्रश्न किशोरावस्था में किशोरों की शिक्षा कैसी होनी चाहिए |

उत्तर -

किशोरावस्था जीवन का सर्वाधिक कठिन, महत्वपूर्ण तथा नाजुक समय होता है। इस काल में किशोर-किशोरियों में शारीरिक, मानसिक तथा संवेगात्मक दृष्टि से क्रान्तिकारी परिवर्तन होते हैं। शैक्षिक दृष्टि से किशोरावस्था अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। यदि इस अवस्था में उचित मार्गदर्शन प्रदान किया जाएगा, तो किशोरों के द्वारा वांछित दिशा में प्रगति करने की सम्भावनाएं बढ़ जाएंगी। किशोरों के भावी जीवन के निर्माण की दृष्टि से माता-पिता, अध्यापक तथा समाज का यह कर्त्तव्य हो जाता है कि वे उनके लिए उपयुक्त एवं सुनियोजित शिक्षा की व्यवस्था करें।


किशोरावस्था में शिक्षा का स्वरूप निम्नानुसार होना चाहिए


1. शारीरिक विकास के लिए शिक्षा

(Education for Physical Development) .


2. मानसिक विकास के लिए शिक्षा

(Education for Mental Development)


3. संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा

(Education for Emotional Development)


4. सामाजिक विकास के लिए शिक्षा

(Education for Social Development)


5. धार्मिक तथा नैतिक विकास के लिए शिक्षा

(Education for Religious and Moral Development)


6. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुरूप शिक्षा

(Education for Individual Differences)


7. यौन शिक्षा

(Sex Education)


8. उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग

(Use of Proper Teaching Methods)


(9)किशोर के प्रति व्यस्क जैसा व्यवहार

(Adult Type Behaviour towards Adolescence)




1. शारीरिक विकास के लिए शिक्षा

(Education for Physical Development)


किशोरावस्था में अनेक महत्वपूर्ण तथा क्रांतिकारी शारीरिक परिवर्तन होते हैं इसलिए शरीर को स्वस्थ, सबल तथा सुडौल बनाने पर आवश्यक ध्यान देना चाहिए। अत: किशोरावस्था में पौष्टिक भोजन, स्वस्थ्य शिक्षा, शारीरिक व्यायाम तथा खेलकूद आदि की उचित व्यवस्था की जानी चाहिए।


2. मानसिक विकास के लिए शिक्षा

(Education for Mental Development)


किशोरावस्था में मानसिक शक्तियों का सर्वोत्तम व सर्वांगीण विकास करने के लिए उचित शिक्षा व्यवस्था की जानी चाहिए। किशोरों की मानसिक क्षमता, निरीक्षण शक्ति, तर्कशक्ति, चिन्तनशक्ति, स्मरण शक्ति तथा कल्पना शक्ति का विकास उनकी रुचियो, रुझानो तथा योग्यताओं के अनुरूप किया जाना चाहिए। जिज्ञासा प्रवत्ति को शांत करने के लिए प्राकृतिक तथा ऐतिहासिक स्थानों के भ्रमण की व्यवस्था की जानी चाहिए। पुस्तकालय, वाचनालय, प्रयोगशाला, पर्यटन, वाद-विवाद प्रतियोगिता, साहित्यिक गोष्ठियों जैसी पाठय-सहगामी क्रियाओं के आयोजन से उनकी अवलोकन तथा अभिव्यक्ति शक्ति को प्रशिक्षित करना चाहिए। संगीत, चित्रकला आदि के द्वारा किशोरों के सौंदर्यात्मक मूल्यों का विकास किया जा सकता है।


3. संवेगात्मक विकास के लिए शिक्षा

(Education for Emotional Development)


किशोरावस्था में संवेगात्मक जीवन में उथल-पुथल हो जाती है। किशोर अनेकों संवेगों से संघर्ष करता है। वह सही कर्तव्य को समझने में कठिनाई अनुभव करता है। शिक्षा के द्वारा निष्कृष्ट व दुखद संवेगों को दवाने अथवा मार्गान्तरीकरण करने का तथा उत्तम संवेगों का विकास करने का प्रयास किया जाना चाहिए। कला, साहित्य, संगीत तथा सांस्कृतिक कार्यक्रमों के द्वारा संवेगों का विकास किया जाना चाहिए।


4. सामाजिक विकास के लिए शिक्षा

(Education for Social Development)



किशोर अपने समूह को अत्याधिक महत्व देता है । अतः विद्यालय में ऐसे समूहों का गठन किया जाना चाहिए जिनकी सदस्यता ग्रहण करके किशोर अपना समाजिक विकास कर सकें। सामूहिक क्रियाओं, सामुहिक खेलकूद, स्काउटिंग, सांस्कृतिक कार्यक्रम अदि किशोरों में उत्तम सामाजिक व्यवहार तथा सामाजिक सम्बन्धों को विकसित करने की दिशा में उपयोगी सिद्ध हो सकते हैं।


5. धार्मिक तथा नैतिक विकास के लिए शिक्षा

(Education for Religious and Moral Development)


किशोरावस्था में निरन्तर विरोधी विचार उठते हैं। वे उचित-अनुचित का निर्धारण नहीं कर पाते हैं इसलिए परिवार तथा विद्यालय में किशोरों को धार्मिक तथा नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए। अभिभावकों तथा अध्यापकों के द्वारा उत्तर आदर्श व्यवहार तथा आचरण प्रस्तुत करके किशोरों के नैतिक चरित्र का विकास किया जा सकता है।


6. व्यक्तिगत विभिन्नताओं के अनुरूप शिक्षा

(Education for Individual Differences)


किशोरावस्था में किशोरों की व्यक्तिगत विभिन्नताएं तथा आवश्यकताएं शैक्षिक दष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होती हैं। उनकी शिक्षा की इस प्रकार से व्यवस्था की जानी चाहिए कि सभी किशोर-किशोरियों को अपनी विभिन्न रुचियों, प्रवृत्तियों तथा योग्यताओं के अनुरूप शिक्षा मिल सके । विद्यालयों में शैक्षिक तथा व्यावसायिक निर्देशन (Educational and Vocational Guidance)ी भी व्यवस्था की जानी चाहिए जिससे वे अपनी रुचियों, आवश्यकताओं तथा परिस्थितियों के अनुरूप पाठ्यक्रम तथा व्यवसाय का चयन कर सकें। बालक तथा बालिकाओं की रुचियों तथा आवश्यकताओं में अंतर होने के कारण उनके पाठ्यक्रमों में भी विभिन्नताएं होती चाहिए।


7. यौन शिक्षा

(Sex Education)


किशोर-किशोरियों की अधिकांश समस्याओं का सम्बन्ध उनकी काम प्रवृत्ति से होता है। भारतीय परिवारों में काम को एक वर्जित विषय माना जाता है। इसके सम्बन्ध में बात करने में लज्जा व संकोच का अनुभव किया जाता है । यही कारण है कि भारतीय परिवेश में किशोर-किशोरियों की यौन शिक्षा पर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता है। इस विषय की अज्ञानता व अनभिज्ञता का प्रायः किशोर-किशोरियों पर घातक प्रभाव पड़ता है। वास्तव में किशोरावस्था के दौरान मर्यादित यौन शिक्षा प्रदान करना अति आवश्यक है जिससे उनकी काम प्रवत्ति को उचित दिशा में ले जाया जा सके।


8. उपयुक्त शिक्षण विधियों का प्रयोग

(Use of Proper Teaching Methods)


किशोरावस्था में निरीक्षण, परीक्षण, तर्क एवं चिन्तन करने की प्रवृत्ति अधिक होती है। अत: किशोर-किशोरियों को शिक्षा प्रदान करते समय ऐसी विधियों का प्रयोग करना चाहिए जिससे वे संतुष्ट भी हो सकें तथा उनकी विभिन्न मानसिक शक्तियों का विकास भी हो सके।


(9)किशोर के प्रति व्यस्क जैसा व्यवहार

(Adult Type Behaviour towards Adolescence)


किशोरों में उचित महत्व तथा स्थिति पाने की तीव्र इच्छा होती है। उन्हें बालक समझ कर उनके प्रति बालक जैसा व्यवहार नहीं करना चाहिए वरन उनके साथ व्यस्क जैसा व्यवहार करना चाहिए। अनावश्यक नियंत्रणों तथा बंधनों में न बंधकर किशोरों को उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य स्वतन्त्र ढंग से करने के अवसर देने चाहिए। किशोरों को खीज, निराशा तथा अवहेलना से बचा कर उनकी अपराधप्रवृत्ति पर अंकुश लगाया जा सकता है।


किशोरावस्था बालकों के भावी जीवन के निर्माण की एक महत्वपूर्ण अवस्था है। अतः अध्यापकों तथा अभिभावकों को किशोर-किशोरियों की शिक्षा का नियोजन तथा संचालन अत्यंत सावधानी से करना चाहिए जिससे बालक उत्कृष्ट जीवन के पथ पर सफलतापूर्वक आगे बढ़ सके।


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किशोरावस्था में शारीरिक विकास 
(Physical Development in Adolescence) 


बाल्यावस्था के उपरान्त किशोरावस्था प्रारंभ होती है। किशोरावस्था, बाल्यावस्था तथा प्रौढ़ावस्था के बीच का काल है जिसमें प्रजनन क्षमता का विकास होता है। यह 18 वर्ष की आयु तक रहती है। किशोरावस्था में बालक तथा बालिकाओं का विकास अत्यंत तीव्र गति से होता है।


 किशोरावस्था में होने वाले शारीरिक विकास से संबंधित कुछ महत्वपूर्ण परिवर्तन निम्नांकित हैं 


1. लम्बाई  (Length)

 

2. भार  (Weight) 


3. सिर तथा मस्तिष्क (Head and Brain) 


4. हड्डियाँ (Bones) 


 5. दांत (Teeth) 


6. माँस पेशियाँ (Muscles) 


7. अन्य अंग 

(Other Organs)



1. लम्बाई  (Length) 


किशोरावस्था में बालक तथा बालिकाओं की लम्बाई बहुत तीव्र गति से बढ़ती हैं। बालिकाएं प्रायः 16 वर्ष की आयु तक तथा बालक लगभग 18 वर्ष की आयु तक अपनी अधिकतम लम्बाई प्राप्त कर लेते हैं। किशोरावस्था में बालकों की लम्बाई बालिकाओं से अधिक रहती हैं। अट्ठारह वर्ष की आयु का बालक इसी आयु की बालिका से लगभग 10 सें०मी० अधिक लम्बा होता है। 



2. भार  (Weight) 


किशोरावस्था में भार में काफी वृद्धि होती है। बालकों का भार बालिकाओं के भार से अधिक बढ़ता है। इस अवस्था के अंत में बालकों का भार बालिकाओं के भार की तुलना में लगभग 10-11 किग्रा० अधिक होता है। किशोरावस्था के विभिन्न वर्षों में बालक तथा बालिकाओं का औसत भार निम्नांकित तालिका में दर्शाया गया है 


3. सिर तथा मस्तिष्क (Head and Brain) 


किशोरावस्था में सिर तथा मस्तिष्क का विकास जारी रहता है, परंतु इसकी गति काफी मंद हो जाती है । लगभग 16 वर्ष की आयु तक सिर तथा मस्तिष्क का पूर्ण विकास हो जाता है। मस्तिष्क का भार प्रायः 1200 ग्रा० से लेकर 1400 ग्रा० के बीच होता है |


4. हड्डियाँ (Bones) 


किशोरावस्था में हड्डियों के दृढ़ीकरण अर्थात् अस्थिकरण (Ossification) की प्रक्रिया पूर्ण हो जाती है। जिसके परिणाम-स्वरुप अस्थियों का लचीलापन समाप्त हो जाता है तथा वे दृढ़ हो जाती हैं। किशोरावस्था में हड्डियों की संख्या कम होने लगी है | अस्थिपंजर की कुछ हड्डियाँ आपस में मिलकर एक हो जाती हैं । प्रौढ़ व्यक्ति में केवल 206 हड्डियाँ होती हैं।


 5. दांत (Teeth) 


किशोरावस्था में प्रवेश करने से पूर्व बालक तथा बालिकाओं के लगभग 27-28 स्थायी दाँत निकल जाते हैं। प्रज्ञा दन्त सबसे अन्त में निकलते हैं। प्रज्ञादन्त (Wisdom Teeth) प्रायः किशोरावस्था के अन्तिम वर्षों में अथवा प्रौढ़ावस्था के प्रारम्भिक वर्षों में निकलते हैं। कुछ व्यक्तियों में प्रज्ञादंत नहीं निकलते हैं। 


6. माँस पेशियाँ (Muscles) 


किशोरावस्था में माँसपेशियों का विकास तीव्र गति से होता है । किशोरावस्था की समाप्ति पर माँसपेशियों का भार शरीर के कुल भार का लगभग 45% हो जाता है। माँसपेशियों के गठन में भी दृढ़ता आ जाती है।


7. अन्य अंग 

(Other Organs) 


किशोरावस्था के अन्त तक बालक तथा बालिकाओं की सभी ज्ञानेन्द्रियों (आँख, कान, नाक, त्वचा तथा जिह्वां) तथा कमेन्द्रियों (हाथ, पैर, मुख) का पूर्ण विकास हो जाता है। वे शारीरिक दृष्टि से परिपक्व हो जाते हैं। शरीर के सभी अंग पुष्ट तथा सुडौल दिखाई देते हैं। किशोरों के कंधे चौड़े हो जाते हैं एवं मुख पर दाढ़ी तथा मूंछ आने लगती हैं।किशोर तथा किशोरियों के प्रजनन अंगों का पूर्ण विकास हो जाता है।  । थॉयरायड ग्रंथि के सक्रिय हो जाने के कारण किशोरों की आवाज में भारीपन आ जाता है, जबकि किशोरियों की आवाज में कोमलता तथा मृदुलता आ जाती है। हृदय की धडकन की गति में निरन्तर कमी आती जाती है। प्रौढावस्था में प्रवेश करते समय व्यक्ति का हृदय एक मिनट में लगभग 72 बार धड़कता है। 


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