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जीन पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिधांत | Jean Piaget Cognitive Development Theory

संज्ञानात्मक विकास का अर्थ

Meaning of Cognitive Development

शिक्षा मनोवैज्ञानिकों का मत है कि शिक्षकों के लिए जो सबसे महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है और जिसे उन्हें समझना नितांत आवश्यक है, वह है छात्रों का संज्ञानात्मक विकास (cognitive development)। संज्ञान (cognition) से तात्पर्य एक ऐसी प्रक्रिया से होता है जिसमें संवेदन (sensation), प्रत्यक्षण (perception), प्रतिमा (imagery), धारणा (retention), प्रत्याह्वान (recall), समस्या समाधान, चिंतन (thinking), तर्कणा (reasoning) जैसी मानसिक प्रक्रियाएँ सम्मिलित होतीं हैं। अतः, संज्ञान से तात्पर्य जैसा कि निस्सर (Neisser, 1967) ने कहा है, संवेदी सूचनाओं (sensory information) को ग्रहण करके उसका रूपांतरण (transformation), विस्तरण (elaboration), संग्रहण ( storage), पुनर्लाभ (recovery) तथा उसका समुचित प्रयोग करने से होता है। संज्ञानात्मक विकास से तात्पर्य बालकों में किसी संवेदी सूचनाओं को ग्रहण करके उसपर चिंतन करने तथा क्रमिक रूप से (gradually) उसे इस लायक बना देने से होता है जिसका प्रयोग विभिन्न परिस्थितियों में करके वे तरह-तरह की समस्याओं का समाधान आसानी से कर सकते हैं। स्पष्टतः, इस ढंग का विकास बालकों में होनेवाले बौद्धिक विकास (intellectual development) से संबंधित है जो वर्ग में शिक्षकों के लिए एक प्रमुख विषय है। संज्ञानात्मक विकास के अध्ययन के क्षेत्र में जीन पियाजे (Jean Piaget) का सिद्धांत एक अभूतपूर्व सिद्धांत माना गया है। उन्होंने बालकों के चिंतन एवं तर्कणा (reasoning) के विकास के जैविक (biological) तथा संरचनात्मक (structural) तत्त्वों पर बल डालकर संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) की व्याख्या की है। बाद में जे० एस० ब्रुनर (JS Bruner) ने पियाजे की विचारधारा (viewpoints) को अधिक विस्तृत (broad) कर एक नया सिद्धांत दिया जो शिक्षकों के लिए और भी अधिक उपयोगी सिद्ध हुई। फिर बाद में वाइगोटस्की (Vygostsky) ने भी संज्ञानात्मक विकास का एक सिद्धांत विकसित करके इस क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान किया है।


पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत के कुछ महत्त्वपूर्ण संप्रत्यय

(Some Important Concepts of Piaget's Theory of Cognitive Development)

जीन पियाजे (Jean Piaget, 1896-1980) एक प्रमुख स्विस मनोवैज्ञानिक (Swiss Psychologists) थे जिनका प्रशिक्षण प्राणि-विज्ञान (Zoology) में हुआ था। वे अल्फ्रेड विने (Alfred Binet) की प्रयोगशाला में बुद्धि परीक्षणों (intelligence tests) के साथ जब कार्य कर रहे थे, उसी समय बालकों के संज्ञानात्मक विकास (cognitive development ) पर कार्य शुरू किए थे। यह अवधि 1922-23 की थी। उन्होंने 1923 तथा 1932 के बीच में पाँच पुस्तकें प्रकाशित कीं जिनमें संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत से जो सबसे महत्त्वपूर्ण बात का पता चलता है, वह है कि पियाजे के अनुसार बालकों में वास्तविकता के स्वरूप के बारे में चिंतन करने तथा उसे खोज करने की शक्ति न तो सिर्फ बालकों के परिपक्वता स्तर (maturational level) पर और न सिर्फ उसके अनुभवों पर निर्भर करता है, बल्कि इन दोनों की अंतःक्रिया (interaction) द्वारा निर्धारित होती है। स्पष्टतः, संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या में पियाजे ने जो विचारधारा व्यक्त की है, वह एक अंतः क्रियावादी विचारधारा (interactionists' viewpoints) का उदाहरण है।


पियाजे के संज्ञानात्मक विकास के सिद्धांत की पूर्णरूपेण व्याख्या करने के पहले इस सिद्धांत के कुछ महत्वपूर्ण संप्रत्यय (important concepts) हैं जिनकी व्याख्या करना उचित है। इन संप्रत्ययों (concepts) में निम्नांकित प्रमुख हैं


1. अनुकूलन (Adaptation) –

पियाजे के अनुसार बालकों में वातावरण के साथ समंजन (adjustment) करने की एक जन्मजात प्रवृत्ति (innate tendency) होती है जिसे अनुकूलन कहा जाता है। उन्होंने अनुकूलन की प्रक्रिया की दो उपप्रक्रियाएँ बताई हैं- आत्मसात्करण (assimilation) तथा समायोजन (accommodation)। इन दोनों उपप्रक्रियाओं में समानता यह है कि ये दोनों ही स्वयं एवं वातावरण की वस्तुओं के बारे में सूचना प्राप्त करने की मूल योजना (strategy) हैं। आत्मसात्करण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें बालक समस्या के समाधान के लिए या वास्तविकता से समंजन करने के लिए पूर्व सीखी गई योजनाओं या मानसिक प्रक्रियाओं (mental operations) का सहारा लेता है। जैसे यदि शिशु किसी वस्तु को उठाकर अपने मुँह में रख लेता है, तो यह एक आत्मसात्करण (assimilation) का उदाहरण होगा क्योंकि वह वस्तु को एक परिचित क्रिया अर्थात खाने की क्रिया के साथ आत्मसात कर रहा है। कभी-कभी ऐसा होता है कि वास्तविकता से समंजन करने में पहले की परिचित योजना या मानसिक प्रक्रिया से काम नहीं चलता है। ऐसी स्थिति में बालक अपनी योजना, संप्रत्यय (concept) या व्यवहार में परिवर्तन लाता है ताकि वह नए वातावरण के साथ अनुकूलन या समंजन (adjustment). कर सके। जैसे यदि कोई बालक यह जानता है कि 'कुत्ता' क्या होता है परंतु एक 'बिल्ली' को देखकर जब वह अपने मानसिक संप्रत्यय (mental concept) में परिवर्तन कर बिल्ली की अलग कुछ विशेषताओं पर गौर करता है, तो यह समायोजन का उदाहरण होगा।

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2. साम्यधारण (Equilibration) –

साम्यधारण (साम्यन) का संप्रत्यय अनुकूलन (adaptation) के संप्रत्यय से मिलता-जुलता है। साम्यधारण एक ऐसी प्रक्रिया है जिसके द्वारा बालक आत्मसात्करण (assimilation) तथा समायोजन (adaptation) की प्रक्रियाओं के बीच एक संतुलन (balance) कायम करता है। इस तरह से साम्यधारण ( equilibration) एक तरह की आत्म-नियंत्रक (self regulatory) प्रक्रिया है । पियाजे का कहना था कि जब बालक के सामने ऐसी परिस्थिति या समस्या आती है, जिसका उसे कभी अनुभव नहीं हुआ था तो इससे उसमें एक तरह का संज्ञानात्मक असंतुलन (cognitive disequilibrium) उत्पन्न होता है जिसे दूर करने के लिए या जिसमें संतुलन (balance) लाने के लिए वह आत्मसात्करण या समायोजन या दोनों ही प्रक्रियाएँ करना प्रारंभ कर देता है।

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3. संरक्षण (Conservation) –

पियाजे के सिद्धांत में यह एक महत्त्वपूर्ण संप्रत्यय है। संरक्षण से तात्पर्य वातावरण में परिवर्तन (change) तथा स्थिरता (constancy) दोनों को पहचानने एवं समझने की क्षमता तथा किसी वस्तु के रूप-रंग में परिवर्तन को उस वस्तु के तत्त्व (substance) में परिवर्तन से अलग करने की क्षमता से होता है। पियाजे के सिद्धांत का यह एक संप्रत्यय है जिसपर मनोवैज्ञानिकों ने सबसे अधिक शोध किया है।


4. संज्ञानात्मक संरचना (Cognitive structures)

किसी बालक का मानसिक संगठन या मानसिक क्षमताओं के सेट को संज्ञानात्मक संरचना कहा जाता है। रिली, लेविस तथा टैनर' (Reilly, Lewis and Tanner, 1983) के शब्दों में, “किसी बालक के मानसिक संगठन या क्षमताओं को ही संज्ञानात्मक संरचना कहा जाता है।" संज्ञानात्मक संरचना के ही आधार पर (उदाहरण के रूप में) एक 7 साल के बालक को 3 साल के बालक से भिन्न समझा जाता है।


5. मानसिक संक्रिया (Mental operations) —

जब भी बालक किसी समस्या के समाधान पर चिंतन करता है, वह मानसिक संक्रिया (mental operation) करते समझा जाता है। अतः, पियाजे के सिद्धांत में मानसिक संक्रिया चिंतन का एक प्रमुख साधन (tool) है। इस तरह कहा जा सकता है कि संज्ञानात्मक संरचना (cognitive structure) की संक्रियता (action) ही मानसिक संक्रिया (mental operation) है।

6. स्कीम्स (Schemes) –

व्यवहारों के संगठित पैटर्न (organized pattern) को जिसे आसानी से दोहराया जा सकता है, स्कीम्स कहा जाता है। जैसे बालक स्कूल जाने के लिए जब अपनी किताब-कॉपी वर्ग रूटीन के अनुसार लेता है, स्कूल-ड्रेस पहनता है, जूता पहनता है तब व्यवहारों के ये सभी संगठित पैटर्न को स्कीम्स (schemes) कहा जाता है। स्कीम्स (schemes) का संबंध मानसिक संक्रिया (mental operation) से स्पष्ट है। स्कीम्स मानसिक संक्रिया (mental operation) का अभिव्यक्त रूप (expressed form) होता है।

7. स्कीमा (Schema) —

स्कीमा सुनने में स्कीम्स से काफी मिलता-जुलता लगता है, परंतु सच्चाई यह है कि इसका अर्थ उससे भिन्न है। पियाजे (Piaget) का स्कीमा से तात्पर्य एक ऐसी मानसिक संरचना से होता है जिसका सामान्यीकरण (generalisation) किया जा सके। स्कीमा इस तरह मानसिक संक्रिया (mental operation) तथा संज्ञानात्मक संरचना (cognitive structure) से काफी संबंधित संप्रत्यय है।


8. विकेंद्रण (Decentering ) —

पियाजे के अनुसार विकेंद्रण (decentering) से तात्पर्य किसी वस्तु या चीज के बारे में वस्तुनिष्ठ या वास्तविक ढंग से सोचने की क्षमता से होता है। इनका कहना था कि 3–4 महीने की उम्र के बालकों में ऐसी क्षमता नहीं होती है बल्कि वह किसी वस्तु या चीज के बारे में आत्मकेंद्रित (egocentric) ढंग से सोचता है। परंतु कुछ उम्र बीतने पर जैसे जब वह 23-24 महीने का हो जाता है, तो उसमें वस्तु या चीज के बारे में वास्तविक ढंग से सोचने की क्षमता विकसित हो जाती है।




पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत

Piaget's Theory of Cognitive Development


जीन पियाजे (Jean Piaget) ने बालकों के संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) की व्याख्या करने के लिए एक चार अवस्था (four stage) सिद्धांत का प्रतिपादन किया है। इस सिद्धांत में पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास की व्याख्या चार प्रमुख अवस्थाओं (stages) में बाँटकर की है। वे अवस्थाएँ निम्नांकित हैं-

  • 1. संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensory-motor state)
  • 2. प्राक्संक्रियात्मक अवस्था (Preoperational stage)
  • 3. ठोस संक्रिया की अवस्था (Stage of concrete operation)
  • 4. औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Stage of formal operation)


इन अवस्थाओं का वर्णन करने के पहले यह आवश्यक है कि इस सिद्धांत की प्रमुख पूर्वकल्पनाओं (assumptions) पर विचार कर लिया जाए। इस सिद्धांत की निम्नांकित चार प्रमुख पूर्वकल्पनाएँ है-


(i) मानव शिशु जन्म से ही वातावरण की अनिश्चितता (uncertainty) को दूर करने के लिए अनुकूलन (adaptation) करता है तथा एक संबंधित एवं समन्वित (coordinated) ढंग से इस क्षमता को विकसित करने की कोशिश करता है।

(ii) जब बालकों के सामने कोई ऐसी घटना घटती है जिसे उसका पहले कभी अनुभव नहीं हुआ है तो इससे उसमें एक तरह का संज्ञानात्मक असंतुलन (cognitive disequilibrium) उत्पन्न हो जाता है जिसे वह आत्मसात्करण (assimilation) तथा समायोजन (accommodation) के माध्यम से संतुलित (equilibrate) करता है।

(iii) साम्यधारण (equilibration) की प्रक्रिया सिर्फ बालकों की गत अनुभूतियों (past experiences) पर ही निर्भर नहीं करती है बल्कि उनकी शारीरिक परिपक्वता (physical maturation) के स्तर पर भी, यानी उसके स्नायुमंडल (nervous system), संवेदी अंगों (sensory organs), पेशीय अंगों (motor organs) के विकास पर भी निर्भर करता है।

(iv) साम्यधारण (equilibration) का प्रभाव यह होता है कि बालकों की संज्ञानात्मक संरचना (cognitive structures) अधिक विकसित हो जाती है जिसके कारण संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) की चारों अवस्थाओं में उनका विकास समरेखित (smoothed) होता है।



संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) की चार अवस्थाओं (stages) 

(1) संवेदी-पेशीय अवस्था (Sensory-motor stage) –

यह अवस्था जन्म से दो साल तक की होती है। इस अवस्था में शिशुओं में अन्य क्रियाओं के अलावा शारीरिक रूप से चीजों को इधर-उधर करना, वस्तुओं की पहचान करने की कोशिश करना, किसी चीज को पकड़ना और प्रायः उसे मुँह में डालकर उसका अध्ययन करना आदि प्रमुख हैं। पियाजे ने यह बताया है कि इस अवस्था में शिशुओं का बौद्धिक विकास (intellectual development) या संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) निम्नांकित छह उप-अवस्थाओं (substages) से होकर गुजरता है-


(i) प्रतिवर्त क्रियाओं की अवस्था (Stage of reflex activities) 

यह  जन्म से 30 दिन तक की होती है। इस अवस्था में बालक मात्र प्रतिवर्त क्रियाएँ (reflex activities) करता है। इन प्रतिवर्त क्रियाओं में चूसने का प्रतिवर्त (sucking reflex) सबसे प्रबल होता है।


(ii) प्रमुख वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of primary circular reactions)

यह  1 महीने से 4 महीने की अवधि की होती है। इस अवस्था में शिशुओं की प्रतिवर्त क्रियाएँ (reflex activities) उनकी अनुभूतियों द्वारा कुछ हद तक परिवर्तित होती हैं, दुहराई जाती हैं और एक-दूसरे के साथ अधिक समन्वित (coordinated) हो जाती है। इन व्यवहारों को प्रमुख (primary) इसलिए कहा जाता है क्योंकि वे उनके शरीर की प्रमुख प्रतिवर्त क्रियाएँ होती हैं एवं उन्हें वृत्तीय (circular) इसलिए कहा जाता है क्योंकि उन्हें दुहराई जाती है।


(iii)  गौण वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of secondary circular reactions) 

यह  जो 4 से 8 महीने तक की अवधि की होती है। इस अवस्था में शिशु वस्तुओं को उलटने-पुलटने (manipulation) तथा छूने पर अपना अधिक ध्यान देता है न कि अपने शरीर की प्रतिवर्त क्रियाओं पर। इसके अलावा वह जान-बूझकर कुछ ऐसी अनुक्रियाओं (responses) को दुहराता है जो उसे सुनने या करने में रोचक एवं मनोरंजक लगता है।


(iv) गौण स्कीमैटा के समन्वय की अवस्था (Stage of coordination of secondary schemata) 

चौथी प्रमुख अवस्था है जो 8 महीने से 12 महीने की अवधि की होती है। इस अवधि में बालक उद्देश्य (goal) तथा उसपर पहुँचने के साधन (means) में अंतर करना प्रारंभ कर देता है। जैसे यदि किसी खिलौना को छिपा दिया जाता है, तो वह उसके लिए वस्तुओं को इधर-उधर हटाते हुए खोज जारी रखता है। इस अवधि में शिशु वयस्कों द्वारा किए जानेवाले कार्यों का अनुकरण (imitation) भी प्रारंभ कर देता है। इस अवधि में शिशु जो स्कीमा (schema) सीखते हैं, उनका वे एक परिस्थिति से दूसरी परिस्थिति में सामान्यीकरण (generalise) करना भी प्रारंभ कर देते हैं।

(v) तृतीय वृत्तीय प्रतिक्रियाओं की अवस्था (Stage of tertiary circular reactions) 

12 महीने से 18 महीने की अवधि की होती है। इस अवस्था में बालक वस्तुओं के गुणों को प्रयास एवं त्रुटि (trial and error) विधि से सीखने की कोशिश करता है। इस अवस्था में उनका अपनी शारीरिक क्रियाओं में अभिरुचि कम हो जाती है और वे स्वयं कुछ वस्तुओं को लेकर प्रयोग करते हैं। बालकों में उत्सुकता अभिप्रेरक (curiosity motive) अधिक प्रबल हो जाता है तथा उनमें वस्तुओं को ऊपर से नीचे गिराकर अध्ययन करने की प्रवृत्ति अधिक होती है।


(vi) मानसिक संयोग द्वारा नए साधनों की खोज की अवस्था (Stage of the invention of new means through mental combination) 

अंतिम अवस्था है जो 18 महीने से 24 महीने तक की अवधि की होती है। यह वह अवस्था होती है जिसमें बालक वस्तुओं के बारे में चिंतन प्रारंभ कर देता है। इस अवधि में बालक उन वस्तुओं के प्रति भी अनुक्रिया करना प्रारंभ कर देता है जो सीधे दृष्टिगोचर (observable) नहीं होती हैं। इस गुण को वस्तु स्थायित्व (object permanence) कहा जाता है। दूसरे शब्दों में, बालक 3-4 महीने की उम्र में यह सोचते थे कि जब कोई वस्तु उनके सामने होती है तब उसका अस्तित्व बना होता है परंतु जब वस्तु उनके सामने से हट जाती है तब उसका अस्तित्व भी खत्म हो जाता है। परंतु अब उसका चिंतन अधिक वास्तविक हो जाता है और अब वह यह सोचता है कि जब वस्तु उसके सामने नहीं भी होता है तो उसका अस्तित्व (existence) बना होता है। इसे ही वस्तु स्थायित्व का गुण कहा जाता है।


(2) प्राक्संक्रियात्मक अवस्था (Preoperational stage) –

संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) की यह अवस्था 2 साल से 7 साल की होती है। दूसरे शब्दों में, यह वह अवस्था होती है जो प्रारंभिक बाल्यावस्था (early childhood) की होती है। इस अवस्था को पियाजे ने दो भागों में बाँटा है— प्राक्संप्रत्ययात्मक अवधि (preconceptual period) तथा अंतर्दर्शी अवधि (intuitive period) ।


(i) प्राक्संप्रत्ययात्मक अवधि (Preconceptual period)—यह अवधि 2 साल से 4 साल की होती है। इस अवस्था में बालक सूचकता (signifiers) विकसित कर लेते हैं। सूचकता (signifiers) से तात्पर्य इस बात से होता है कि बालक यह समझने लगते हैं कि वस्तु, शब्द प्रतिमा तथा चिंतन (thoghts) किसी चीज के लिए किया जाता है। उन्होंने दो तरह की सूचकता पर बल डाला है—संकेत (symbol) तथा चिह्न (sign)। किसी ठोस वस्तु के मानसिक चिंतन (mental representation) का दूसरा नाम संकेत है। संकेत में तथा उस ठोस वस्तु में अधिक सादृश्यता होती जैसे जब बालक अपनी माँ की आवाज को सुनता है तब उसके मन में माँ की एक प्रतिमा बनती है जो संकेत का उदाहरण है। चिह्न में वस्तुओं (objects), जिनका वे मानसिक चिंतन (mental representation) करते हैं, की इतनी अधिक सादृश्यता (resemblance) नहीं होती है। चिह्न में वस्तुओं या घटनाओं का एक अमूर्त चिंतन (abstract representation) होता है। शब्द या भाषा के अन्य पहलू सबसे सामान्य चिह्न के उदाहरण हैं।

पियाजे ने संकेत (symbols) तथा चिह्न (sign) को प्राक्संक्रियात्मक चिंतन (preoperational thoughts) का महत्त्वपूर्ण साधन (tool) माना है। इस अवस्था में बालकों को इन सूचकता (signifiers) का अर्थ समझना होता है तथा साथ-ही-साथ उसे अपने चिंतन एवं कार्य में उसका प्रयोग करना सीखना होता है। इसे पियाजे ने लाक्षणिक कार्य (semiotic function) की संज्ञा दी है। उन्होंने यह भी बताया है कि बालकों में लाक्षणिक कार्य मूलतः दो तरह की क्रियाओं (activities) अर्थात अनुकरण (imitation) एवं खेल (play) द्वारा होता है। अनुकरण (imitation) की प्रक्रिया द्वारा बालक सूचकता को सीखते हैं। उदाहरणस्वरूप, बालक जब माँ के 'फूल' को फूल कहने का अनुकरण करता है, तो वह धीरे-धीरे फूल एवं उसके अर्थ को समझ जाता है। खेल के माध्यम से भी बालक सूचकता के अर्थ को समझते हैं तथा उसका सही-सही प्रयोग अपने चिंतन एवं क्रियाओं में करना सीखते हैं।
पियाजे ने प्राक्संक्रियात्मक चिंतन (preoperational thoughts) की दो परिसीमाएँ (limitations) भी बताई हैं जो इस प्रकार हैं-
 

(a) जीववाद (Animism) 

जीववाद बालकों के चिंतन में एक ऐसी परिसीमा की ओर बताता है जिसमें बालक निर्जीव वस्तुओं को सजीव समझता है। जैसे कार, पंखा, हवा, बादल सभी उसके लिए सजीव होते हैं।
(b) आत्मकेन्द्रिता (Egocentrism) इसमें बालक सिर्फ अपने ही विचार को सही मानता है। उसे कुछ इस तरह का विश्वास हो जाता कि दुनिया की अधिकतर चीजें उसके इर्द-गिर्द चक्कर लगाती रहती हैं। जैसे वह तेजी से दौड़ता है, तो सूर्य भी तेजी से चलना प्रारंभ कर देता है, उसकी गुड़िया वही देखती है जो वह देख रहा है आदि-आदि। पियाजे ने यह भी बताया कि जैसे-जैसे बालकों का सम्पर्क अन्य बालकों एवं भाई-बहनों से बढ़ता जाता है, उसके चिंतन में आत्मकेन्द्रिता की शिकायत कम होती जाती है।
 

(ii) अन्तर्दर्शी अवधि (Intuitive period) 

यह अवधि 4 साल से 7 साल की होती है। इस अवधि में बालकों का चिंतन एवं तर्कणा (reasoning) पहले से अधिक परिपक्व (mature) हो जाते हैं जिसके परिणामस्वरूप वह साधारण मानसिक प्रक्रियाएँ जो जोड़, घटाव, गुणा तथा भाग (division) आदि में सम्मिलित होती हैं, उन्हें वह कर पाता है। परंतु, इन मानसिक प्रक्रियाओं के पीछे छिपे नियमों (priniciples) को वह नहीं समझ पाता है। अन्तर्दर्शी चिंतन (intuitive thinking) इस प्रकार एक ऐसा चिंतन होता है जिसमें कोई क्रमबद्ध तर्क (systematic logic) नहीं होता है। पियाजे ने अंतर्दर्शी चिंतन (intuitive thinking) का भी एक दोष (limitation) बताया है और वह यह है कि इस उम्र के बालकों के चिंतन में पलटावी गुण (trait of reversibility) नहीं होता है। जैसे बालक यह तो समझता है कि 2x 2 = 4 हुआ परंतु 4 + 2 = 2 कैसे हुआ, यह नहीं समझ पाता है।


(3) ठोस संक्रिया की अवस्था (Stage of concrete operation)


यह अवस्था 7 साल से प्रारंभ होकर 12 साल तक चलती है। इस अवस्था की विशेषता यह है कि बालक ठोस वस्तुओं (concrete objects) के आधार पर आसानी से मानसिक संक्रियाएँ (mental operations) करके समस्या का समाधान कर लेता है। परंतु यदि उन वस्तुओं को न देकर उसके बारे में शाब्दिक कथन (verbal statement) तैयार कर यदि समस्या उपस्थित की जाती है, तो वे ऐसी समस्याओं पर मानसिक संक्रियाएँ (mental operations) कर किसी निष्कर्ष पर पहुँचने में असमर्थ रहते हैं। जैसे यदि उन्हें तीन वस्तुएँ A, B, C दी जाएँ तो उन्हें देखकर वे यह आसानी से कह देंगे कि इनमें 'A', ‘B’ से बड़ा है और ‘B’, ‘C' से बड़ा है। अतः, सबसे बड़ा 'A' हुआ। परंतु यदि उनसे यह कहा जाय कि अंजु मंजु से बड़ी है और मंजु बड़ी है रंजु से तो तीनों में सबसे बड़ी कौन है, तो वह इसका उत्तर देने में असमर्थ रहता है। इसका कारण यह है कि इस समस्या में ठोस संक्रिया (concrete operation) संभव नहीं है क्योंकि समस्या शाब्दिक कथन (verbal statement) के रूप में उपस्थित की गई है। इस उदाहरण से यह भी स्पष्ट है कि इस अवस्था में बालकों का चिंतन एवं तर्कणा (reasoning (प्राक्संक्रियात्मक अवस्था (preoperational stage) की तुलना में अधिक क्रमबद्ध (systematic) एवं तर्क संगत हो जाती है। इस अवस्था के चिंतन की एक विशेषता यह भी है कि इसमें पलटावी गुण (trait of reversibility) आ जाता है। जैसे अब बालक यह समझने लगते हैं कि 2×2 = 4 हुआ तो 4 ÷ 2 = 2 होगा।
इस अवस्था में बालकों में तीन महत्त्वपूर्ण संप्रत्यय (concepts) विकसित कर जाता हैं— संरक्षण (conservation), संबंध (relations) तथा वर्गीकरण (classification)। इस अवस्था में बालक तरल (liquid), लंबाई (length), भार (weight) तथा तत्त्व (substance) के संरक्षण से संबंधित समस्याओं (problems) का समाधान करते पाए जाते हैं। वे क्रमिक संबंधों (ordinal relations) से संबंधित समस्याओं का भी समाधान करते पाए जाते हैं। दूसरे शब्दों में, दी गई वस्तुओं को उसकी लंबाई या वजन के अनुसार घटते क्रम या बढ़ते क्रम में सजाने की क्षमता उनमें विकसित हो जाती है। इसे पंक्तिबद्धता (seriation) की संज्ञा दी जाती है। उसी तरह इस अवस्था में बालकों में वस्तुओं के गुण के अनुसार उसे किसी एक वर्ग या उपवर्ग में छाँटने की क्षमता भी विकसित हो जाती है। इतना होने के बावजूद ठोस संक्रियात्मक चिंतन (concrete operational thinking) के दो प्रमुख दोष बताए गए हैं। पहला दोष यह बताया गया है कि इस अवस्था में बालक मानसिक संक्रियाएँ (mental operations) तभी कर पाते हैं जब वस्तु ठोस (concrete) रूप में उपस्थित की गई हो। दूसरा दोष यह बताया गया है कि इस अवस्था में चिंतन पूर्णतः क्रमबद्ध (systematic) नहीं होता है क्योंकि बालक दी गई समस्या के तार्किक रूप से संभावित सभी समाधानों के बारे में नहीं सोच पाता है। जैसा कि ब्राऊन तथा कुक' (Brown & Cook, 1986) ने कहा है, “ठोस संक्रियात्मक चिंतन की दूसरी परिसीमा यह है कि यह बहुत क्रमबद्ध नहीं होती है। किसी समस्या के तार्किक रूप से संभावित सभी समाधानों के बारे में बालक नहीं सोच पाता है।”

 

(4) औपचारिक संक्रिया की अवस्था (Stage of formal operations) -

यह अवस्था 11 साल से प्रारंभ होकर वयस्कावस्था (adulthood) तक चलती है। इस अवस्था में किशोरों (adolescents) का चिंतन अधिक लचीला (flexible) तथा प्रभावी (effective) हो जाता है। उसके चिंतन में पूर्ण क्रमबद्धता (systematisation) आ जाती है। अब वे किसी समस्या का समाधान काल्पनिक रूप से (hypothetically) सोचकर एवं चिंतन करके करने में सक्षम हो जाते हैं। इस अवस्था में समस्या के समाधान के लिए समस्या के एकांशों (items) को ठोस रूप से (in a concrete form) उसके सामने उपस्थित होना अनिवार्य नहीं है। इस तरह किशोरों के चिंतन में वस्तुनिष्ठता (objectivity) तथा वास्तविकता (reality) की भूमिका अधिक बढ़ जाती है। दूसरे शब्दों में बालकों में विकेंद्रण (decentering) पूर्णतः विकसित हो जाता है।
पियाजे (Piaget) का मत है कि औपचारिक संक्रिया की अवस्था (stage of formal operation) अन्य अवस्थाओं की तुलना में अधिक परिवर्त्य (variable) होती है तथा यह किशोरों के शिक्षा के स्तर (level of education) से सीधे प्रभावित होती है। जिन बालकों का शिक्षा-स्तर काफी नीचा होता है, उनमें औपचारिक संक्रियात्मक चिंतन (formal operational thought) भी काफी कम होता है। परंतु, जिस बालक का शिक्षा-स्तर काफी ऊँचा होता है, उनमें औपचारिक संक्रियात्मक चिंतन अधिक मात्रा में होता है।
इस तरह हम देखते हैं कि पियाजे ने अपने चार-स्तरीय सिद्धांत (four-stage theory) में इस बात पर बल डाला है कि व्यक्ति में संज्ञानात्मक विकास चार विभिन्न अवस्थाओं में होता है। पियाजे का यह सिद्धांत जबकि एक प्रबल सिद्धांत है, फिर भी मनोवैज्ञानिकों ने इसकी आलोचना निम्नलिखित कारकों के आधार पर की है-

(i) आलोचकों का मत है कि पियाजे द्वारा बालकों के व्यवहारों के प्रेक्षण (observation) की जो विधि अपनाई गई थी, वह अधिक आत्मनिष्ठ (subjective) है। इनकी विधि में कभी-कभी बालकों को ऐसी अनुक्रियाएँ करनी पड़ती हैं, जिसे वे अपने में संज्ञानात्मक सम्पन्नता (cognitive competence) होने के बावजूद उनका उत्तर नहीं दे पाते हैं।

(ii) कुछ आलोचकों ने बालकों द्वारा दिए गए उत्तरों की व्याख्या, जो पियाजे (Piaget) ने की है, की आलोचना की है। पियाजे के अनुसार जब बालक दी गई समस्या का समाधान नहीं कर पाता है, तो इसका सीधा मतलब यह लगा लिया जाता है कि उस बालक में संज्ञानात्मक सम्पन्नता (cognitive competence) की कमी है। आलोचकों ने पियाजे की इस व्याख्या की आलोचना की है। गेलमैन (Gelman, 1978) ने अध्ययन के आधार पर यह बताया है कि जब बालकों को पियाजे द्वारा पूछे गए संरक्षण (conservation) से संबंधित समस्या को सुधारकर एवं साधारण भाषा में पूछा गया तो वे उसका सही-सही समाधान करने में सफल हो गए। इससे पता चलता है कि पियाजे (Piaget) द्वारा की गई व्याख्या अधिक निर्भरयोग्य नहीं थी।
 
(iii) पियाजे (Piaget) का ऐसा विश्वास था कि संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) सतत (continuous) एवं असतत (discontinuous) दोनों ही होता है। उनका कहना था कि किसी एक अवस्था में संज्ञानात्मक विकास की प्रक्रिया सतत (continuous) तथा उत्तरोत्तर बढ़नेवाली (incremental) होती है परंतु एक अवस्था से दूसरी अवस्था में यह विकास असतत (discontinuous) एवं गुणात्मक रूप से भिन्न (qualitatively distinct) होते हैं। आलोचकों का मत है कि पियाजे का यह विश्वास वैज्ञानिक नहीं था क्योंकि जो भी हम संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) दूसरी, तीसरी या चौथी अवस्था में देखते हैं वह ठीक पहले की अवस्था या अवस्थाओं से पूर्णतः अलग नहीं रहता है। उदाहरणस्वरूप, बालकों के चिंतन में तीसरी अवस्था में अचानक पलटावी का गुण (trait of irreversibility) नहीं आ जाता है। पहले उसमें अपलटावी का गुण (triat of irreversibility) संज्ञानात्मक विकास की दूसरी अवस्था में विकसित होता है और तब परिपक्वता एवं अनुभव में वृद्धि होने से अगली अवस्था में पलटावी का गुण विकसित होता है। अतः, संज्ञानात्मक विकास की विभिन्न अवस्थाओं को एक-दूसरे से पूर्णत: स्वतंत्र मानना उचित नहीं होगा।
 
(iv) हालाँकि पियाजे ने संज्ञानात्मक विकास (cognitive development) के लिए बालकों की जैविक परिपक्वता (biological maturation) तथा अनुभव (experience) दोनों को ही महत्त्वपूर्ण माना है, लेकिन वे यह नहीं बता पाए कि किसी अमुक संज्ञानात्मक संरचना (cognitive structure) के विकास में अनुभव की किस मात्रा में जरूरत पड़ती है। जैसे उन्होंने यह नहीं बताया है कि वस्तु स्थायित्व (object permanence) की संरचना विकसित करने में दृष्टि उद्दीपन (visual stimulation) किस मात्रा में बालकों को दिया जाना चाहिए। उसी ढंग से औपचारिक संक्रियात्मक चिंतन (formal operational thought) के संतोषजनक स्तर के लिए किशोरों को कहाँ तक शिक्षित होना चाहिए आदि-आदि। 


 इन आलोचनाओं के बावजूद पियाजे के संज्ञानात्मक विकास का सिद्धांत काफी महत्त्वपूर्ण सिद्धांत माना गया है। इस सिद्धांत के तथ्यों की उपयोगिता शिक्षकों के लिए काफी अधिक बताई गई है क्योंकि इससे बालकों के बौद्धिक विकास (intellectual development) की व्यवस्था संतोषजनक ढंग से हो पाती है।

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