संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
Factors Affecting Emotional Development
संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कारक
Factors Affecting Emotional Development
शैशवावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख कारक निम्नांकित हैं
1. वंशानुक्रम (Heredity)
2. स्वास्थ्य (Health)
3. थकान (Fatigue)
4. मानसिक योग्यता (Mental Abilities)
5. परिवार का वातावरण
Environment of the Family
6. अभिभावकों का दृष्टिकोण
Attitude of Parents
7. सामाजिक-आर्थिक स्थिति
Socio-Economic Status
8. सामाजिक स्वीकृति
Social Acceptance
9.विद्यालय (School)
शैशवावस्था, बाल्यावस्था तथा किशोरावस्था में होने वाले संवेगात्मक विकास को प्रभावित करने वाले कुछ प्रमुख कारक निम्नांकित हैं
1. वंशानुक्रम (Heredity)
व्यक्ति वंशानुक्रम से अनेक शारीरिक तथा मानसिक गुण व योग्यतायें प्राप्त करता है। इन शारीरिक तथा मानसिक गुणों का व्यक्ति के संवेगात्मक विकास पर प्रभाव पड़ता है।
2. स्वास्थ्य (Health)
व्यक्ति के शारीरिक स्वास्थ्य का उसके संवेगात्मक व्यवहार से घनिष्ठ संबंध होता है। स्वस्थ्य व्यक्ति की अपेक्षा बीमार, रोगग्रस्त अथवा शारीरिक दृष्टि से कमजोर व्यक्तियों में संवेगात्मक अस्थिरता अधिक होती है।
3. थकान (Fatigue)
थकान भी व्यक्ति के संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती है। थके हए व्यक्ति में क्रोध, नाराजगी या चिड़चिड़ापन जैसे ऋणात्मक या अवांछनीय संवेग प्रदर्शित करने की अधिक प्रवृति पाई जाती है।
4. मानसिक योग्यता
(Mental Abilities)
व्यक्ति के संवेगात्मक व्यवहार पर उसकी मानसिक क्षमता का अत्याधिक प्रभाव पड़ता है। अधिक बुद्धिमान व्यक्तियों का संवेगात्मक क्षेत्र विस्तृत होता है। उच्च मानसिक क्षमता वाले बालकों में अपने संवेगों को नियंत्रित करने की अधिक क्षमता होती है।
5. परिवार का वातावरण
Environment of the Family
परिवार के वातावरण तथा सदस्यों का संवेगात्मक व्यवहार भी बालकों के संवेगात्मक विकास को तीन ढंग से प्रभावित करता है। प्रथम, यदि परिवार में शांति, सुरक्षा व स्नेह का वातावरण होता है तो बालक का संतुलित ढंग से संवेगात्मक विकास होता है। द्वितीय, यदि परिवार में कलहपूर्ण, अत्यधिक सामाजिक तथा मौज-मस्ती का वातावरण रहता है तो बालकों में अत्यधिक संवेग उत्पन्न हो जाते हैं। तृतीय, यदि परिवार के सदस्य अत्यधिक संवेदनशील होते हैं तथा अत्यधिक संवेगात्मक व्यवहार प्रदर्शित करते हैं तो बालक भी अत्यधिक संवेदनशील होकर संवेगात्मक व्यवहार करते हैं।
6. अभिभावकों का दृष्टिकोण
Attitude of Parents
बालकों के प्रति माता-पिता का दृष्टिकोण तथा व्यवहार भी बालकों के संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करता है। बच्चों की उपेक्षा करना, घर से अधिक समय बाहर रहना, बच्चों के संबंध में अत्यधिक चिंतित रहना, बच्चों को अत्यधिक संरक्षण देना, बच्चों को बालसुलभ अनुभवों से वंचित रखना, बच्चों को अत्यधिक लाड़प्यार करना अथवा बच्चों के प्रत्येक कार्य में हस्तक्षेप करना जैसे व्यवहार बच्चों में अवांछनीय संवेगात्मक व्यवहार विकसित कर देते है।
7. सामाजिक-आर्थिक स्थिति
Socio-Economic Status
परिवार की सामाजिक-आर्थिक स्थिति भी संवेगात्मक व्यवहार को प्रभावित करती है। उन सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले बालक-बालिकाओं में निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले बालक-बालिकाओं की तुलना में संवेगात्मक स्थिरता अधिक होती है। निम्न सामाजिक-आर्थिक स्थिति वाले बालक-बालिकायें धनी बालकों को उत्तम खानपान, वेशभूषा, सुख व एश्वर्य से युक्त देखते हैं जिसके फल्वरूप उनमें ईर्ष्या, देष जैसे ऋणात्मक संवेग अधिक विकसित हो जाते हैं।
8. सामाजिक स्वीकृति
Social Acceptance
व्यक्ति के द्वारा किये गये कार्यों के फलस्वरुप प्राप्त सामाजिक स्वीकृति भी उसके संवेगात्मक विकास को प्रभावित करती है। व्यक्ति अपने कार्यों की दूसरों के द्वारा प्रशंसा चाहता है। जब उसकी अभिलाषा पूर्ण नहीं होती है तब उसमें संवेगात्मक तनाव उत्पन्न हो जाता है । वास्तव में यदि व्यक्ति को अपने कार्यों की सामाजिक स्वीकृति नहीं मिलती है तो उसका संवेगात्मक व्यवहार या तो शिथिल हो जाता है अथवा उग्र हो जाता है।
9.विद्यालय (School)
विद्यालय का बालकों के संवेगात्मक विकास पर स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। बालक विभिन्न क्रियाओं के द्वारा अपने संवेगों की अभिव्यक्ति करता है। यदि विद्यालय का वातावरण, पाठ्यक्रम, कार्यक्रम, शिक्षक वृन्द इत्यादि बालकों के संवेगों के अनुकूल होते हैं तो उन्हें आनन्द की प्राप्ति होती है तथा उनका स्वस्थ संवेगात्मक विकास होता है। इसके विपरीत विद्यालयी वातावरण से तालमेल न होने पर, परीक्षा में असफल हो जाने पर, अध्यापकों के अत्यधिक शुष्क व्यवहार आदि के कारण बालकों में अवांछित संवेग जैसे भय, क्रोध, चिडचिडाहट या घृणा आदि उत्पन्न हो जाते हैं । अध्यापकगण बालकों के समक्ष अच्छे तथा बुरे उदाहरण प्रस्तुत करके उनको साहसी या डरपोक, क्रोधी या सहनशील, शांत या कलहप्रिय बना सकते हैं। अच्छी आदतों के निर्माण तथा अच्छे आदर्शों का अनुसरण करने की इच्छा संवेगों को नियंत्रित करने की क्षमता प्रदान करती है।
उपसंहार
मानव जीवन में संवेगों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है। व्यक्ति के व्यवहार का संबंध संवेगों से होता है तथा शिक्षा का संबंध व्यवहार के परिशोधन से होता है। इसलिये बालकों के संवेगात्मक व्यवहार का अध्ययन करना शैक्षिक दष्टि से अत्यंत उपयोगी है। माता-पिता तथा अध्यापकों को बालकों के संवेगात्मक व्यवहार का अध्ययन करके उनका उचित मार्गदर्शन करना चाहिए। शिक्षा के द्वारा अवांछित संवेगों को नियंत्रित करने तथा वांछित संवेगों को प्रोत्साहित करने के प्रयास किये जाने चाहिए। बालकों के वातावरण को इस प्रकार से नियंत्रित करना चाहिए कि एक ओर जहाँ उनमें अवांछित संवेगों का उदय न हो सके, वहीं दूसरी ओर उनमें वांछित संवेगों का संचार हो सके। शोधन (Sublimation), अध्यवसाय (Industriousness) तथा रेचन (Catharsis) के द्वारा संवेगों को नियन्त्रित किया जा सकता है। शोधन में अवांछित संवेगों को परिमाजित करके उन्हें अच्छी दिशा दी जा सकती है। जैसे क्रोध की
प्रवृत्ति को शत्रुओं की ओर या काम प्रवृत्ति को साहित्य की ओर परिवर्तित किया जा सकता है । अध्यवसाय में रत रहना, संवेगों को वशीभूत करने का एक अच्छा उपाय है। रेचन का तात्पर्य है कि संवेगों को आने से रोका न जाये वरन संवेगों को अभिव्यक्त करने के लिए पर्याप्त अवसर दिए जाएं। निःसंदेह अध्यापक तथा अभिभावकगण बालकों के संवेगात्मक विकास में महत्वपूर्ण योगदान कर सकते हैं। पाठयसहगामी क्रियाओं जैसे नाटक, खेल, स्काउटिंग, भ्रमण आदि के माध्यम से छात्रों का उचित ढंग से संवेगात्मक विकास किया जा सकता है।
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