ई.सी.सी.ई(E.C.C.E ) के अवधारणा एवं उद्देश्यों का वर्णन करे
SUBJECT | प्रारम्भिक बाल्यावस्था एवं देखभाल |
Course | Bihar D.El.Ed. 1st YEAR |
Code | F-3 |
Short Information | बिहार डी.एल.एड 1st ईयर पेपर F-3 प्रारम्भिक बाल्यावस्था एवं देखभाल के प्रश्न दिया गया है | |
प्रश्न - ई.सी.सी.ई(E.C.C.E ) के अवधारणा एवं उद्देश्यों का वर्णन करे
उत्तर - ई.सी.सी.ई (E.C.C.E ) के अवधारणा
प्रारम्भिक बाल्यावस्था ( Early Childhood)
प्रारम्भिक बाल्यावस्था का समय 3 से 6 वर्ष का माना जाता है। इस समय बालक की लम्बाई लगभग 47 इंच तथा वजन 47-48 पौण्ड होता है। यह काल शैशवावस्था के तत्काल बाद आता है। इस अवस्था के बाद बालक उत्तर बाल्यावस्था में प्रवेश कर जाता है। इस अवस्था में बालक अपने मनोवैज्ञानिक वातावरण में नियन्त्रण करना सीख लेता है और सामाजिक समायोजनों को सीखना आरम्भ कर देता है। इस अवस्था में अनुकरण, जिज्ञासा तथा समूह प्रवृत्ति कुछ प्रमुख विशेषताएँ होती हैं जो बालक में पायी जाती हैं। इस अवस्था में जिज्ञासा की प्रवृत्ति के कारण बालक अनेक प्रकार के प्रश्न पूछकर अपनी जिज्ञासा को शान्त करने का प्रयास करते हैं। प्रारम्भिक बाल्यावस्था के मध्य तक बालक सामाजिक परिवेश के सम्पर्क में आता है क्योंकि वह स्कूल जाना शुरू कर देता है। उसका सामाजिक क्षेत्र बढ़ जाता है क्योंकि नये दोस्त और नये अनुभव और नये-नये तरह से अधिगम करना वह शुरू कर देता है। जिससे बालक को यह अवसर मिलने शुरू हो जाते हैं कि वह नई उपलब्धियों और प्रवीणताओं को प्राप्त करे। इस नये सामाजिक क्षेत्र तथा नये तरह के जीवन की शुरूआत के कारण बालक समायोजन की समस्या का नये प्रकार से सामना करता है।
प्रारम्भिक बाल्यावस्था की प्रमुख विशेषताएँ निम्नलिखित हैं-
देखभाल (Care)
शिक्षा (Education)
शिक्षा मानव के गुणों को विकसित करने की प्रक्रिया है । इसके द्वारा मानव की अन्तर्निहित योग्यताओं को विकसित करके समाज सम्मत बनाया जाता है। कुछ प्रश्न उठते हैं- क्या बालक को जो कुछ वह है, उसी रूप में विकसित किया जाना चाहिए ? या उसे हजारों वर्षों की सांस्कृतिक सामाजिक विरासत के मानदण्डों के अनुसार विकसित कर स्वस्थ समाज की रचना में योग देना चाहिए । इसका सीधा सा उत्तर है - व्यक्ति तथा समाज, दोनों सापेक्ष हैं। एक- दूसरे के पूरक हैं और एक के बिना दूसरे का अस्तित्व नहीं है। अतः व्यक्ति की शिक्षा इस प्रकार की हो कि वह अपने गुणों का उपयोग अपने विकास तथा समाजोत्थान के लिए करे, करने की यह प्रक्रिया शिक्षण आधारित है।
स्वशिक्षण का आधार आवश्यकता तथा अनुकरण हैं । सामान्य शिक्षण का आधार शिक्षक हैं वह कतिपय कौशलों, तकनीक तथा प्रविधि द्वारा सरलता से बालक में वांछित व्यवहार परिवर्तन करता है। शिक्षक, मनोविज्ञान के प्रयोग से, जो नहीं है, उसे है में बदलता है। अस्तित्व प्रदान करता है जिसे अस्तित्व प्रदान करता है, वह बालक है, जिससे परिवर्तन होता है, वह अनुभव हैं। बालक, शिक्षक तथा अनुभव की यह त्रिवेणी शिक्षा की प्रक्रिया की रचना करती है। शिक्षक, बालक की जन्मजात विशेषताओं, रुचियों, प्रवृत्तियों में वातावरण निर्माण, अनुभव तथा कौशल से परिवर्तन करता है । शिक्षक उसकी प्रकृति मानसिक स्तर, रुचि, बौद्धिक योग्यता, व्यक्तित्व निष्पत्ति, आदि में विकास करता है।
ई.सी.सी.ई(E.C.C.E ) के उद्देश्य
शिक्षा समिति की रिपोर्ट व विद्यालयीय शिक्षा के लिए राष्ट्रीय पाठ्यक्रम की रूपरेखा सन् 2000 में दिये गये लक्ष्यों को ध्यान में रखते हुए प्रारम्भिक बाल शिक्षा और देखभाल कार्यक्रम के उद्देश्यों को इस प्रकार निर्धारित किया जा सकता है-
1. शिश का समुचित शारीरिक विकास, माँसपेशियों में अच्छा समन्वय तथा वांछनीय कौशलों का विकास ।
2. शिशु में स्वच्छ मानवीय आदतों का विकास, व्यक्तिगत समायोजन के लिए आवश्यक जीवन कौशलों का विकास; जैसे-कपड़ा पहनना, भोजन करना, आदि ।
3. शिशु में सौन्दर्य बोध प्रोत्साहित करना ।
4. शिशु जिस वातावरण में रहता है उसे समझने में उसकी सहायता करना ।
5. शिशु में बौद्धिक जिज्ञासा जाग्रत करना ।
6. शिशु को अभिव्यक्ति के अवसर प्रदान करना तथा सृजनात्मकता को प्रोत्साहित करना ।
7. शिशु में अपने विचारों और भावनाओं को स्पष्टता के साथ व्यक्त करने की क्षमता का विकास करना ।
8. वांछित सामाजिक दृष्टिकोण तथा शिष्टाचार का उचित विकास करना ताकि शिशु क्रियाकलापों में भाग ले सकें तथा दूसरों के अधिकारों के प्रति संवेदनशील बन सकें ।
1. सर्वांगीण विकास-
प्रारम्भिक बाल शिक्षा और देखभाल कार्यक्रम का मुख्य उद्देश्य बच्चे का सर्वांगीण विकास करना भी है। इसके लिए बच्चे का शारीरिक विकास, उसकी माँसपेशियों का समन्वय उचित प्रकार से हो रहा है अथवा नहीं, लम्बाई, भार तथा दाँतों का विकास मानकों के अनुरूप है अथवा नहीं, साथ ही उनमें कौशलों का विकास हो रहा है या नहीं, उसकी क्रियात्मक गतिविधियाँ उचित प्रकार से हो रही है या नहीं। उसका शारीरिक एवं क्रियात्मक विकास उचित गति से चल रहा है या नहीं, उपर्युक्त सभी बातों पर ध्यान दिया जाता है। किसी भी बच्चे का सर्वांगीण विकास तभी हो सकता है जब उसके सम्पूर्ण विकास का अवलोकन किया जाये तथा मानकों के आधार पर उनका मूल्यांकन किया जाये।
2. स्वच्छ मानवीय आदतों का निर्माण-
प्रारम्भिक बाल देखभाल एवं शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बच्चे में स्वच्छ आदतों का निर्माण करना भी है। प्रारम्भिक बाल्यावस्था वह समय होता है जब बच्चे में अच्छी या बुरी आदतों का निर्माण होता है। आदतें दो प्रकार की होती हैं जो मानवीय जीवन में विशेष महत्त्व रखती हैं जैसे- अच्छी आदत है - प्रातः काल उठना, व्यायाम करना, प्रात:काल नियमित रूप से शौच जाना, दंतमंजन करना, स्नान करना, स्वयं अपने कपड़े पहनना, अपने उतारे हुए कपड़े तथा जूते अपने स्थान पर रखना, अपने हाथों से भोजन करना, अपने भोजन किये हुए बर्तन सिंक में रखना, अपना सामान तथा स्कूल बैग निर्धारित स्थान पर रखना, रात्रि में समय पर सो जाना,सभी प्रकार की सब्जियों का सेवन करना, आदि। जबकि बुरी आदतें होती है, देर तक टी.वी. देखना या वीडियो गेम खेलना, रात्रि में देर से सोना, सुबह प्रात:काल देर से उठना, नियमित रूप से शौच के लिए नहीं जाना, स्नान न करना, प्रात:काल मंजन न करना, इधर-उधर सामान बिखरा देना, स्वयं कपड़े न पहनना, पूरे कमरे में फेंक देना। स्वयं भोजन न करना, समय पर भोजन न करना आदि ऐसी आदतें हैं जिन्हें बुरी आदतें कहा जा सकता है। व्यक्तिगत जीवन में समायोजन करने के लिए आवश्यक जीवन कौशलों का विकास आवश्यक है। प्रारम्भिक बाल्यावस्था में ही आदतों का निर्माण हो जाता है। ये आदतें जीवन भर व्यक्ति के साथ रहती हैं। इनका अच्छा या बुरा होना व्यक्ति के व्यक्तित्व के अच्छे या बुरे होने का परिचायक बन जाता है। प्रारम्भिक बाल्यावस्था में अच्छी आदतों के निर्माण पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता होती है। उसे जीवन जीने का ढंग सिखाया जाता है तथा आत्मनिर्भर बनाना भी सिखाया जाता है।
3. सौन्दर्य बोध का विकास -
प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बालक में न केवल शारीरिक, मानसिक, सामाजिक संवेगात्मक विकास होता है बल्कि उसमें सौन्दर्य बोध का भी विकास होता है। ई. सी.सी.ई. कार्यक्रम का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बालकों में सौन्दर्य बोध विकसित करना भी है। सौन्दर्य बोध से आशय है किसी भी वस्तु या व्यक्ति या स्थान के बारे में यह धारणा बनाना कि वह अच्छी या बुरी है या और यदि अच्छी है तो क्यों अच्छी है और यदि बुरी है तो क्यों बुरी है। किसी वस्तु का आकलन तथा मूल्यांकन करके ही सौन्दर्य बोध का विकास किया जा सकता है। हमारे आसपास बहुत सा प्राकृतिक एवं मानव निर्मित सौन्दर्य है। जिसे व्यवस्थित करके आकर्षक रूप प्रदान किया जाता है जिससे वह नेत्रों को सुखदायी लगे । इसके लिए उसके बुरे पक्ष को छिपाया जाता है तथा उसकी अच्छाई और विशेषताओं को उभारा जाता है। उन विशेषताओं के आधार पर ही यह आकलन किया जाता है कि वह वस्तु अच्छी है या बुरी है । प्रारम्भिक बाल्यावस्था से ही बालक में उन विशेषताओं की समझ का विकास करना चाहिए जिससे उसे सौन्दर्यनुभूति हो सके। वह किसी वस्तु को अपने नजरिए से अच्छा या बुरा समझ सके तथा अच्छी वस्तुओं की ओर क्यों आकर्षित हो रहा है यह भी समझ सके ।
4. वातावरणीय ज्ञान -
ई. सी. सी. ई. कार्यक्रम का एक उद्देश्य बालक में वातावरणीय ज्ञान की समझ उत्पन्न करना है। जन्म के बाद शिशु जिस वातावरण तथा परिवेश में रहता है सर्वप्रथम उसे समझना चाहता है क्योंकि उसे समझ कर ही वह उससे समायोजन स्थापित कर पाता है । वातावरण में बहुत सी चीजें ऐसी होती हैं जो नकारात्मक रूप से उस पर प्रभाव डालती हैं और बहुत सी ऐसी भी होती हैं जो सकारात्मक रूप से उस पर प्रभाव डालती हैं । प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बालक में स्वयं भी निषेधात्मकता होती है। जब उसकी इच्छाओं की पूर्ति नहीं हो पाती है या वह अपने वातावरण को ठीक प्रकार से नहीं समझ पाता है ऐसी स्थिति में उसकी नकारात्मकता उभर आती है। वह तोड़-फोड़ करने लगता है तथा कभी-कभी जमीन पर लोट जाता है अथवा बड़ों की अवज्ञा का प्रदर्शन करने लगता है। इस समय उसका व्यवहार आंक्रामक भी बन जाता है। यह ईर्ष्या,माता-पिता की उपेक्षा, पक्षपात, संवेगात्मक तनाव तथा प्रभुत्व की भावना के कारण होता है। बालक कई बार लड़ाई-झगड़े द्वारा, लोगों का ध्यान अपनी ओर खींचना चाहता है। पूर्व बाल्यावस्था में वातावरण अनुकूल न होने पर बालक अधिक आक्रामक हो जाते हैं।
5. बौद्धिक विकास -
प्रारम्भिक बाल शिक्षा और देखभाल कार्यक्रम का प्रमुख उद्देश्य बच्चों का बौद्धिक विकास करना भी है। इस अवस्था में बालक का बौद्धिक विकास बहुत तीव्रता से होता है। इस समय बालक हर वस्तु को बहुत ध्यान से देखता है और बहुत से प्रश्न पूछता है। वह अपने वातावरण के बारे में बहुत कुछ जानना चाहता है। 6 वर्ष तक के बच्चे प्रत्येक वस्तु का ध्यान से अवलोकन तथा निरीक्षण करते हैं उन्हें समझने के लिए छूकर देखना चाहते हैं। अपनी ज्ञानेन्द्रियों के माध्यम से उन्हें महसूस करते हैं तथा उनको प्रत्यक्ष रूप से समझना चाहते हैं। जब वे किसी के घर जाते है तो वहाँ रखी वस्तुएँ छूना और देखना चाहते हैं। इसी जिज्ञासा की प्रवृत्ति के कारण वे काफी नुकसान भी कर देते हैं और उन्हें शैतान समझा जाता है, जबकि किसी वस्तु को हानि पहुँचाने की उनकी कोई इच्छा नहीं होती, वे तो केवल उस वस्तु को देखना व समझना चाहते हैं। इस अवस्था में बच्चों में चिन्तन करने की क्षमता का भी विकास होने लगता है। वे कहानी सुनकर याद भी कर सकते हैं तथा उनकी स्मृति शक्ति भी विकसित होने लगती है। 3 से 6 वर्ष में वे स्वयं छोटी-छोटी कहानियाँ खुद बनाने लगते हैं और सुनाते हैं । कविताओं को याद कर लेते हैं। कहानी सुनते समय कल्पना से उन चरित्रों की मानसिक छवि बनाते हैं जैसे राक्षस कैसे होते हैं। परियों का वर्णन, राज कुमारी तथा राजकुमार की छवि वे मन में बना सकते हैं
6. सृजनात्मक का विकास -
ई. सी. सी. ई. कार्यक्रम का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बच्चों में सृजनात्मकता का विकास करना है। इस अवस्था में उनमें सृजनकारी गुण आने लगते हैं। वह कागज की नाव बनाना, तथा खिलौने बनाना, कागज की बेलें, जहाज एवं फूल-पत्ती बनाने लगते हैं। वे मिट्टी के भी घरौंदे तथा खिलौने बनाते हैं। ब्लॉक से पुल, घर व विभिन्न आकृतियाँ बना लेते हैं। आरम्भिक बाल्यावस्था में बच्चों में सृजनात्मकता काफी देखने को मिलती है। सृजनशीलता का विकास करने के लिए विद्यालय में शिक्षक भी उन्हें काफी प्रोत्साहित करते हैं तथा पेन्सिल के रंगों से वे ड्रांइग भी बनाते हैं। इस अवस्था में बच्चों को अभिव्यक्ति के अवसर भी देने चाहिए। इससे उनके विचारों में सोच का विकास होता है। उनकी भाषा की अभिव्यक्ति क्षमता बढ़ती है साथ ही वे विभिन्न नये शब्दों तथा वाक्यों का प्रयोग करना सीखते हैं। वे विभिन्न विषयों और प्रत्ययों के बारे में सोचने लगते हैं तथा उनको व्यक्त करने लगते हैं। अतः इस अवस्था में सृजनात्मकता और अभिव्यक्ति की क्षमता दोनों का ही विकास करना चाहिए ।
7. अपने विचारों को स्पष्टता के साथ व्यक्त करना-
प्रारम्भिक बाल शिक्षा और देखभाल कार्यक्रम का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य शिशु में अपने विचारों और भावनाओं को स्पष्टता के साथ व्यक्त करने की क्षमता का विकास करना भी है। 3 वर्ष के बालक की भाषा का निरन्तर विकास होता रहता है। वह जिन शब्दों को बोलता है, उनके अर्थ भी समझता है। दूसरे द्वारा बोले गए निर्देश भी समझता है। वह अपनी समझ को भाषा द्वारा व्यक्त करता है। भाषा द्वारा वह पढ़ या लिखकर भी ज्ञान प्राप्त करता है। अतः इसके लिए उसके अन्दर यह क्षमता होना आवश्यक है कि वह अपने भावों तथा विचारों का संयोजन कर सके तथा समयानुसार शब्दों का उपयोग कर सके। विचारों को दूसरों के सामने स्पष्ट रूप से व्यक्त कर सके। वह विभिन्न प्रत्ययों को समझ कर उसके अनुरूप शब्दों का प्रयोग कर सके। उसके विचारों में भ्रम की स्थिति न हो। वह समय, स्थान, दूरी, धन, रंग, लिंग, सौन्दर्य बोध जैसे प्रत्ययों को समझ सके।
8. सामाजिक दृष्टिकोण एवं शिष्टाचार का उचित विकास -
ई.सी.सी.ई. कार्यक्रम का एक महत्त्वपूर्ण उद्देश्य बालक में सामाजिक दृष्टिकोण एवं शिष्टाचार का विकास करना भी है। सामाजिक दृष्टिकोण से तात्पर्य है समाज में उन्हें किस प्रकार अपने सामाजिक सम्बन्ध सुदृढ़ बनाने हैं। प्रारम्भिक बाल्यावस्था में बालक में सहयोग तथा सहानुभूति के साथ-साथ प्रतियोगिता, स्पर्धा की भावनाएँ भी विकसित होती हैं। वह माता-पिता, परिवार तथा अपने साथियों के प्रति यह भावना प्रकट करता है। इस समय बालक में अनुकरण का गुण भी पाया जाता है। वह परिवार, स्कूल में शिक्षक, संगी-साथियों के व्यवहार का अनुकरण करके बहुत से सामाजिक गुणों को अर्जित करता है। इस अवस्था में वे अधिक चिंतन नहीं कर पाते हैं। वह दूसरों के व्यवहारों का अनुकरण करके ही सामाजिक सम्बन्धों को विकसित करते हैं वह जिस सामाजिक वातावरण में रहते हैं वहाँ के लोगों का सामाजिक व्यवहार उनके सामाजिक दृष्टिकोण का विकास करता है। यदि परिवार के लोग लोगों में मेल-जोल रखते हैं, दूसरों के दुख-सुख में शरीक होते हैं सभा - सोसाइटियों में जाते आते हैं, परिवार में मित्रों तथा रिश्तेदारों से सम्बन्ध रखते हैं तो बालक भी प्रारम्भिक बाल्यावस्था से ही सामाजिक दृष्टिकोण अपनाने लगता है।
बालकों में शिष्टाचार का उचित विकास होना भी आवश्यक है। प्रारम्भिक बाल्यावस्था से ही बालकों को यह ज्ञात होना चाहिए कि दूसरों के साथ हमें उसी प्रकार का व्यवहार करना चाहिए जैसा हम दूसरों से अपने लिए चाहते हैं। बड़ों का सम्मान करना चाहिए। अपने रिश्तेदारों को पैर छूकर या हाथ जोड़कर हमारी संस्कृति में सम्मान देते हैं। माता-पिता, दादा-दादी, नाना-नानी, बड़े भाई, चाचा-चाची, ताई - ताऊ बड़ी बहनें वे व्यक्ति होते हैं जिन्हें हमें सम्मान देना चाहिए। साथ ही जो हम से आयु में बड़े हैं और हमें स्नेह देते हैं वे भी सम्मान के पात्र होते हैं। विद्यालय में शिक्षक तथा प्राचार्य सम्मान के पात्र माने जाते हैं। अपने बड़ों के साथ हमें कैसा व्यवहार करना है। सामान्य शिष्टाचार भी बच्चों को प्रारम्भिक अवस्था से ही सीखना चाहिए । इस प्रकार वह व्यवहार के मानक जानने लगता है। धीरे-धीरे वह अपने व्यवहार को समाज की अपेक्षाओं के अनुसार व्यक्त करना सीख जाता है ।