शिशुअवस्था क्या है ? इसके विशेषताये एवं शिक्षा
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Post Date:- | जनवरी 2022 |
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Short Information | (1) शिशुअवस्था क्या है ? (2) शिशुअवस्था के परिभाषाये (3) शिशुअवस्था के विशेषताये (4) शिशुअवस्था में शिक्षा |
इस पोस्ट में निम्नलिखित जानकारी दी गयी है-
TABLE OF CONTENT
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शैशवावस्था , बालक का निर्माण काल है। यह अवस्था जन्म से पाँच वर्ष तक मानी जाती है। पहले तीन वर्ष पूर्व शैशवावस्था और तीन से पाँच वर्ष की आयु उत्तर शैशवावस्था कहलाती है।
न्यूमैन ( J. Newman) के शब्दों में "पाँच वर्ष तक की अवस्था शरीर तथा मस्तिष्क के लिए बड़ी ग्रहणशील होती है।
फ्रायड के शब्दों में—“मनुष्य को जो कुछ भी बनना होता है, वह चार पाँच वर्षों में बन जाता है।”
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(01) एडलर के अनुसार शैशवावस्था की परिभाषा
“बालक के जन्म के कुछ माह बाद ही यह निश्चित किया जा सकता है।कि जीवन में उसका क्या स्थान है।”
(02) क्रो एंड क्रो के अनुसार शैशवावस्था की परिभाषा
“बीसवीं शताब्दी को बालक की शताब्दी कहा जाता है।”
(03) गुडएनफ के अनुसार शैशवावस्था की परिभाषा
” व्यक्ति का जितना भी मानसिक विकास होता है ,उसका आधा 3 वर्ष की आयु तक हो जाता है।”
(04) न्यूमैन के अनुसार शैशवावस्था की परिभाषा
शैशवावस्था जीवन का सबसे महत्वपूर्ण काल है।”
(05) वैलेंटाइन के अनुसार शैशवावस्था की परिभाषा
“शैशवावस्था सीखने का आदर्श काल है।”
(06) फ्रायड के अनुसार शैशवास्था की परिभाषा
“बालक को जो कुछ बनना हैं,प्रारंभ के 4-5 वर्षों में बन जाता है।”
(07) स्टैंग की परिभाषा शैशवावस्था की परिभाषा
“जीवन के प्रथम वर्ष में बालक अपने भावी जीवन का शिलान्यास करता है।यद्यपि उसमें परिवर्तन हो सकता है,पर प्रारम्भिक प्रवृत्तियाँ और प्रतिमान सदैव बने रहते हैं।”
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(1) शारीरिक विकास की तीव्रता (Rapidity in Physical Development)
(2) मानसिक क्रियाओं की तीव्रता (Rapidity in Mental Activities)-
(3) सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता (Rapidity in Learning Process)-
(4) कल्पना की सजीवता (Live Imagination)-
(5) दूसरों पर निर्भरता (Dependence on Others)-
(6) आत्म-प्रेम की भावना (Self Love)-
(7) नैतिकता का अभाव (Lack of Morality)-
(8) मूलप्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार (Instinct Based Behaviour)
(9) सामाजिक भावना का विकास (Development of Social Feelings)-
10) दूसरे बालकों में रुचि या अरुचि (Interest or Disinterest in Others)
शैशवावस्था की विशेषतायें इस प्रकार हैं
(1) शारीरिक विकास की तीव्रता (Rapidity in Physical Development)
शैशवावस्था के प्रथम तीन वर्षों में शिशु का शारीरिक विकास अति तीव्र गति से होता है। उसके भार और लम्बाई में वृद्धि होती है। तीन वर्ष के बाद विकास की गति धीमी हो जाती है। उसकी इन्द्रियों, कर्मेन्द्रियों, आन्तरिक अंगों, माँसपेशियों आदि का क्रमिक विकास होता है।
(2) मानसिक क्रियाओं की तीव्रता
(Rapidity in Mental Activities)-
शिशु की मानसिक क्रियाओं; जैसे-ध्यान, स्मृति, कल्पना, संवेदना और प्रत्यक्षीकरण (Sensation and Perception) आदि के विकास में पर्याप्त तीव्रता होती है। तीन वर्ष की आयु तक शिशु की लगभग सब मानसिक शक्तियाँ कार्य करने लगती हैं।
(3) सीखने की प्रक्रिया में तीव्रता
(Rapidity in Learning Process)-
शिशु के सीखने की प्रक्रिया में बहुत तीव्रता होती है और वह अनेक आवश्यक बातों को सीख लेता है। गेसल (Gesell) का कथन है- “बालक प्रथम 6 वर्षों में बाद के 12 वर्षों से दुगना सीख लेता है।”
(4) कल्पना की सजीवता
(Live Imagination)-
कुप्पूस्वामी (Kuppuswamy) के शब्दों में, “चार वर्ष के बालक के सम्बन्ध में एक अतिमहत्वपूर्ण बात है उसकी कल्पना की सजीवता। वह सत्य और असत्य में अन्तर नहीं कर पाता है। फलस्वरूप, वह असत्यभाषी ज्ञान पड़ता है।"
(5) दूसरों पर निर्भरता
(Dependence on Others)-
जन्म के बाद शिशु कुछ समय तक बहुत असहाय स्थिति में रहता है। उसे भोजन और अन्य शारीरिक आवश्यकताओं के अलावा प्रेम और सहानुभूति पाने के लिए भी दूसरों पर निर्भर रहना पड़ता है। वह मुख्यतः अपने माता-पिता और विशेष रूप से अपनी माता पर निर्भर रहता है।
(6) आत्म-प्रेम की भावना
(Self Love)-
शिशु में आत्म-प्रेम की भावना बहुत प्रबल होती है। वह अपने माता-पिता, भाई-बहन आदि का प्रेम प्राप्त करना चाहता है। पर साथ ही, वह यह भी चाहता है कि प्रेम उसके अलावा और किसी को न मिले और किसी के प्रति प्रेम व्यक्त किया जाता है तो उसे उससे ईर्ष्या हो जाती है।
(7) नैतिकता का अभाव
(Lack of Morality)-
शिशु में अच्छी और अनुचित बातों का ज्ञान नहीं होता है । वह उन्ही कार्यों को करना चाहता . जिनसे उसको आनन्द आता है, भले ही वे अवांछनीय हो । इस प्रकार, उसमें नैतिकता का अभाव होता है।
(8) मूलप्रवृत्तियों पर आधारित व्यवहार(Instinct Based Behaviour)-
शिशु के अधिकांश व्यवहार का आधार उसकी मूलप्रवृत्तियाँ होती हैं। यदि उसको किसी बात पर क्रोध आ जाता है, तो वह उसको अपनी वाणी या क्रिया द्वारा व्यक्त करता है। यदि उसे भूख लगती है, तो उसे जो भी वस्तु मिलती है, उसी को अपने मुँह में रख लेता है।
(9) सामाजिक भावना का विकास
(Development of Social Feelings)-
इस अवस्था के अन्तिम वर्षों में शिशु में सामाजिक भावना का विकास हो जाता है। वैलेनटीन (Valentine) (p.522) का मत है-“चार या पाँच वर्ष के बालक में अपने छोटे भाइयों, बहिनों या साथियों की रक्षा करने की प्रवृत्ति होती है। वह 2 से 5 वर्ष तक के बच्चों के साथ खेलना पसन्द करता है। वह अपनी वस्तुओं में दूसरों को साझीदार बनाता है। वह दूसरे बच्चों के अधिकारों की रक्षा करता है और दुःख में उनको सांत्वना देने का प्रयास करता है।"
(10) दूसरे बालकों में रुचि या अरुचि
(Interest or Disinterest in Others)
शिशु में दूसरे बालकों के प्रति रुचि या अरुचि उत्पन्न हो जाती है। इस सम्बन्ध में स्किनर (Skinner) (A-p. 88) ने लिखा है-“बालक एक वर्ष का होने से पूर्व ही अपने साथियों में रुचि व्यक्त करने लगता है। आरम्भ में इस रुचि का स्वरूप अनिश्चित होता है, पर शीघ्र ही यह अधिक निश्चित रूप धारण कर लेता है और रुचि एवं अरुचि के रूप में प्रकट होने लगता है।"
11.दोहराने की प्रवृत्ति :-
शैशवावस्था एक ऐसा अवस्था है जिसमें बच्चे बहुत ही तीव्र गति से सीखने लगता है उसमें से एक है दोहराने की प्रवृत्ति । इस अवस्था में शिशु शब्दों, वाक्य और क्रियाओं को बार-बार दोहराने की प्रवृत्ति विशेष रूप से देखें पाई जाती हैं जैसे बार-बार पापा कहना मामा कहना और खुशी से हंसना, बहुत सारे खेल से संबंधित बातें इसे दोहराने में बच्चे को एक प्रकार का आनंद का अनुभव होता है।
12. अनुकरण द्वारा सीखने की प्रवृत्ति :-
शिशु सबसे अधिक और जल्दी अनुकरण विधि से ही सीखता है क्योंकि इस इस अवस्था में बालक किसी भी शब्द या काम को दूसरों से सुनकर या उसे किसी को करते हुए देख कर ही सीखता है। इस अवस्था में बालक अपने माता-पिता, भाई-बहन तथा अन्य सदस्य के व्यवहार का अनुकरण करता है तथा सीखता है इसलिए कहा जाता है कि बच्चों के सामने कभी भी हमें ऐसे काम नहीं करनी चाहिए जिससे कि उनके जीवन में नकारात्मक प्रभाव पड़े।
13. संवेगों का प्रदर्शन :-
शिशु जन्म से ही संवेगात्मक व्यवहार प्रदर्शित करता है। जन्म से ही वह रोने, चिल्लाने, हाथ पैर पटकने आदि क्रियाएं करता है इस जन्म के समय भी उस में उत्तेजना का संवेग रहता है इस अवस्था में सबसे ज्यादा चार संवेग पाए जाते हैं भय, क्रोध, प्रेम तथा पीड़ा।
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शिक्षा की दृष्टि से मानव जीवन में शैशवावस्था का अत्यंत महत्व है । वेलेन्टाइन ने तो शैशवावस्था को सीखने का आदर्श काल (Ideal Period for Learning) कहा है। वाट्सन के अनुसार विकास की अन्य किसी अवस्था की तुलना में शैशवावस्था में सीखने का क्षेत्र तथा तीव्रता (Scope and Intensity) अधिक होती है । शैशवावस्था में शिशु की शिक्षा व्यवस्था करते समय इस काल की विकासात्मक विशेषताओं (Developmental Characteristics) को ध्यान में रखना अत्यंत उपयोगी तथा सार्थक हो सकता है। अतः इस काल में शिशू की शिक्षा का आयोजन करते समय निम्नांकित बातों पर ध्यान देना महत्वपूर्ण होगा
1. उचित वातावरण
शिशु के उचित विकास के लिए शान्त, स्वस्थ तथा सुरक्षित वातावरण आवश्यक है। अतः घर तथा पूर्व प्राथमिक विद्यालय में शिशुओं को शान्त, स्वास्थ्यवर्द्धक तथा सुरक्षित वातावरण उपलब्ध कराने का प्रयास किया जाना चाहिए।
2. पालन-पोषण
Nurture
3. स्नेहपूर्ण व्यवहार
Affectionate Behaviour
शिशु को अपनी आवश्यकताओं की पूर्ति के लिए अन्यों पर निर्भर रहना पड़ता है। इसलिए माता-पिता, शिक्षक अथवा किसी अन्य व्यक्ति को उसकी असहायपूर्ण स्थिति का लाभ नहीं उठाना चाहिए। शिशुओं को बात-बात पर डाँटना अथवा पीटना नहीं चाहिए । शिशुओं की आवश्यकताओं की अवहेलना नहीं करनी चाहिए। शिशु को भय या क्रोध नहीं दिखाना चाहिए वरन् उनके प्रति दया, प्रेम, शिष्टता, सहानुभूति, स्नेह का व्यवहार करना चाहिए।
Satisfaction of Curiosity
शिशु तरह-तरह के प्रश्नों के द्वारा अपनी जिज्ञासा को शांत करना चाहता अतः माता-पिता, शिक्षक तथा अन्य व्यक्तियों को उसके प्रश्नों के संतोषजनक उत्तर देत उसकी जिज्ञासा को शांत करने का प्रयास करना चाहिए।
5. सामाजिक भावना का विकास
Development of Sociability
शैशवावस्था के अंतिम वर्षों में शिशु दूसरे शिशुओं के साथ मिलना, बात करना तथा खेलना पसंद करने लगता है। सामाजिकता की भावना के विकास के लिए यह आवश्यक होगा कि अभिभावक तथा शिक्षक उसे अन्य बालकों के साथ मिलने-जुलने तथा खेलने के उचित अवसर प्रदान करे।
6. मानसिक क्रियाओं के अवसर
Opportunities for Mental Activities
शैशवावस्था में मानसिक विकास की गति अत्यंत तीव्र होती है। अतः बच्चे को सोचने तथा विचारने के अधिक से अधिक अवसर प्रदान करने चाहिए जिससे वह अपना सर्वोत्तम मानसिक विकास कर सके।
7. वार्तालाप के अवसर
Opportunities for Conversation
बालक की भाषा के विकास की दृष्टि से वार्तालाप अत्यंत महत्वपूर्ण है। अभिभावकों तथा शिक्षकों को शिशुओं को छोटी-छोटी कहानियाँ तथा कविताएँ सुनानी तथा याद करानी चाहिए। शिशुओं के साथ सरल भाषा में वार्तालाप करना चाहिए।
8. आत्मप्रदर्शन के अवसर
Opportunities for Self-Demonstration
शिशु में आत्मप्रदर्शन की भावना होती है। अतः उसे ऐसे कार्य करने के पर्याप्त अवसर मिलने चाहिए जिनके द्वारा वह अपनी इस भावना को प्रदर्शित कर सके। कविता पाठ, कला, शिल्पकला आदि के माध्यम से शिशुओं को अपनी योग्यताओं को प्रदर्शित करने के अवसर देने चाहिए।
9. अच्छी आदतों का निर्माण
Formation of Good Habits
व्यक्ति की आदतें ही उसके भावी जीवन का निर्माण करती हैं। शिशु को प्रारम्भ से ही अच्छी आदतों की ओर अग्रसर करना चाहिए।
10. व्यक्तिगत भिन्नता पर ध्यान
Attention on Individual Differences
विकास का स्वरूप बताता है कि शिशुओं में व्यक्तिगत भिन्नताएं होती हैं अतः शिशु के स्वाभाविक विकास के लिए शिक्षा प्रदान करते समय उनकी व्यक्तिगत भिन्नताओं पर उचित ध्यान दिया जाना आवश्यक है।
11. करके सीखने की महत्ता
Importance of Learning by Doing
शिशु जन्म से ही क्रियाशील होता है । खेल में उसकी सहज रुचि होती है । अतः उसे करके सीखने तथा खेल द्वारा सिखाने का प्रयास किया जाना चाहिए। शैशवावस्था में विकास की विशेषताओं को ध्यान में रखकर यदि उपरोक्त बिन्दुओं के अनुरूप शिशु शिक्षा की व्यवस्था की जायेगी तब सम्भवतः शिशुओं का सहज. व स्वाभाविक ढंग से अधिकतम सम्भव सर्वागीण विकास हो सकेगा।